विपुल रेगे। फिल्म निर्देशक शुजीत सिरकार ने बहुत कम फ़िल्में बनाई हैं। उन कम फिल्मों में कुछ ऐसी हैं, जो लंबे समय तक याद रखी जाने वाली है। बॉक्स ऑफिस और दर्शक ये तय करेंगे कि उनके कॅरियर की सबसे उम्दा फिल्म ‘सरदार उधम’ है या नहीं। इस फिल्म के प्रदर्शित होने की सिचुएशन कितनी सुंदर है। सबसे वफ़ादार कही जाने वाली सिख कौम के कुछ बाशिंदे सड़क पर एक आदमी को काट देते हैं और इस अच्छे धर्म का नाम खराब करते हैं। ऐसे विषाक्त वातावरण में ‘सरदार उधम’ का प्रदर्शित होना एक दीप प्रज्ज्वलित होने के समान आनंद देता है। वे भटके हुए लोग यदि ये फिल्म देखे तो उन्हें मालूम होगा कि वह भी एक सिख था, जो भारत के लिए जनरल डायर के सीने में लोहा ठोंकने का साहस रखता था।
शुजीत सिरकार का सिनेमा आम सिनेमाई निर्देशक की तरह नहीं है। उनका सिनेमा स्पष्ट रुप से अपनी बात नहीं कहता। वे पटकथा को सिलसिलेवार ढंग से भी दर्शक के सामने नहीं रखते। उनकी फिल्म में फ्लैशबैक कहीं से भी शुरु हो सकता है। लेकिन फिर भी उनका निर्देशन सम्मोहन पैदा करता है। उनके कैमरों के एंगल कभी-कभी किसी बिल्डिंग के मुहाने से फिल्म में झांकते प्रतीत होते हैं।
सरदार उधम को उन्होंने अपनी विशिष्ट शैली में प्रस्तुत किया है। जब हम उनके कैमरा लेंसेस से उधम को देखते हैं तो ये एक सीधा गलियारा होता है। ये गलियारा हमें इतिहास के उस दौर में ले जाकर खड़ा करता है, जब दुनिया प्रथम विश्व युद्ध का आघात झेलकर द्वितीय विश्व युद्ध की आहट सुन रही थी। एडोल्फ हिटलर का उदय हो रहा था। भारत ब्रिटिश राज तले कुचला जा रहा था।
मैंने पहले कई बार लिखा है कि किसी विशिष्ट कालखंड की फिल्म बनाने में इतिहास संबंधी कोई त्रुटि परदे पर नहीं झलकनी चाहिए। सरदार उधम में आप पाएंगे कि निर्देशक ने बारीकी के साथ काम किया है। दृश्यों में दिखाई देने वाले कलाकारों को उस कालखंड का दिखाने में जितना श्रम किया गया है, उतनी ही मेहनत बैकग्राउंड के दृश्यों को दिखाने में की गई है। जनरल डायर के वध का दृश्य फिल्म का सबसे अनुपम दृश्य बनकर उभरता है। वह दृश्य दर्शक को उत्तेजित करता है।
इस दृश्य में रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर एक आम सभा में कहता है ‘भारत पर राज करना न केवल हमारा अधिकार, बल्कि हमारा कर्त्तव्य था, हम न करते तो भारतीय गुलामी में चले जाते।’ इस दृश्य में जो क्रोध सरदार उधम सिंह के चेहरे पर दिखाई देता है, वही क्रोध हम दर्शक मन में महसूस करते हैं। स्कॉटलैंड यार्ड द्वारा उधम को दिए गए यातनाओं के दृश्य अत्यंत वेदनाकारी हैं। निर्देशक हमें दिखाना चाहते थे कि स्वतंत्रता के लिए हमारे लोगों ने कैसी-कैसी यातनाएं सही हैं।
विकी कौशल असीम संभावनाओं वाले अभिनेता बनकर उभरे हैं। उधम के रुप में उन्हें देखना सुखदकारी रहा। उधम सिंह के आक्रोश को उन्होंने अपनी ‘पग’ में सजाया है। वे एक धुरंधर कलाकार हैं। मेरे विचार में निर्देशक ने मुख्य चरित्र के लिए विकी का उपयुक्त चुनाव किया है। फिल्म के कैमरा वर्क का उल्लेख न किया तो उस विलक्षण सिनेमेटोग्राफर के साथ अन्याय होगा।
अविक मुखोपाध्याय की सिनेमेटोग्राफी फिल्म को न केवल भव्यता देती है ,बल्कि दर्शक को ब्रिटिश कालखंड में होने का बखूबी अहसास करवाती है। जालियांवाला बाग़ हत्याकांड का दृश्य अत्यंत प्रभावी बना है तो उसमे सिनेमेटोग्राफी की बड़ी भूमिका है। सरदार उधम सिंह की प्रतिज्ञा थी कि वह जनरल डायर के सीने में लोहा ठोंकेगा। इसके लिए उन्होंने बीस वर्ष तक प्रतीक्षा की।
फिल्म के कुछ दृश्यों को लेकर आपत्तियां आ रही हैं। विशेष रुप से भगत सिंह के चित्रण और कार्ल मार्क्स के उल्लेख के कारण कुछ लोग निर्देशक पर निशाना साध रहे हैं। इस मामले में सेंसर बोर्ड पर भी निशाना साधना चाहिए और उत्तर मांगना चाहिए। सरदार उधम सिंह के बलिदान को विवादों से दूर ही रखना चाहिए।
उस महान क्रांतिकारी की कथा सेल्युलाइड पर उतरी है तो ये दर्शकों का सौभाग्य है। इसकी एक बात और अच्छी है कि ये ‘गांधीवाद’ से मुक्त फिल्म है। ये केवल और केवल उधम की ही बात करती है। ये एक ईमानदार कोशिश है, जिसे सराहा जाना चाहिए। ये मसाला फिल्मों की तरह देशभक्ति को ‘एरियल व्यू’ से दिखाकर लाउडनेस नहीं फैलाती बल्कि देशभक्ति को सांस भरकर जीती है।