सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में जब ईवीएम में नोटा का बटन बनाए जाने का आदेश दिया तो अंदाजा नहीं लगाया गया कि सत्ता की चाबी नोटा के बटन तय करने लगेंगे। नोटा का विरोध इस लिहाज से हुआ कि जब जीत और हार में इसकी कोई भूमिका नहीं तो कोई वोट के लिए नोटा दबाने घर से निकल कर, लाईन में लगने क्यों जाएगा! पांच साल बाद ही तीन बड़े राज्यों के वोटरों ने नोटा को विद्रोह का बटन साबित कर दिया। जिस राजनीतिक दल को वो अपना मानते थे उसके खिलाफ नोटा दबा जिसे नहीं चाहते उसके गले विजयश्री का माला पहना दिया। वोटों के रेस में सत्ता गवां चुके भाजपा को यह एहसास चुनाव आयोग के आंकड़ो को देखने के बाद हुआ। दो दिन बाद ही यह एहसास अब कांग्रेस आलाकमान को हो रहा है । पार्टी अपने मुताबिक मुख्यमंत्री चुने जाने के लिए कार्यकर्ताओं का सड़क विद्रोह कांग्रेस की संस्कृकि नहीं ! लेकिन सड़क पर अराजकता, अनुशासनहीनता की वो तस्वीर पांच माह बाद 2019 के अगामी लोक सभा चुनाव को लेकर उन्हें डरा रहा है!
2014 के लोक सभा चुनाव के बाद लगातार जीत के लिए तरस रही कांग्रेस कांटों के टक्कर में एकाएक तीन बड़े राज्यों पर काबिज हो गई। कांग्रेस के लिए इस जीत के बड़े मायने थे। तीनो राज्यों में सत्ता हासिल करने के बाद कांग्रेस को अपना मुख्यमंत्री तय करना था। कांग्रेस जैसी पार्टी के लिए यह बहुत आसान था । क्योकि यहां परंपरा रही है जब आलाकमान गांधी नेहरु परिवार से हो तो विधायक दल नहीं परिवार के डाइंनिग टेबल से फैसला जारी होता है। कहीं से उसके खिलाफ न फैसला से पहले न फैसले के बाद कोई आवाज उठती है। अबकी बार भी कांग्रेस आलाकमान के साथ उनकी मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका गांधी को मिलकर तय करना था कि तीनो राज्यों का मुख्यमंत्री किसे बनाया जाए। लेकिन तीनों राज्यों में कांग्रेसियों के उत्पात और अनुशासनहीनता की खबर उस डाइनिंग टेबुल के जायके बेस्वाद कर दिया।
मध्यप्रदेश में बुजुर्ग नेता कमल नाथ और युवा नेता ज्योतिर्यादित्य के समर्थक सड़क पर थे। उधर राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के समर्थक मैदान में थे। हंगामा छत्तीसगढ़ में था लेकिन उसका स्तर इन दो राज्यों की तरह नहीं की पार्टी कार्यकर्ता एक दूसरे के खुन के प्यासे हों। अराजकता अनुशासनहीनता और सड़कों पर आगजनी से आम आदमी का जीन दूभर हो रहा था। यह कांग्रेस की नई संस्कृति थी। जो सभी न्यूज चैनल के स्क्रीन को मस्त कर रहे थे। दोनो पक्ष अपनी बात पर अड़े थे। कांग्रेस आलाकमान को यही बेचैन कर रहा था। क्योंकि उन्हें समझा दिया गया कि यहां की गई एक भी गलती 2019 के सपनों को तबाह कर सकता है। राहुल गांधी और उनके सिपहसालार इसी से डरे थे क्योंकि उत्पात मचा रहे कांग्रेसी कार्यकर्ता टीवी चैनलों के रिपोर्टरों से माईक छीन छीनकर एक ही बात कह रहे थे कि यदि उनके नेता को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया तो परिणाम 2019 में भुगतना पड़ेगा। सचिन पायलट हों या सिंधिया। गहलोत हों या कमलनाथ। हर किसी के समर्थक यही कह रहे थे कि उनके नेता को बागडोर नहीं दिया गया तो वे 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा को तो वोट नहीं देंगे लेकिन नोटा का बटन दबा देंगे। टीवी चैनलों से कांग्रेस आलाकमान को दी जा रही धमकी सीधे उनके डाईनिंग टेबल तक पहुंच रहा था जो उन्हें भयभीत कर रहा था।
कांग्रेस आलाकमान को एहसास हो रहा था कि चुनाव तो मणिपुर और तेलंगाना में भी हुआ था। मणिपुर पूर्वोत्तर में उनका आखिरी किला था जो ध्वस्त हो गया। तेलंगना में कांग्रेस और उनके सहयोगी चंद्रबाबू पस्त हो गए तो देश के नक्से पर पंजाब के अलावा कांग्रेस कहीं दिख नहीं रहा था। उसी वक्त देश के हृद्य पट्टी पर तीन विशाल राज्यों से भाजपा को पस्त कर जनता ने जब कांग्रेस को जीत दिलाई देश की सबसे पुरानी पार्टी को यकायक फिर संजीवनी मिल गई। कांग्रेस आलाकमान राहुल गांधी सुपरमैन की तरह पेश किए जाने लगे। कांग्रेस के उसी नए सुपरमैन को अब तय करना था कि मध्यप्रदेश और राजस्थान में जहां 15 साल बाद कांग्रेस को सत्ता की चाबी मिली है और राजस्थान जहां सत्ता का चक्र वापस घुम कर उसके पास आया है। यकायक मिली वो बेसुमार खुशी को वो नोटा डरा रहा था जिसके भय से तीनों राज्य गवां चुकी भाजपा अभी उबर ही नहीं पाई थी।
कांग्रेस आलाकमान को समझाया जा रहा था कि मध्यप्रदेश में कुल मिलाकर उन्हें भाजपा से कम वोट मिले। दस सीटों पर जीत का अंतर एक हजार से भी कम थे। जीत में जितने वोटों का अंतर था उससे दस गुणा से ज्यादा वोट नोटा को मिले थे। इन दस सीटों पर जीत के अंतर का कुल योग 4337 वोटों का था। मतलब 4337 वोट ज्यादा होने से ही कांग्रेस एमपी में जीत गई। इससे कई गुणा वोट नोटा को मिले। अनुमान साफ था कि नोटा के हिस्से में जो वोट गया वो भाजपा का था। भाजपा का वोटर अपने ही पार्टी के हालिया कुछ फैसले से नाराज था जिसमें एससी एसटी एक्ट पर सरकार का अध्यादेश प्रमुख था। इन तीन राज्यों से 68 सांसद चुने जाते हैं। विधानसभा में राजस्थान और मध्यप्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के बीच जीत का अंतर एक प्रतिशत से भी कम था। जबकि नोटा पर वोट देने वाले डेढ़ प्रतिशत से दो प्रतिशत लोग थे। लोकतंत्र में एक एक वोट की कीमत का दर्द क्या होता है रातो रात तीन राज्यों में सत्ता गंवा कर भाजपा यह एहसास कर ही रही थी कि तीनो राज्यों में सत्ता हासिल करके भी उसका कमान सौपने के किसी भूल की सजा 2019 में मिलने का भय कांग्रेस आलाकमान को डराने लगा।
URL : Kamalnath versus sindhiya in MP ,gehlot versus pilot in rajsthan
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