हरिशंकर परसाई ने कई वर्ष पहले हिंदी लेखकों के लिए लिखा था कि “हिंदी लेखक तीन युगों में एक साथ जीता है – एक तो वह मध्ययुग के संत कवियों की तरह अपना आदर्शीकरण करता है, कुम्भनदास, कबीर, तुलसी की महिमा से मंडित करता है “संतान कहा सीकरी सों काम?” या “अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार” दूसरे वह अभी भी छायावादी रूमानी युग में अंशत: जीता है. थोडा सा निराला होना चाहता है. फिर अपने काल में जीता है– लाभ हानि का हिसाब करता है. कहाँ से क्या मिलेगा, यह पता लगाता है, उसे पाने की तरकीबें भिड़ाता है, वह अच्छा रहना, खानापीना चाहता है, सुख भोग करना चाहता है. तो वह इस काइयांपन से पैसा लेना चाहता है कि माया महाठगिनी हम जानी, कहता हुआ संत भी बना रहे, छायावादी रूमानी बेपरवाही भी निभ जाए और वास्तविक धन भी हाथ आ जाए, सम्मान भी मिल जाए”
जहां पहले यह द्वन्द छिप जाया करता था, वहीं अब सोशल मीडिया के जमाने में यह द्वन्द उभर कर आ गया है. उसे सब कुछ चाहिए और क्रांतिकारी का लेबल तो सबसे पहले चाहिए. वह इस बात पर अडिग रहता है कि एक लेखक को सत्ता का विरोधी होना चाहिए. लेखक को सत्ता की तारीफ़ नहीं करनी चाहिए. कहीं न कहीं यह बात सत्य भी है. परन्तु यह बात लोकतंत्र द्वारा चुनी हुई सरकार के प्रति कितनी सच है, प्रश्न यह भी है. सत्ता का स्वरुप क्या है? सत्ता का विरोध करना और विपक्ष का पक्ष हो जाना क्या यह दोनों एक बात हैं? इस बात पर भी वह स्पष्ट नहीं हैं. यदि इस बात पर हम और अपनी बात कहेंगे तो शायद मुद्दे में भटकाव हो जाएगा. अभी एक ही बात पर टिके रहते हुए सत्ता विरोध पर बात करते हैं. जब वह सत्ता का विरोध करने की या सत्ता के विरोध में खड़े रहने की बात करते हैं तो यह मात्र भाजपा विरोध की बात होती है. सबसे पहले लेखन की परिभाषा तय करनी चाहिए. लेखन का उद्देश्य जनता की भलाई है या सरकार का विरोध? लेखन का उद्देश्य सामाजिक सरोकार होता है, वह केवल और केवल सत्ता के विरोध तक ही सीमित नहीं रहता है. यह एक सांस्कृतिक कार्य है. परन्तु भारत में हिंदी लेखकों का एक बड़ा वर्ग, जिसका अभी तक सत्ता के हर केंद्र पर अधिकार था, हर अकादमी पर अधिकार था, हर पुरस्कार की कमिटी में अधिकार था, वह अब जनता द्वारा चुनी गयी सरकार के विरोध में हर हद पार करने के लिए तैयार है.
वर्ष 2014 के बाद से लेकर आज तक इस वर्ग ने सरकार का विरोध करते करते देश के खिलाफ खड़े होने में हिचक नहीं दिखाई है. यदि मोदी जी कुछ कदम उठाते हैं तो वह उसका विरोध करने के लिए विदेशों की तस्वीरें भी ले आते हैं. और विदेशों में भी भारत को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं. रोहित वेमुला, कठुआ काण्ड और तबरेज के मामलों सहित असंख्य मामले ऐसे हैं जिनमें यह देश के खिलाफ खड़े हो गए. मजे की बात यह है कि सत्ता के विरोधी लेखक पाकिस्तान में इमरान खान की सरकार बनने पर खुशी मनाते हुए नज़र आए. कई प्रगतिशील लेखिकाओं ने उसके हैण्डसम होने पर कवितायेँ लिखीं और कई लेखक उसके भाषण पर बलिहारी हो गए.
यदि उससे भी आगे बढ़ते हैं और आज पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि लॉक डाउन को फेल कराने के लिए लेखकों के एक वर्ग ने एडी चोटी का जोर लगा दिया. और हर वह काम किया जिससे मोदी सरकार को बदनाम किया जा सके. कभी वह केरल में बाढ़ आने पर अरब की सरकार की झूठी मदद की तारीफ़ करते हैं तो कभी आमिर खान की उस मदद को सैकड़ों और हज़ारों बार पोस्ट करते हैं, जो मदद उसने की ही नहीं. यद्यपि आमिर खान ने मुख्यमंत्री राहत कोश में मदद दी थी, मगर यह कहानी कि एक अनजान आदमी ने हज़ारों लोगों को पंद्रह पन्द्रह हजार रूपए दिए, और वह भी गुमनाम होकर, आमिर की नहीं थी. आमिर खान ने भी पूरे दो हफ़्तों तक तारीफें बटोरने के बाद एक पंक्ति का डिस्क्लेमर दिया कि वह कार्य उन्होंने नहीं किया है. तब तक देश विदेश में वह पूरी तरह तारीफों का खजाना अपने नाम कर चुके थे. जब मैंने एक प्रगतिशील मित्र को इस खबर के झूठे होने के विषय में बताया तो उन्होंने मुझे ही भक्त आदि आदि की उपाधि दे दी. और जब सत्य पता चला तो भी श्रेष्ठता बोध के अहम् तले उन्होंने माफी मांगने की जरूरत नहीं समझी! मुझसे नहीं, अपने पाठकों से कि उन्होंने झूठ कहा, बरगलाया! इसी प्रकार अभी हाल ही में बनारस में एक प्रगतिशील पत्रकार रिजवाना तबस्सुम ने आत्महत्या कर ली. यह आत्महत्या एक सुनियोजित हत्या भी हो सकती है, मगर इस विषय में हर प्रगतिशील मौन है. और इसका कारण है. यह मौन इतनी आसानी से तो नहीं आता, इसकी एक कीमत होती है. दरअसल रिजवाना हिंदुत्व आदि के खिलाफ मन भर कर लिखती थीं. तो जाहिर है वह वायर, दि प्रिंट आदि पोर्टल्स के लिए लिखती थीं. जब उन्होंने आत्म्हत्या की तो एक महान प्रगतिशील लेखक ने झूठ की हर पराकाष्ठा को पार करते हुए उसकी आत्महत्या को ग्लानि से उपजी हुई आत्महत्या बता दिया. यह गिद्ध इतने शातिर हैं कि यदि उसे आत्महत्या के लिए उकसाने वाला यदि अंकित, मोहित या कोई और टीकाधारी होता तो अब तक पूरी तरह से यह गिद्ध नोच कर खाने के लिए तैयार होते. मगर शमीम का नाम आने से वह रिजवाना को ही नोचकर खा गए हैं, जिसने उनके एजेंडे पर काम किया.
अब इनके सबसे निकृष्ट रूप पर आते हैं. यह लोग हर फेक तस्वीर को साझा करते हैं. हाल ही में आजमगढ़ की एक बहुत प्रसिद्ध रचनाकार हैं, जो स्वयं को प्रगतिशील बताती हैं, योगी सरकार की समय समय पर बुराई करती रहती हैं, मगर उन्होंने एक नहीं दो बार फेक तस्वीरें लगाईं. पकिस्तान वाली तस्वीर जो पुण्य प्रसून वाजपेई ने ट्वीट की थी, वह इन लेखकों द्वारा कई बार पहले ही पोस्ट हो चुकी थी. हालांकि ध्यान दिलाने पर उन्होंने वह तस्वीर हटा ली. परन्तु रोहिंग्या वाली तस्वीर का मुझे ध्यान नहीं कि हटाई या नहीं!
इन सभी लेखकों के लिए कच्चे माल का स्रोत या तो मुस्लिम वेबसाईट होती हैं या फिर कांग्रेस की आईटी सेल. तभी भाषा दोनों की समान होती है. एक महान कवयित्री हैं उन्होंने कश्मीर की तस्वीर बताते हुए ईरान की तस्वीर लगा दी थी.
जब यह लोग दूसरों को भक्त कह रहे होते हैं उसी समय वह राहुल गांधी की तारीफों में कसीदे गढ़ रहे होते हैं. और कांग्रेस के प्रति उनका यह मोह आज का नहीं है. यह मोह बहुत पुराना है. इस मोह के विषय में नीलाभ अश्क एक लेख में लिखते हैं कि रविन्द्र कालिया संजय गांधी के दरबार में तिकडम से पहुंचे थे. मगर जैसे ही 1981 में संजय गांधी की मृत्यु हुई वैसे ही कालिया ने पलटी मारकर राजीव गांधी का साथ कर लिया. यहाँ तक कि चुनावों के दौरान मेनका गांधी का चरित्र हनन करते हुए इसकी भी पुस्तक बंटवाई कि वह कैसे शराब पीती है, सिगरेट पीती है आदि आदि. वह भी तब जब ममता कालिया (रविन्द्र कालिया की पत्नी और स्त्रीवादी रचनाकार) नारी अधिकारों की हिमायत करती थी. तो यह कहा जा सकता है कि जो भी लेखक सत्ता का हर कीमत पर और सत्ता के जन कल्याण वाले कदम का भी विरोध करने जैसी बेकार बातें करें तो समझ जाइए कि उसका कहीं न कहीं सम्बन्ध कांग्रेस से जरूर निकलेगा. और यह सब हम पिछले दिनों मध्य प्रदेश में खुले आम देख चुके हैं.
That’s what we should hate of