हेमंत शर्मा। काहू की बेटी से बेटा न व्याहब,
काहू की जात बिगार न सोहू।
तुलसी सरनाम गुलाम है राम के,
जाको रूचे सो कहै कछु कोऊ।
यह है जाति के खिलाफ तुलसी की ललकार।
रामचरितमानस पर उठे विवाद पर मैंने तुलसी का प्रतिपक्ष रख दिया था। पर भाई Sheetal P Singh ने कुछ सवाल उठाए। सो मुझे फिर कुछ निवेदन करना पड़ रहा है। यह विमर्श है। बहस-मुबाहिसे में अपनी रूचि नहीं है।मित्रवर की आपत्ति है कि तुलसी के मानस में “पूजहि विप्र सकल गुण हीना”जैसी लाईने है जो एक बड़े वर्ग को अपमानित करती हैं।पर मैंने अपने लेख में कहीं इन आपत्तिजनक लाईनों का समर्थन नहीं किया है। किया भी नहीं जा सकता।मेरा मानना है कि आज के सामाजिक परिवेश में ये पंक्तियाँ प्रासंगिक नहीं है।तुलसी के दूसरे ग्रन्थों को देखें तो वे भी इसकेपक्ष में कहीं नहीं दिखते। उन्होंने ब्राह्मणों की जहाँ प्रशंसा की है वहीं उनकी पथ-भ्रष्टता को लेकर निंदा भी की है। उन्होंने धर्मविहीन, विषयों में लीन रहने वाले ब्राह्मणों को सोचनीय बताया ‘सोचिउ विप्र जो वेद विहीना’तजि निज धरम विषय लवलीना’ उन्होंने अपने युग के ब्राह्मणों को दुष्ट भी कहा क्योंकि ब्राह्मण आचरण विहीन, निरक्षर, लोलुप कामी और पराई जाति की स्त्रियों के स्वामी हो गये थे-‘विप्र’ निरक्षर लोलुप कामी। निराचार सठ वृषली स्वामी। ऐसे में आप कैसे उन्हे जातिवादी कह सकते हैं।
मानस में पाठ भेद भी बहुत है। प्रिंटिंग प्रेस आने से पहले हस्तलिखित रामचरितमानस ही थी। हर विद्वान जिसने मानस की प्रतिलिपि बनायी उसमें अपनी सुविधा से कुछ फेरबदल कर दिया। देश में जिन-जिन राजघरानों से मानस की हस्तलिखित पाण्डुलिपि मिली हैं। उसमें थोड़ा बहुत फेरबदल है।प्रमाणिक पाठ को लेकर संशय बना है।बाद में गीता प्रेस ने जो छाप दिया। उसे ही मान्यता मिल गयी।मानस आमजन के पास कैसे पंहुचे यह समस्या तुलसी के सामने भी थी।उन्होने ‘स्वांत: सुखाय’ रामचरित लिख तो दिया। पर ये लोक में कैसे पहुंचे? तुलसी के सामने रामचरितमानस की मार्केटिंग का संकट था। इसलिए उन्होंने मानस के प्रचार-प्रसार के लिए रामलीलाएं शुरू कराई।
अगर तुलसी के युग का यही सत्य था तो तुलसी उससे कैसे आँख मूँद लेते। वह अपने परिवेश से कैसे मुक्त हो सकते है। आज के समाज में भले वह पंक्तियाँ प्रसंगिक नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे मनुस्मृति में लिखी ढेर सारी बातें आज आप्रसंगिक हो गयी है। जमाना बदल गया है।संविधान आ गया है। क़ायदे क़ानून बन गए है।सबको समता और समानता का अधिकार मिला। रूढ़िवादी बुराइयों से हम बहुत हद तक मुक्त हुए हैं। फिर बदले जमाने की कसौटी पर तुलसी को कसना कितना जायज है ।
शीतल की यह बात सही है कि मानस के बहुत से समर्थक ‘रामकथा का व्यापार’ कर रहे हैं। और गैर सवर्ण समाज इसे अपने अपमान के तौर पर ले रहा है। लेकिन मेरा निवेदन साहित्य को साहित्य की तरह पढ़ने का है। अपने पूरे लेख में मैंने तीन बिंदुओं पर फ़ोकस किया था ।मानस की रचना के समय और समाज, धर्म की बजाए साहित्य की तरह पढ़ने की जरूरत और तुलसी साहित्य में ब्राह्मणों के विरुद्ध की गई उक्तियाँ व जाति के विरूद्ध तुलसी दास का अपना दुख।
पहले हम दो प्रगतिशील कवियो के तुलसी पर विचार जान ले। दोनों थोड़ा बायीं ओर झुके हैं। इनमें से एक फ़िराक़ गोरखपुरी उर्दू अदब की मशहूर हस्ती है। उन्होंने तुलसी दास की तारीफ़ करते हुए कहा था कि एक लाख फ़िराक़ भी एक तुलसी का मुक़ाबला नहीं कर सकते। फ़िराक़ साहब का एक इंटरव्यू गीतकार उमाकान्त मालवीय ने लिया। यह फ़िराक़ साहब जैसे तर्शुज़बान इन्सान को देखते हुए चौंकाता है मालवीय जी ने फ़िराक़ से पूछा ‘‘आप इतनी भाषाओं के काव्य से परिचित हैं, किसी एक कवि का नाम अगर लेना हो तो आपकी ज़बान पर किसका नाम आएगा ?” फ़िराक़ साहब का जबाब था— ‘‘तुलसीदास का और किसका?’’ उन्होंने आगे पूछा “आपको लगता है कि आप उनके सहयात्री हैं?’’ किंचित उत्तेजित होकर फ़िराक़ साहब ने कहा “क्या मूर्खतापूर्ण बात करते हो मैं सूर, तुलसी, कबीर और मीरा से करोड़ मील दूर तक ग़ालिब, इकबाल और टैगोर को नहीं मानता, तो मेरी बिसात ही क्या है?’’( कवि परम्परा- प्रभाकर श्रोत्रिय )
फ़िराक ने इसी इंटरव्यू में तुलसी के बारे में कहा “मियाँ, एक लाख फ़िराक़ मिलकर भी तुलसी का मुकाबला नहीं कर सकते। तुलसी की कविता जब कान में पड़ती है तो ऐसा लगता है कि एक-एक शब्द के साथ कान में अमृत टपक रहा हो।’’
सोचिए, फ़िराक़ साहब को तुलसी में ऐसा क्या मिल गया था जो अंग्रेजी, उर्दू या दूसरी ज़बानों के साहित्य में न था? यह अमृत न सिर्फ भक्ति का, न दर्शन का,न भावना का, न ज्ञान का, न कथा का, न शिल्प, न चरित्र, न आदर्शों का था। यह अमृत महाकवि द्वारा जीवन को समग्रता से आत्मसात करने पर निकला था तभी तो एक-एक शब्द से टपकता है। इस मन्थन से निकला विष तुलसी खुद पीते हैं ।तभी ब्राह्मणों द्वारा अपने बारे में ज़हर फैलाने पर वे बेखौफ चुनौतीपूर्ण एलान करते है।
‘धूत कहौ, अवधूत कहौ, राजपूत कहौ, जुलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जात बिगार न सोऊ।।
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचे सो कहै कछु कोऊ।
माँगि के खैबो, मसीत में सोइबो, लैबे को एक न दैबे को दोऊ।।’
फिर भी कुछ तंग दिमाग तुलसी को ‘ब्राह्मणवादी’ करार देते हैं।जबकि तुलसी को ब्राह्मणों से कितना विरोध सहना पड़ा। यह उनके साहित्य में बिखरा पड़ा है। अपने समय की सामाजिक विसंगतियों में तुलसी लगातार हस्तक्षेप करते हैं। घमण्डी परशुराम पर तुलसी लक्ष्मण से कहलाते हैं—
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े।।
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे।
लक्ष्मण परशुराम से कह रहे हैं कि आप मुझे अपना फरसा दिखाकर भयभीत करने की कोशिश लगातार कर रहे हैं। और मैं आपको ब्राह्मण समझ कर आपका सम्मान कर रहा हूँ। लगता है आपका किसी वीर-बलवान से कभी पाला नहीं पड़ा है। आप जैसा ब्राह्मण देवता अपने घर में ही शेर हैं। परशुराम के अंहकार को इससे तगड़ा डोज तुलसी और क्या देते? मानस के परशुराम ‘ब्राह्मणत्व’ के अहंकार के शिखर हैं।
तुलसी पर दूसरे प्रगतिशील कवि है ‘महाप्राण निराला’।उनकी प्रगतिशीलता उनकीवकविता गुलाब में दिखती है। – “अबे सुन बे गुलाब…. खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, डाल पर इतरा रहा कैपिटलिस्ट।” इन प्रगतिशील लाईनो के लेखक तुलसी को भक्तिकाल का सर्वश्रेष्ठ कवि मानता है। तुलसी पर एक लम्बी कविता लिखता है।निराला तुलसी से किस कदर प्रभावित थे इसका किस्सा सुनें ।निराला जी एक बार दारागंज के अपने घर पर कमरा बंद कर तुलसीदास को धाराप्रवाह गालियाँ दे रहे थे। पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने दरवाजा खुलवाया तो निराला हाँफ रहे थे। प्रकृतिस्थ होने के बाद जब निराला से पूछा गया कि क्या हुआ तो वे बोले “क्या कहूँ? जब भी कुछ लिखने बैठता हूँ। तो पाता हूँ कि वह तुलसीदास लिख गए है। इस कवि ने मेरे लिए कुछ छोड़ा ही नहीं है। इसलिए मुझे उन पर ग़ुस्सा आ गया था।” किसी कवि की व्यापकता और लोकप्रियता पर इससे बेहतर टिप्पणी और क्या हो सकती है?
मित्रवर, यदि साहित्य को धर्मग्रंथ की तरह पढ़ा जाएगा तो कट्टरता पैदा होना स्वाभाविक है। कोई भी रचनाकार जब महान साहित्य, उपन्यास या महाकाव्य रचता है तो विभिन्न पात्रों के साथ साधारणीकरण करके वह उन पात्रों के वर्ग चरित्र के हिसाब से संवाद लिखता है। अब जैसे आप किसी उपन्यास की रचना करें जिसमें कोई माफ़िया या दादा हफ़्ता वसूली कर रहा हो तो उसकी भाषा में यह नहीं दिखेगा कि “भाई साहब कृपया हफ़्ता देने की कृपा करें वरना मुझे आपके विरुद्ध शस्त्र प्रयोग करना पड़ेगा।” लाज़मी है कि उसकी भाषा गाली गलौच से भरी हुई होगी और वह गाली गलोच भी युग संदर्भ के हिसाब से होगी। जैसे आज किसी फ़िल्म में आप अधर्मी शठ, दुष्ट, मद्यपी, पापी , कंलकी,पातकी, हतवीर्य जैसे शब्दों का इस्तेमाल वह प्रभाव नहीं पैदा कर पाएगें।
इसलिए युगबोध से अलग साहित्य की समीक्षा अर्थ का अनर्थ करेगी। शोले में आदरणीय गब्बर सिंह का यह कहना हरामजादों, कितने आदमी थे। इसे सुन और देखकर जावेद अख़्तर को गाली बाज़ कहना कहाँ तक उचित होगा? जावेद अख्तर ने तो गब्बर सिंह का खलनायकत्व स्थापित करने के लिए हरामजादो, कुत्तो,कमीनो लिखा।तुलसी ने भी अपने खलनायक समुद्र से ढोल गंवार वाली जो बात कहलायी वह उसके खलनायकत्व को स्थापित करने के लिए थी।
जिस अवधी समाज में तुलसी रचना कर रहे थे वहाँ आज भी जातियों को लेकर एक से एक कहावतें है जिसमें कि किसी जाति विशेष के विरुद्ध हीनता भरी बातें की गई है। यही मुहावरे और मान्यताएं तुलसी के समय में भी थी और विभिन्न वर्ग के पात्रों के द्वारा इनका प्रयोग किया गया है। ऐसे में लेखक को सिर्फ़ विभिन्न कथनों के लिए ज़िम्मेदार ठहराना सही नहीं। संपूर्णता में कोई कृति क्या संदेश देती है यह महत्वपूर्ण।
किसी भी साहित्यकार की विचारधारा को उसके संपूर्ण प्रदेय या रचनाकर्म के आधार पर मूल्यांकित करना चाहिए। उसके साहित्य का अर्थ मक्छिका स्थाने मक्छिका नहीं लगाया जा सकता। मेरे एक वामपंथी मित्र है। विचार से भी वामपंथी और शक्ल सूरत से भी। वे “सब नर करहिं परस्पर प्रीती” का अर्थ लगाते हुए बताते हैं। “शायद वह समलैंगिक समाज रहा होगा जहाँ तुलसी नर से नर की प्रीति की बात कह रहे हैं।” यानी आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ। अब उनकी मेधा यह अर्थ भी लगाने के लिए स्वतंत्र हैं।
हमें पहले साहित्य को पढ़ने का तरीक़ा सीखना पड़ेगा। उसके अर्थ उस काल खण्ड के सामाजिक सन्दर्भ को जाने बिना नहीं लगाए जा सकते।
मसलन मेरी पत्नी ने मुझसे पूछा तुलसी दास पर ताज़ा विवाद क्या है। मैंने कहा वही पुराना काण्ड,“ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।” इसी पर बवाल हो रहा है। सब अपना- अपना अर्थ निकाल रहे है। फ़ौरन उन्होंने कहा इसमें अर्थ क्या निकालना। बात साफ़ है इसमें चार जगह तुम हो और एक जगह हम… इसमें विवाद क्या है? यह उनका अर्थ बोध था।इसी तरह सब अपना अर्थ निकाल रहे है। इसलिए मेरा बार बार कहना है कि साहित्यिक कृति की रचना प्रक्रिया को ध्यान में रखते हुए पाठ को पाठ की तरह पढ़ना चाहिए। कल्पना हमारे ज्ञात वस्तुओं से अज्ञात संभावनाओं का प्रति संसार रचती है। यही प्रति संसार तुलसीदास ने भी रचा है।
इसलिए निवेदन है कि तुलसी को सही परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जाय। मैं इस विमर्श में इससे ज़्यादा जाना नहीं चाहता था। न तो मैं इस विमर्श को इस्लाम बनाम सनातन धर्म करना चाहता था ना ही रामचरितमानस बनाम पवित्र क़ुरान। पर मित्रवर इस विवाद में इस्लाम को ले आए। उन्होंने लिखा इस्लाम शांति का मज़हब है पर उसका अमल क्या है? शीतल बाबू इस्लाम मूल में हिंसा को बढ़ावा देने वाला मज़हब है। देखिए
कुरान में कहा गया है की– या अय्युह्ल्लजी-न आमनू कुति-ब……..।। (कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रुकू २२ आयत १७८)
मतलब- ऐ ईमान वालों! जो लोग मारे जावें, उनमें तुमको (जान के) बदले जान का हुक्म दिया जाता है।आजाद के बदले आजाद और गुलाम के बदले गुलाम, औरत के बदले औरत।
Source: Riyazul-Quran-Complete-Full (M.Yunus Palanpuri D (Hindi Translation) By M. Yunus Palanpuri
तुलसी दास को महज दो लाईनों से नारी विरोधी बताते हुए, रामचरितमानस पर पाबंदी की माँग की जा रही है। पर स्त्री वादियों को यह नहीं समझ पड़ता कि नारी की पराधीनता का सवाल भी सबसे पहले तुलसी ही उठाते हैं-
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥
यानी विधाता ने जगत् में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेम में अत्यंत विकल हो गईं,परंतु कुसमय जानकर (दुःख करने का अवसर न जानकर) उन्होंने धीरज धरा। इस पर भी तुलसी नारी विरोधी है।
दूसरी तरफ़ का फ़तवा है कि “औरत के बदले औरत” पर जुल्म किया जाए। यदि कोई बदमाश किसी की औरत पर जुल्म कर डाले तो उस बदमाश को दण्ड देना उचित है, किन्तु उसकी निर्दोष औरत पर जुल्म ढाना कहाँ तक सही ठहराया जा सकता है?
निसा-उकुम हरसुल्लकुम फअतु……….।। (कुरान मजीद पारा २ सुरा बकर रुकू २८ आयत २२३)
मतलब- तुम्हारी बीबियाँ तुम्हारी खेतियाँ है। अपनी खेती में जिस तरह चाहो (उस तरह) जाओ।
Source: वही Riyazul-Quran-Complete-Full (M.Yunus Palanpuri .Hindi Translation)By M. Yunus Palanpuri
औरत के प्रति यह दृष्टिकोण “औरतें तुम्हारी खेतियाँ है जिस तरह चाहो उधर से जाओ” देखें तो पूरी तरह समझ से परे है। इसे पढ़कर यही लगता है कि इस्लाम में महिलाओं को किस तरह काम पूर्ति का साधन माना गया है।
तो मित्रों, महज नारी विरोध के सवाल पर रामचरित मानस पर पाबंदी लगेगी तो पवित्र क़ुरान पर भी पाबंदी की मॉंग उठेगी। वहाँ ज़्यादा वितण्डा है। पाबन्दी समस्या का समाधान नहीं है। हमें अपनी दृष्टि व्यापक करनी होगी। लोहिया के शब्दों में ‘मोती-कूड़ा–विवेक’ से काम करना होगा। मोती चुनिए, कूड़ा फेंकिए। पाबन्दी समस्या को उलझा देगी। अगर यह सिलसिला शुरू हुआ तो हिन्दू धर्म ख़तरे में नहीं पडेगा।क्यों की यहाँ से कोई एक किताब हटी तो कोई संकट धर्म पर नहीं आएगा। धर्म चलता रहेगा। पर वहॉं से एक किताब खिसकी तो मजहब का क्या होगा ? वहाँ तो एक ही पुस्तक है।