30 सितंबर 2010 के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद राम जन्मभूमि बाबरी ढांचा विवाद मामले में सुप्रीम कोर्ट एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाया। पिछले साल जब भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा ने आठ साल से सुप्रीम कोर्ट में धूल फांक रहे राम जन्मभूमि विवाद मामले की फाइल को छह महीने के अंदर निपटाने का फैसला किया, तो कांग्रेस सरकार में कानून मंत्री रहे पार्टी के कद्दावर नेता कपिल सिब्बल वकील बनकर सुप्रीम कोर्ट में पेश हुए से लंबित पड़े मामले को 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले सुनवाई न करने की मांग की। सिब्बल की दलील चल गई। राम मंदिर विवाद मामला तारीख का बस इंतजार कर रही है। लेकिन मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार के सुप्रीम दाव ने लेटलतिफी के कांग्रेसी चाल पर पानी फेर दिया। उसे न निगलते बन रहा न उगलते बन रहा।
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में सिब्बल की दलील से साफ हो गया कि कांग्रेस पार्टी राम जन्म भूमि मामले में लेटलतीफी चाहती है। पूरे मामले को लटकाना चाहती है। जब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में सिब्बल की नहीं चली तो भारत के इतिहास में पहली बार जजों का प्रेस कॉन्फ्रेंस हुआ। सवाल उठाया गया आखिर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बेंच तय करने में मनमानी क्यों करते है। उन 4 जजो कि दलील थी की महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई खुद क्यों करते है मुख्य न्यायाधीश।
उस पीसी के बाद सुप्रीम कोर्ट पहली बार राजनीति का अड्डा बन गया। राम जन्मभूमि मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ना करें पूरी साजिश इसके लिए रची गई। उद्देश, जस्टिस दीपक मिश्रा की विश्वसनीयता खत्म करने का था परिणाम यह हुआ इस मामले को जल्दी सुनकर खत्म करने की दीपक मिश्रा ने अपने फैसले को टाल दिया। जस्टिस मिश्रा मामले की सुनवाई नहीं कर पाए और रिटायर्ड हो गए
मामला उस समय प्रेस कॉन्फ्रेंस की अगुवाई करने वाले जस्टिस को गई अब भारत के मुख्य न्यायाधीश हैं ।बेंच तय करने का अधिकार अब उनके पास है ।राम जन्मभूमि में बेंच तय करने में ही महीनों लग गए जब बेंच तय हुई तो फिर एक जज की विश्वसनीयता पर सवाल किया गया फिर तारीख लगी जब ,तारीख आई तो 5 जजों की पीठ में से एक जज छुट्टी पर चले गए। फिर मामले की सुनवाई अनिश्चितकाल के लिए टल गई।
अब लोकसभा चुनाव से पहले राम मंदिर पर फैसला आना लगभग असंभव है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में जब पांच जजों की बेंच होती है तो सुनवाई में अक्सर तारीख लगना लाजमी होता है क्योंकि पांच जजों में से यदि एक भी छुट्टी पर होगा तो सुनवाई की लंबी तारीख लगेगी । सुप्रीम कोर्ट में फाइव डे वीक होता है और छुट्टियों की तादाद भी ज्यादा होती है ।ऐसे लोकसभा चुनाव से पहले राम मंदिर पर फैसला आना संभव नहीं दिखता सरकार के लिए यह परेशानी का सबब है जनता में संदेश यह जा रहा है कि सरकार ने गंभीरता से राम मंदिर के लिए प्रयास ही नहीं किया।
इस स्थिति में जब आम जनता में राम मंदिर को लेकर आक्रोश बढ़ने लगा। वह आक्रोष सरकार के खिलाफ भी था और सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ भी। सरकार के खिलाफ इसलिए क्योंकि सरकार ने वादे किए थे राम मंदिर बनाने का। सुप्रीम कोर्ट पर इसलिए क्योंकि लगातार इस मामले की सुनवाई चल रही है। और तारीख लग रही है। राम मंदिर पर फैसला आना और चुनाव से पहले मंदिर बनने की तैयारी हो ना कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब बन सकता था इसलिए कांग्रेस का चुनावी एजेंडा इस मामले की लेटलतीफी हो सकता था ताकि सरकार किसी भी तरीके से इसका क्रेडिट न ले ले।
आम आदमी की धारणा है कि जो सुप्रीम कोर्ट आतंकियों की फांसी पर सुनवाई के लिए रात भर जगता हो उस सुप्रीम कोर्ट के पास आखिर राम जन्म भूमि को लेकर दिलचस्पी क्यों नहीं है। सवाल इस लिए भी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा था इस मामले की सुनवाई हमारे लिए प्राथमिकता में नहीं आता।
चुकी राम जन्मभूमि आस्था का मसला है और कोई भी पार्टी मंदिर निर्माण के खिलाफ बयान नहीं दे सकती। इस लिहाज से कांग्रेस पार्टी इसमें अड़ंगा इसलिए लगाती है क्योंकि उसे लगता है कि राम मंदिर निर्माण का क्रेडिट कहीं भाजपा ना ले ले।
परोक्ष रूप से कांग्रेस की हमेशा दलील ही है कि राम जन्मभूमि का ताला भी कांग्रेस ने खुलवाया ।पूजा की अनुमति ही कांग्रेस ने दिलवाई । ढांचा टूटने में भी नरसिम्हा राव सरकार की कहीं ना कहीं भूमिका थी। तो मंदिर भी कांग्रेसी बनाएगी। लेकिन जो कुछ सामने है उसमें स्पष्ट दिखता है कि कांग्रेस मंदिर निर्माण में लेटलतीफी करती है। अब जब सरकार पर आम आदमी का दबाव है कि मोदी सरकार ने अपने वादे क्यों नहीं पूरी की तो सरकार की यह शरीर कमजोर पड़ जाती है जिसमें वह यह कहती है कि लेटलतीफी सुप्रीम कोर्ट की तारीखों के कारण हो रहा है जनता सीधे परिणाम चाहती है ऐसे में मोदी सरकार ने चुनाव से पहले ही एक मास्टर स्ट्रोक खेला है।
सरकार की दलील है कि जो गैर विवादित जमीन है वह सीधे सरकार को सौंप दिया जाए जिस पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से 1993 से यथास्थिति बरकरार है। जमीन कुल 67 एकड़ है। सरकार उसे राम जन्मभूमि न्यास को सौंपना चाहती है ताकि मंदिर निर्माण का कार्य हो सके। कांग्रेस के लिए परेशानी इस बात को लेकर है सरकार की इस दलील के खिलाफ यदि जाती है तो आम आदमी में कांग्रेस की ही बनेगी मंदिर निर्माण के खिलाफ है और सरकार इस बात को सुप्रीम कोर्ट ने मान लिया तो क्रेडिट भाजपा को चला जाएगा । इस लिहाज से कांग्रेस के माथे पर चिंता की लकीर लगातार बढ़ रही है । कांग्रेस इस बात का जवाब नहीं दे रही दे पा रही कि आखिर भाजपा की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल किया है उसका जवाब कैसे दिया जाए।
तिमिलाई कांग्रेस यह दलील दे रही है कि आखिर सरकार ने इस रिट पिटिशन को दाखिल करने में 16 साल का वक्त क्यों लगाया। मोदी सरकार सिर्फ मंदिर बनाने की बात करती है तारीख नहीं बताती। लेकिन सवाल अहम यह की 16 सालों में 10 साल कांग्रेस का शासन था तो फिर कांग्रेस ने उस पर उचित कार्यवाही क्यों नहीं की। दरअसल कांग्रेस जानती है कि देश का मिजाज अब बदल गया है जिन सांप्रदायिक शक्तियों से लड़ने के नाम पर वो राजनीतिक दलों को एकजुट करने की बात करती थी वो दलील अब बेमानी है। इसीलिए कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में अपने चुनाव प्रभारी गुलाम नबी आजाद को हटाकर उन्हें हरियाणा भेज दिया तो राज्य की अध्यक्ष राज बब्बर पर भी तलवारें लटकी है संदेश साफ है कि कांग्रेस यह समझ रही है कि तुष्टीकरण की उसकी राजनीति की धार कुंद हो चुकी है। देश का मिजाज बदल चुका है ऐसे में राम मंदिर मुद्दे पर खुलकर सामने आने से कांग्रेस बचना चाहती है सिब्बल वाली गलती दोहराना नहीं चाहती लेकिन मोदी सरकार आसानी से क्रेडिट ले जाए, कांग्रेस यह आसानी से होने नहीं देना चाहती।
URl : Congress facing trabal after government master stroke in SC on ram mandir
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