काशी अर्थात वाराणसी एक नदी का उत्तरमुखी गंगा तीर्थ है। वरूणा और अस्सी नदियां इसे अपनी सीमाओं में बद्ध करते हुए गंगा के तीर्थ केन्द्र में पंचनद गंगा को स्थापित करती है।
कुण्ड, पुष्कर, वापी, कूप, कढ़हा और मत्स्योदरी झील जैसी छोटी जल संस्थाएं इसे तीर्थ, पूर्णतीर्थ और परमतीर्थ बनाती हैं। काशी का मरना मोक्ष है, जीना चऩा-चबैना पर निर्भर है।
हर छोटा बड़ा आदमी काशी में पांव रखते ही ऋषितुल्य हो जाता है। यहां की आंखें पढ़ने के लिए खुलती है, जिह्वा और होंठ मंत्र बोलते हैं। वह आसमान में चलता है और ऋतुओं की हवा में नहाता है, मंदिरों के शिखर में प्रणाम रोपता है।
पूरे शहर में कहीं सौ दो सौ मीटर सीधी सड़क नहीं,कोई विशाल पार्क नहीं, बहुत सुन्दर सभाकक्ष नहीं पर यहां जो आता है जाने का नाम नहीं लेता। यहां आना चाहे, चाहे न चाहे, आने पर जाना नहीं चाहता।
स्वामी राघवानंद दक्षिण से चलकर आये और पंचगंगा घाट पर अपनी भक्ति साधना का परचम लहरा गये। उन्हीं के शिष्य स्वामी रामानंद अल्पवय में ही प्रयाग से वाराणसी आकर उसी पंचगंगा पर निर्गुण सगुण और सामाजिक समरसता की त्रिवेणी प्रवाहित कर गये। स्वामी रामानंद के शिष्य कबीर और भक्त रैदास शहर बनारस के ही हैं।
बुद्ध ने यहीं से धम्मचक्र प्रवर्तन किया। गांधी के हरिजन आंदोलन की प्रथम धारा कबीर मठ से ही निकली। यहीं पर पंडितराज जगन्नाथ ने सभी पंडितों का मान-मर्दन किया और गंगा में उठती एक लहर की तरह तर गये।
भारतेन्दु, प्रेमचन्द्र, प्रसाद और धूमिल तक यहीं के जनकवि हैं। तन्त्र विद्या के आचार्य पं. गोपीनाथ कविराज की साधनाभूमि काशी है। संगीत के परम पारखी और राग-रागनियों के निष्णात पंडित, ठाकुर जयदेव सिंह का आवास आज भी यहां विद्यमान है। 1857 में स्वतंत्रता की लड़ाई को नई धार देने वाली महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में ही हुआ था।
यह नगर स्वामी तुलसीदास का बसेरा रह चुका है। ऐतिहासिक दस्तावेजों तथा स्वयं कवि के अन्तर्साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि तुलसीदास को काशी बहुत प्रिय थी। काशी में रहते हुए उन्हें पीड़ित भी किया गया। उनकी कालजयी रचना श्रीरामचरितमानस को क्षति भी पहुंचायी गयी। उनकी साधना में विघ्न भी उत्पन्न किया गया। फिर भी रामचरितमानस का अधिकांश यहीं रचा गया। उनकी प्रौढ़तम कृति ‘ विनय पत्रिक़ा’ यहीं सृजित हुई। काशी में वैष्णव कृष्णभक्ति का केन्द्र गोपाल-मंदिर आज भी विनय पत्रिका के रचने का प्रमाण प्रस्तुत करता है।
स्पष्ट है कि उस समय भारत इस्लाम मतावलंबियों द्वारा शासित था। रामकथा को अपने स्वातंय अभियान का मेरूदण्ड घोषित करते हुए तुलसीदास बनाटन करते राम को प्रतिज्ञाबद्ध करवा लेते हैं। उनकी उस प्रतिज्ञाबद्धता में बानर रीछ, भालु, जटायु सभी सहायक बनाते हैं।
श्रीराम जी कह उठते हैं, ‘निसिचन हीन करहुं मही भुज उठाय प्रन कीन्हा। वस्तुतः राम का इस प्रकार प्रतिज्ञा करना भारतवासियों की प्रसुप्त चेतना को जाग्रत करना है। हनुमान जी इत्यादि पराक्रमशाली वीर भक्तों को इस अभियान से संलग्न करना देश की स्वाधीनता को वाणी देना है। गोस्वामी जी का दृढ़मत था कि जब तक देश के नागरिक शारीरिक और दिमागी दोनों रूपों से मजबूत नहीं होंगे तब तक स्वतन्त्रता की प्राप्ति दिवास्वप्न ही रहेगी।