शंकर शरण । संघ-भाजपा नेताओं के क्रिया-कलाप सचेत हिन्दू में भरोसा पैदा नहीं करते। क्योंकि संघ-भाजपा सूत्रधारों ने हिन्दू-विरोधियों से कभी लोहा नहीं लिया। वे शत्रु के नियमों से, शत्रु विचारों, तरीकों की नकल कर, शत्रु के मैदान में ही खेलते रहे हैं। अपनी जमीन, अपने नियम, आदर्श, आदि ‘व्यवहारिकता’ के नाम पर छोड़ दिए, अथवा बनाये ही नहीं! तब नकल करने वाले असल को कैसे हराएंगे? अधिक से अधिक, वे कांग्रेस को हटाकर खुद कांग्रेस बन जाएंगे। जो अभी तक होता रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने हिन्दू समाज को 1. सचेत (विजिलेंट)बनाने,और 2. संगठित करने के दो लक्ष्य रखे थे। अर्थात्, सचेत हिन्दू एकता। किन्तु व्यवहार में संघ ने केवल दूसरा कार्य सामने रखा। पहला कार्य लगभग छोड़ दिया। बल्कि किसी बात को ठीक से जानने-समझने जैसे कार्य को ‘किताबी’ कह कर व्यर्थ लिया! फलतः कथित संगठन का अर्थ भी भटक कर केवल अपना समर्थक बनाना मात्र रह गया। जबकि चेतना का कार्य सांस्कृतिक, शैक्षिक, सामाजिक कार्य है। यह दलीय कार्य नहीं है।
अतः आज तक हुए परिवर्तनों में कुछ बातें बड़ी नकारात्मक हैं। इसे स्वतंत्रता-पूर्व स्थिति से तुलना करके भी समझ सकते हैं। तब राष्ट्रीय आंदोलन में एक सहज हिन्दू भाव था। दयानन्द, बंकिम, विवेकानन्द, तिलक, श्रीअरविन्द, टैगोर, मालवीय, गाँधी, जैसे अनेकानेक मनीषी और नेता ‘हिन्दू समाज’, ‘हिन्दू चेतना’, ‘हिन्दू परंपरा’ जैसे पदों का सहज उल्लेख करते थे। पर आज कोई नेता या दल नहीं करता।
यह हिन्दू-विरोधी मताग्रहों को आत्मसात कर लेने का प्रमाण है। क्योंकि यहाँ इस्लामी, क्रिश्चियन और वामपंथी मतवादी जो बातें स्वतंत्रता से पहले बोलते थे, वही आज भी बोलते हैं। उन्होंने अपनी टेक नहीं छोड़ी। तब हिन्दू नेताओं द्वारा ही अपने शब्द छोड़ देना गहरी हीनभावना है, जो स्वतंत्रता के बाद बढ़ती गई। संघ-परिवार स्वयं उस का प्रमाण है। प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू हिन्दू भाव को दकियानूसी अंधविश्वास जैसा मानते थे। उन की कांग्रेस को नकार कर ही संघ नेताओं ने अपनी अलग पार्टी बनाई। पहले जनसंघ(1951), फिर भाजपा(1980)। जल्द ही यह दलीय कार्य सांस्कृतिक, सामाजिक कार्य से बहुत ऊपर हो गया। यह मूलतः हिन्दू एकता के ही विरुद्ध हुआ, क्योंकि कांग्रेस हर तरह से हिन्दुओं की ही पार्टी थी। भाजपा उसी तरह एक पार्टी है।
अब उस के विशिष्टता वाली पार्टी, ‘पार्टी विथ ए डिफेरेंस’ के दावे की याद दिलाने पर संघ के बौद्धिक भी कहते हैं कि वैसा सोचना बेकार है। क्योंकि, ‘‘राजनीति की कोठरी ही काली है। जो उस में जाएगा, वही सब करेगा जो और लोग करते हैं।’’ किन्तु इसी में यह भी निहित है कि तब अपनी अलग पार्टी बनाना ही भूल थी। सांस्कृतिक और दलीय काम दो भिन्न निष्ठाएं हैं। एक साथ दोनों की साधना असंभव है।
हिन्दू एकता और अलग पार्टी अंतर्विरोधी स्थिति है। तब वह पार्टी स्वभाविक रूप से तानाशाही चाहेगी, क्योंकि दूसरी पार्टियाँ उसे ‘एकता’ के विरुद्ध लगेंगी। इस तरह, चेतन जागरूकता का कार्य विकृत हो दलवाद में भ्रष्ट हो रहता है। अपनी ही चुनावी तिकड़मों के अंतहीन जाल में फँस जाता है।
इस दुर्दशा का नोटिस संघ के कुछ नेता, कार्यकर्ता भी लेते हैं। पर इसे केवल इस या उस नेता के माथे डाल, केवल नेता बदल कर ठीक करने की आशा रखते हैं। किन्तु इतिहास यह है उन के अच्छे-भले स्वयंसेवक ही वामपंथी हिन्दू-विरोधी विचार और व्यवहार अपना लेते हैं। प्रायः अनजाने। उन्हें भान भी नहीं होता! क्योंकि उन्होंने स्वयं प्रमाणिक अध्ययन, आकलन, जानकारी, आदि को व्यर्थ ‘किताबी’ काम माना था। फलतः वे किताब वालो के हाथों पराजित होते रहे और अनजाने उन की ही बातें, मताग्रह, उपाय, नारे, आदि अपनाते रहे। जैसे हवा खाली जगह भर देती है, उसी तरह प्रचलित विचार असावधान मस्तिष्क में जगह बना लेते हैं। सच्ची जागरूकता विचारों को परख कर, हानिकारक विचारों से लड़कर सही विचारों के लिए डटती है। केवल भावना और भावुकता से यह नहीं हो सकता। उलटे भावुकता उलटी-सीधी बातों को भी सही ठहराने में लग जाती है। जैसे ‘क्या हमारी नीयत पर संदेह है?’। जबकि विचार, नीति, और परिणाम ठोस गणितीय कार्य है, भावनात्मक नहीं। इसे भुलाकर संघ-भाजपा केवल अपनी भावना पर इतराते मिलते हैं। ठोस आकलन से बचते हैं।
फलतः, संघ में दशकों प्रशिक्षित होने के बाद भाजपा नेता बनने वाले महानुभावों के अनुसार हिन्दू हित की कल्पना ही अव्यवहारिक है! परन्तु यह कथन अज्ञान का उदाहरण है। अपनी ही परंपरा, तथा देश-विदेश के इतिहास से कोरा। पहले तो, यहाँ हिन्दू वातावरण में भी क्रिश्चियन या इस्लामी राजनीति बनाने के विजातीय काम निरंतर चलते, बढ़ते रहे। तब हिन्दुओं से भरे देश में ही, हिन्दू हित राजनीति बनाने से अधिक स्वभाविक काम नहीं हो सकता। दूसरे, उस कथन के अनुसार दयानन्द, विवेकानन्द, श्रीअरविन्द जैसे मनीषियों को अव्यवहारिक मानना होगा। जबकि ठीक व्यवहार में उन मनीषियों ने समाज पर जबर्दस्त प्रभाव डाला। उन की तुलना दूर से भी किसी संघ-भाजपा नेता से करना असंभव है। उलटे संघ-भाजपा अपने ही विविध बड़े-बड़े नेताओं की कही बातें, लिखी पुस्तकें, लेख, आदि छिपाते हैं जो हाल की हैं। तब कौन व्यवहारिक साबित हुए?
निस्संदेह, संगठन विस्तार के साथ समस्याएं आती हैं। पुराने लोग विदा होते हैं जिन्होंने किसी विशिष्ट लक्ष्य के लिए संगठन बनाया था। अतः जिम्मेदारी सँभालने वाले नए लोग उन्हीं भावों वाले हों, इस के लिए सतत सचेत रहना होता है। क्योंकि नेताओं में पद से चिपकने, शक्ति-सुविधा आदि से लगाव, आदि अनेक प्रवृत्तियाँ घर करने लगती हैं। कईयों के लिए संगठन स्वयं देवता बन जाता है जिस से उन की पहचान जुड़ जाती है।
इस प्रकार, जो लक्ष्य साधने हेतु संगठन बना था, वही अनायास पीछे दबता जाता है। यह सब समस्याएं संगठन बढ़ने के साथ आती ही हैं। किन्तु नोट करें, कि हिन्दू-विरोधी मतवादों के संगठनों के साथ ऐसा नहीं हुआ है। संघ के बनते समय ही बने कई इस्लामी संगठन आज भी अपनी टेक पर टिके रहकर जीतते, बढ़ते गए। यह चेतना, न कि संगठन, को महत्व देने के कारण था। इस्लामी संगठन इस्लामी चेतना के सेवक रहे, वे अपने ‘संगठन’, अपनी पार्टी या नेता की ही सेवा में कभी नहीं लगे।
इसीलिए, संघ परिवार की राजनीति चेतनाहीन होने के कारण दूसरों के अनुकरण में दिशाहीन भटकती रही है। तुलना में यहाँ इस्लामी या क्रिश्चियन राजनीति अपनी लीक पर बनी रही। उन के और संघ-भाजपा के कार्यकर्ता एक ही देश, काल, स्थिति में हैं। संघ में आज भी निचले स्तर पर अनेक अच्छे समाजसेवी हैं। मगर उन का भविष्य क्या है – हिन्दू समाज और धर्म की सेवा, या किसी दलगत राजनीति का प्रचार? यह दो दिशाएं हैं। प्रश्न है: कोई क्या चुनता, और क्या प्रयत्न करता है?
संघ-भाजपा नेताओं के क्रिया-कलाप सचेत हिन्दू में भरोसा पैदा नहीं करते। क्योंकि संघ-भाजपा सूत्रधारों ने हिन्दू-विरोधियों से कभी लोहा नहीं लिया। वे शत्रु के नियमों से, शत्रु विचारों, तरीकों की नकल कर, शत्रु के मैदान में ही खेलते रहे हैं। अपनी जमीन, अपने नियम, आदर्श, आदि ‘व्यवहारिकता’ के नाम पर छोड़ दिए, अथवा बनाये ही नहीं! तब नकल करने वाले असल को कैसे हराएंगे? अधिक से अधिक, वे कांग्रेस को हटाकर खुद कांग्रेस बन जाएंगे। जो अभी तक होता रहा है। यह वे भाजपाई भी मानते हैं जो किसी-न-किसी कारण सत्ता से विलग रहने को विवश हैं।
यह परिदृश्य हिन्दू समाज का सशक्तीकरण नहीं, नेतृत्वहीनता है। फलतः शत्रुओं को ही बलवान होते जाने का सुभीता करना है। हिन्दुओं के शत्रु साफनजर और अनुभवी हैं। इसलिए धैर्यपूर्वक ताक में रहते हैं। मिलते ही चोट करते हैं। वे ‘पहले’ अपनी पार्टी, अपना नेता, पहले ये वो, आदि का हीला-हवाला नहीं करते। उन्हें अपने पर विश्वास है। संघ-भाजपा को नहीं है, जो समस्याओं से नजरें बचाते हैं। मन की बात भी नहीं बोलते। शत्रुओं को खुश करने, उन से वामवाही पाने के लिए झूठी-नकली बातें बोलते हैं। यही संघ-परिवार की राजनीति का कुल जमा रहा। वास्तविक तथ्यों, घटनाओं, आँकड़ों, और दूसरों से तुलना करके प्रमाणिक रूप से यह देख-परख सकते हैं।
विवेकशील हिन्दुओं को दलीयता से ऊपर उठकर धर्म, संस्कृति, शिक्षा, और राजनीति की भी समीक्षा करनी चाहिए। खुली आँखों से सारी स्थिति को प्रमाणिक देखना ही किसी कार्य के हो सकने की पूर्वापेक्षा है। इसी का एक प्रयत्न आगे के पन्नों में है। (लेखक की पुस्तक ‘संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना’, गुरुग्राम, गरुड़ प्रकाशन, 2022 से एक अंश)