श्वेता पुरोहित। कायेन कुरुते पापं मनसा सम्प्रधार्य तत्।
अनृतं जिह्वया चाह त्रिविधं कर्म पातकम् ॥ २१ ॥
श्री राम कहते हैं कि – ‘मनुष्य अपने शरीर से जो पाप करता है, उसे पहले मनके द्वारा कर्तव्यरूप से निश्चित करता है। फिर जिह्वाकी सहायता से उस अनृत कर्म (पाप) को वाणीद्वारा दूसरों से कहता है, तत्पश्चात् औरों के सहयोग से उसे शरीर द्वारा सम्पन्न करता है। इस तरह एक ही पातक कायिक, वाचिक और मानसिक भेद से तीन प्रकारका होता है ॥ २१ ॥
श्री वाल्मीकि रामायण,अयोध्या काण्ड – १०९ सर्ग
इस श्लोक में ज्योतिष का एक बहुत गहरा सूत्र छुपा हुआ है।
इस श्लोक में श्री राम ने मनोजीव कर्म योग समझाया है। कैसे मनुष्य द्वारा कोई भी किए गए पाप कर्म की शुरुआत उसके मन से होती है और फिर जिव्हा से होते हुए पाप कार्य में परिणित होता है।
मनुष्य अपने शरीर से जो पाप करता है (शरीर को लग्न से देखा जाता है), उसे पहले मन के द्वारा कर्तव्य रूप से निश्चित करता है (मन का कारक चंद्रमा और भाव चतुर्थ होता है) । फिर जिह्वा की सहायता से उस अनृत कर्म (पाप) को वाणीद्वारा दूसरों से कहता है (यहाँ मनुष्य अपने द्वितीय भाव और वाणी के कारक ग्रह बुद्ध को ला रहा है), तत्पश्चात् औरों के सहयोग से उसे शरीर द्वारा सम्पन्न करता है (कर्मों का कारक ग्रह शनि है और दशम भाव)। इस तरह एक ही पाप कायिक, वाचिक और मानसिक भेद से तीन प्रकार का होता है। पाप और षडऋपु को हम षष्ठ (६) भाव से देखते हैं। इसलिए त्रिक भाव के स्वामी और राहु-केतु जैसे क्रूर ग्रह षष्ठ भाव में बहुत उग्र परिणाम देते हैं क्योंकि यह भाव उनके गुण के अनुरूप है। यही षष्ठ भाव मनुष्य के प्रारब्ध कर्मों का भी लेखा जोखा रखा है।
एक ही पाप मन से, वाणी से और काया से तीन प्रकार का हो जाता है।
हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है कि – मनसा कर्मणा वाचा न च काक्षेत पातकम्।
अर्थात्:
मनुष्य को मन से, वचन से, कर्म से एक जैसा होना चाहिए। जो मन में हो, वही जिव्हा पर होना चाहिए तथा वैसा ही कर्म करना चाहिए।
जिस तरह मनुष्य अपने मन, जिव्हा और शरीर को पाप कर्मों में लगाता है उसी तरह सही सोच होने पर इन्हीं साधनों को पुण्य कर्मों में भी लगा सकता है जिससे उसके और उसके कुल के इहलोक और परलोक दोनों सुधार जाएं। पुण्य पंचम भाव को activate करता है और मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाने में सहायक हो सकता है।
इसलिए कलियुग में एक राम नाम सहारा है। तो बोलिए जय सिया राम