विपुल रेगे। सूरज बड़जात्या की ‘ऊंचाई’ एक अच्छी फिल्म होते हुए भी सीमित प्रभाव ही डाल पाई है। अच्छी कहानी, सुंदर पटकथा, शानदार सिनेमेटोग्राफी और सरस निर्देशन के बल पर ‘ऊंचाई’ ने फिल्म समीक्षकों की बहुत प्रशंसा पाई है लेकिन ये प्रशंसाएं बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को दौड़ा सकेगी, ये एक बड़ा सवाल है। जो फिल्म केवल सीख देती हो लेकिन मनोरंजन का कंटेंट न के बराबर हो, तो उसे बॉक्स ऑफिस पर बचाना मुश्किल काम होता है। आखिरकार दर्शक मनोरंजन के लिए ही तो फिल्म की टिकट कटाता है।
सूरज बड़जात्या ने अपनी लाइन बदल दी है। पारिवारिक मनोरंजन सूरज की फिल्मों की रीढ़ हुआ करता है किन्तु इस बार ये रीढ़ दिखाई नहीं दी। पारिवारिक मनोरंजन की सुरक्षित लाइन को छोड़ बड़जात्या ने एक ऑफ बीट कथा को चुना। वे इस कथा का चयन करने से पूर्व जानते थे कि इस पर फिल्म बनाना बड़ा जोखिम है। इस साल राजश्री प्रोडक्शंस के 75 वर्ष की यात्रा पूरी हो गई।
इसी मौके को बड़जात्या ने ‘ऊंचाई’ की रिलीज के लिए चुना था। चार दोस्तों में से एक दोस्त बिछुड़ जाता है। दोस्त हमेशा से माउन्ट एवरेस्ट की तलहटी में जाकर उसे निहारना चाहता था। वह एक लड़की की याद में गीत लिखता है। एक रात वह अपने तीन दोस्तों को छोड़ चल देता है। तीनों दोस्त उसकी अंतिम इच्छा को पूरी करने के लिए उसका अस्थि कलश लेकर निकल पड़ते हैं। आयु के हिसाब से ये यात्रा बहुत कठिन है।
इस यात्रा में ये तीनों नया जीवन पाते हैं। ये एक प्रेरित करने वाली कथा है लेकिन रोमांचित नहीं कर पाती। ये उन वृद्धजनों को इंस्पिरेशन देगी, जो फिल्म के पात्रों से स्वयं को रिलेट करते हैं। अमिताभ बच्चन, डैनी, अनुपम खेर और बोमन ईरानी ने स्वाभाविक अभिनय से चौंकाया है। नीना गुप्ता का किरदार काफी बड़ा है। फिल्म के बहुत से दृश्य बहुत प्रेरणा देते हैं। ये एक नेक इरादे से बनाई गई फिल्म है।
सूरज बड़जात्या के दृष्टिकोण से ‘ऊंचाई’ एक अच्छा सिनेमाई प्रोडक्ट है लेकिन दर्शक का दृष्टिकोण भी मायने रखता है। सबसे बड़ी कमी ये है कि फिल्म युवा दर्शक को कनेक्ट नहीं कर पाती। इसका प्रभाव सीमित है और केवल उम्रदराज दर्शकों तक ही है। युवा दर्शकों के लिए फिल्म में कोई आकर्षण नहीं है। फिल्म की लंबाई एक बड़ी समस्या बन गई है।
चार बूढ़े दोस्तों पर दो घंटे पचास मिनट की फिल्म कुछ अधिक लंबी हो जाती है और अंत में आकर कुछ निष्प्रभावी भी हो जाती है। सूरज बड़जात्या को भारत में इसलिए पसंद किया जाता है क्योंकि उनकी फिल्मों में भारत अपनी सुदृढ़ परंपरा के साथ दिखाई देता है। ‘ऊंचाई’ में भारतीय संस्कृति की वह रंग-बिरंगी झांकी गायब है, जिसके लिए सूरज जाने जाते हैं।
दरअसल सूरज ने अपनी चिर-परिचित लाइन छोड़ दी, जिसका नुकसान उन्हें होता हुआ दिख रहा है। युवा दर्शक उनकी फिल्म से गायब है। ‘ऊंचाई’ को बॉक्स ऑफिस पर सुरक्षित रास्ता नहीं मिल रहा है। उसके सामने मार्वल की ‘ब्लैक पैंथर :वाकांडा फॉरएवर’ और दक्षिण की एक थ्रिलर ‘यशोदा’ अड़कर खड़ी है। युवा दर्शक ब्लैक पैंथर देखने में अधिक रुचि दिखा रहा है।
राजश्री के 75 वर्ष पूर्ण होने पर सूरज बड़जात्या ने जो फिल्म पेश की है, वह उम्रदराज़ दर्शकों को बहुत पसंद आएगी लेकिन युवाओं को नहीं। भारतीय संस्कृति का तड़का बहुत कम लगाया गया है, जो कि इसके कलेक्शन में डेंट मार सकता है। मुझे ये समझ नहीं आया कि अपनी फिल्मों में कभी किसी को विलेन न दिखाने वाले सूरज ने फिल्म में युवा कलाकारों को नकारात्मक अंदाज में पेश क्यों किया।
क्या उनके निजी अनुभव फिल्म में दिखाई दिए हैं। कुल मिलाकर सूरज बड़जात्या की ‘ऊंचाई’ एक नेक और प्रेरित करने वाली फिल्म है। यदि ब्लैक पैंथर रिलीज नहीं होती तो शायद कुछ दर्शक और बड़जात्या को मिल जाते। फिल्म की लंबाई भी बहुत अधिक है और अखरती है। जो दर्शक ज़िंदगी की शाम में उत्साह पाना चाहते हैं तो ये फिल्म उनके लिए ही बनाई गई है। विशेष रुप से ये वृद्ध दर्शकों के लिए हैं, उन्हें पसंद भी आएगी।