विपुल रेगे। दुनियाभर में ऐसे प्रकरण देखने में आए हैं, जिनमे महिला एथलीट्स को लिंग परीक्षण के बाद इस खेल के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया था। पुरुष हार्मोन टेस्टेस्टोरॉन कई बार महिला एथलीटों में औसत से अधिक मात्रा में पाया जाता है। इस तर्क के आधार पर कई महिला खिलाड़ियों को अपने कॅरियर को ही विदा कह देना पड़ा और अपमान झेलना पड़ा सो अलग।
हालाँकि इस तरह के मामलों में कई बार खिलाड़ियों की भी गलती पाई गई है। तापसी पन्नू की फिल्म ‘रश्मि रॉकेट’ इसी विषय पर आधारित फिल्म है। मैं इस फिल्म को देखते हुए यही सोचता रहा कि ऐसे विषयों पर फिल्मों की अपेक्षा डाक्यूमेंट्री या डाक्यू-ड्रामा अधिक प्रभावी होता है। ऐसे विरल विषयों पर बनी फिल्मों को दर्शक बहुत कम मिलते हैं। जब ऐसे विषय बॉलीवुड को मिलते हैं तो वे अपने अंदाज़ में इस पर फ़िल्में बनाते हैं।
ऐसे विषयों पर बनी बॉलीवुड फिल्मों पर नारी आंदोलन का अति प्रभाव भी देखने को मिल जाता है, जब फिल्म में नायिका मुख्य किरदार में हो। भारत में ऐसी तीन महिला खिलाड़ी रही हैं, जिनके लिंग परीक्षण के बाद उन्हें गलत पाया गया। इस विषय को समझने की आवश्यकता है। ये लिंग परीक्षण इसलिए नहीं किया जाता कि लड़की पर लड़का होने का संदेह हो।
ये परीक्षण हार्मोन टेस्टेस्टोरॉन का होता है, जो कई बार महिलाओं में औसत से अधिक हो जाता है। इस टेस्टेस्टोरॉन के बढ़ जाने से महिला खिलाड़ी फिटनेस में पुरुष खिलाड़ी जैसी हो जाती है। वह अधिक देर तक चपलता के साथ खेल सकती है। और खेल के नियमों में इसे अनैतिक, अवैध माना गया है। ये दो तरह से होता है।
एक तो किसी महिला में प्राकृतिक रुप से पुरुष हार्मोन टेस्टेस्टोरॉन बढ़ जाता है और दूसरा प्रदर्शन बेहतर करने के लिए अवैध रुप से ऐसे दवाओं का सेवन किया जाता है, जिनसे मैदान में गतिशीलता और जागरुकता तेज़ी के साथ बढ़ जाती है। तापसी पन्नू की फिल्म में ये वाला एंगल नहीं दिखाया गया है। भारत में एक महिला एथलीट ने लिंग परीक्षण में फेल होने के बाद बताया था कि उसका कोच उसे किसी प्रकार के इंजेक्शन दिया करता था।
उन इंजेक्शनों से महिला का टेस्टेस्टोरॉन लेवल बढ़ा और वह लिंग परीक्षण में दिखाई दे गया था। रश्मि रॉकेट की कथा एक ऐसी ही लड़की की है, जो बहुत तेज़ भाग सकती है। कई प्रतियोगिताओं में अपनी अन्य प्रतियोगियों को चमत्कारिक ढंग से पराजित करने के बाद उसका लिंग परीक्षण आवश्यक हो जाता है क्योंकि एथलीट के किसी अवैध दवा के प्रयोग की आशंका भी रहती है। हालांकि रश्मि के शरीर में प्राकृतिक रुप से ही ये बदलाव थे।
नियमानुसार उसे अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। इस पर एक वकील उसे न्यायालय में लंबी बहस के बाद जीत दिलाता है और वह पुनः ट्रेक पर लौटती है। जब बॉलीवुड वाले महिला प्रधान फिल्म बनाते हैं तो नियमानुसार नायिका की माँ दबंग होती है और पिता दब्बू, नियमानुसार उसको पुरुष द्वारा प्रताड़ित किया ही जाएगा। वह हर फ्रेम में पुरुष चरित्र को या तो दुर्बल या दुष्ट बताएंगे ही बताएंगे।
ऐसा किये बिना उनकी फिल्म पूरी नहीं होती। जब आप एक खेल फिल्म बना रहे हैं तो खेल की बारीकियों के साथ उसे प्रस्तुत करना चाहिए। जैसा कि मैंने उपर लिखा कि ऐसे विषयों पर डाक्यूमेंट्री प्रभावी होती है, फिल्म नहीं। कुल मिलाकर ये एक निस्तेज फिल्म है। तापसी पन्नू ने अपनी किरदार के शरीर में दौड़ रहा टेस्टेस्टोरॉन जैसे अपने मुखमंडल पर धारण कर लिया है।
सख्त दिखने के लिए उन्होंने जिस ढंग का मेकओवर किया है, वह परदे पर अच्छा नहीं लगता। तापसी पन्नू ने लगातार ऐसे किरदार किये हैं, जिससे उनकी छवि ऐसे विषयों के लिए उपयुक्त लगने लगी है। प्रेमपूर्ण चरित्र के लिए अब वे फिट नहीं लगतीं। बॉलीवुड पहले से ही संकट में है और ऐसी बेजान फ़िल्में उसका कष्ट और बढ़ा रही है। बॉलीवुड के तरकश से विगत दो वर्ष में एक भी ऐसा तीर नहीं निकला, जो लक्ष्य को भेद सका हो। रश्मि रॉकेट तो उड़ान ही नहीं भर पाई।