श्वेता पुरोहित। जनार्दन का हंस को श्रीकृष्ण दर्शन जनित अपना उल्लास बताना, द्वारका में हंस के संदेश की प्रतिक्रिया का वर्णन करके उसे राजसूयन करने की सलाह देना, हंस का उसे रोषपूर्वक तिरस्कृत करके चले जाने के लिये कहना, फिर सात्यकि का हंस को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाते हुए फटकारना
वैशम्पायनजी कहते हैं – हंस के ऐसा कहने पर धर्मात्मा वीर जनार्दन ने, जो नारायण-स्वरूप श्रीकृष्ण की सदा स्तुति करता था, हँसते हुए कहा – ‘हाँ! मैंने उन जनार्दन का दर्शन किया है।
दर्शन किया है!! जिनके एक हाथ में शङ्ख शोभा पाता है तथा जो दूसरे हाथ में श्रेष्ठ चक्र धारण करते हैं, जिनका बाजूबन्द तपाये हुए जाम्बूनद नामक सुवर्ण से भूषित है तथा जो झलमलाती हुई प्रभासे प्रकाशित रत्न (कौस्तुभमणि) धारण करते हैं। मैंने इन भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन किया है, जिनकी सेवा में पुरातन यादव-वीर तथा मुख्य- मुख्य मुनिवृन्द उपस्थित रहते हैं, मागधों सहित बहुत-से राजा भी इनकी स्तुति करते हैं, मूँगे तथा नूतन पल्लव के समान इनका अरुण अधर मन्द मुसकान की आभा से प्रकाशित होता रहता है।
प्राचीन विद्वान् ऋषि-मुनि देवताओंके साथ बैठकर जिनके स्वरूप का विधिपूर्वक विवेचन करके उसे जाननेके योग्य बताते हैं, जो खिले हुए नीलकमल के समान श्यामकान्ति से सुशोभित हैं तथा जिनका उदर विकसित सुवर्णमय कमल से सुशोभित होता है, उन्हीं पद्मनाभस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण का मैंने दर्शन किया है। मैंने बारम्बार उन अजन्मा जगद्गुरु का दर्शन किया, जो अपनी वाणीद्वारा यादवों को आनन्द प्रदान कर रहे थे और प्राचीन मुनीश्वरोंके साथ प्रवृत्तिमार्ग-सम्बन्धी वेदार्थ के विधान का विधिपूर्वक निरूपण करते थे।
मैंने समस्त लोकों के एकमात्र हितैषी उन जगन्मय श्रीहरि का बारम्बार दर्शन किया है, जो जगत्के हित के लिये इसके समस्त शत्रुओं को पराजित करके इस भूलोक में निवास करते हैं। यादवकुल के प्रधान पुरुष तथा स्तवनीय ईश्वररूप उन श्रीकृष्ण का मैंने अनेक बार दर्शन किया है, जो विहारकाल में यादवेश्वरों के साथ नाना प्रकार की क्रीडाएँ करते हैं तथा स्वयं तो क्रीडाओं में रत रहते ही हैं, सामर्थ्यशाली यादव शिरोमणियों को भी उनमें प्रवृत्त करते रहते हैं’
‘मैंने पुनः उन कमलनयन श्रीहरि का दर्शन किया,
जो पत्नीरूप में प्राप्त हुई भीष्मनन्दिनी रुक्मिणी देवी के साथ द्वारका में निवास करते हैं, नारायणरूप से समुद्र के जल में सोते हैं तथा जो वैभवशाली, भक्तप्रिय, भक्तजनों के आश्रय तथा कल्याणस्वरूप हैं। मैंने अत्यन्त आनन्दमग्न होकर बारम्बार भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन किया है और अपलक नेत्र के द्वारा उनके पुरातन श्रीअङ्गकी शोभा का पान किया है। उस समय मैं अपने विषय में केवल यही सोचता रहा कि ‘मैं धन्य हो गया’।
मैंने देखा कि वे सर्वसमर्थ, सर्वव्यापी, भूतमय तथा सबका पालन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण अपने हाथों में दो कमल लिये हुए थे। मैं उन्हीं माहात्म्यशाली, प्रकाशमान, आदि पुरुष एवं महान् ईश्वर का बारम्बार स्मरण करके आनन्दमग्न हो रहा
हूँ। जिनके वक्षःस्थल पर कौस्तुभमणि प्रकाशित होती है तथा जिनपर सौ-सौ चंवर डुलाये जाते हैं, उन जगदीश्वर श्रीकृष्ण हरिका मैंने दर्शन किया है।
वे यादवेश्वर विष्णु विद्वेषयुक्त चित्त से सदा तुम दोनों का स्मरण करते थे और जानना चाहते थे कि वे दोनों कहाँ हैं? तथा कहाँ और कौन उन्हें जानता है ? उन दोनों मूर्खी को मैं कब देखूँगा? वे किस उपाय से मेरे सामने उपस्थित होंगे ? हाथ में शङ्ख लिये हुए वे देवेश्वर निरन्तर ऐसी ही बात सोच रहे थे । अपने को कर दाता सुनकर वे हँसने लगे और तुम्हारे उपहास में तत्पर हो गये, उस अवस्था में मैंने उन्हें देखा था। वे देवर्षि नारद तथा यतीश्वर दुर्वासा से बात करते थे।
वे मुनीश्वर दुर्वासा को ब्रह्मसूत्र के पदों से युक्त वेदान्तमयी वाणी का शिष्यों को उपदेश देने या पढ़ाने के लिये अनुमति दे रहे थे। उस समय उन भगवान् श्रीहरि का दर्शन करके मैंने बारम्बार इस प्रकार विचार किया । ‘मेरे उन मित्रों ने यह असाध्य कार्य आरम्भ किया है। नृपश्रेष्ठ ! भूमिपाल ! अब से आप दोनों को इस कार्य का आरम्भ नहीं करना चाहिये ।
श्रीकृष्ण से कर लेना है, यह तुम्हारी बात जब वहाँ समाप्त हो गयी, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने तुम्हें कैद करने की बात सोची थी। यह सारा वृत्तान्त सात्यकि ही तुम्हें बतायेंगे।’ जनार्दन की यह बात सुनकर हंसने कुपित होकर कहा :
हंस बोला – अरे ओ ब्राह्मण के बेटे ! यह तुम्हारे मुख से कैसी बात निकल रही है। तीनों लोकों को जीतने की इच्छा करने वाले हम दोनों वीरों के आगे कहने के लिये क्या तुम्हें यही बात मिली है। लीला विधान के ज्ञाता श्रीकृष्ण तुम्हें माया से चक्कर में डाल रहे हैं। उनका दर्शन करके तुम्हारे मन में यह महान् भ्रम ही उत्पन्न हो गया है ।
जो शङ्ख, चक्र, गदा, शार्ङ्ग धनुष और वनमाला से विभूषित हैं, सब ओर फैले हुए यश को धारण करते हैं। सूतों और मागधों द्वारा की गयी स्तुतिमात्र से जिनके बाहुबल का कुछ पता चलता है। जो अत्यन्त अद्भुत यश की राशि हैं और अपने पराक्रम से लोक को अलंकृत करते हैं। जिनके चार भुजाएँ हैं। जो सेनाओंसे घिरे हुए तथा वृष्णि और यादवकुल के सम्मानित पुरुष हैं, उन वृष्णिवीर श्रीकृष्ण का दर्शन करके तुम चक्कर में पड़ गये हो। अहो ! उस चक्रपाणि के दर्शन से आज तुम्हें भ्रम ही हो गया ।
महाराज ! मन्दमते विप्र ! इस समय भी यह दुर्बुद्धि कृष्ण तुम्हें चक्कर में ही डाले हुए है। उसकी जो इन्द्रजालिकता (बाजीगरी) है, वह तुमपर ही प्रभाव डालती है ।
विप्र ! यह तुम्हारा भ्रमजनित चापल्य ही प्रकट हुआ है। अहो ! तुम्हें मेरी और उनकी समानता बतानी चाहिये थी (किंतु तुमने हमारी लघुता व्यक्त की है)। ब्रह्मन् ! द्विजश्रेष्ठ ! एक मैं ही हूँ, जिसने मित्रता के कारण तुम्हारी इस अनुचित बात को सह लिया, अन्यथा कौन ऐसी बात सह सकता है ? मन्दबुद्धि ब्राह्मण ! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो चले जाओ, इस समय सारी पृथ्वी तुम्हारे लिये खुली हुई है। द्विज ! तुम भूतलपर चाहे जहाँ जा सकते हो। मैं उस ग्वालबाल को जीतकर और बहुत-से यादवों का संहार करके अपना यज्ञ करूँगा। हमारा पहला संकल्प यही है कि ‘हम यादवों को जीतेंगे ‘।
ब्राह्मण ! जाओ ! जाओ !! तुम धृष्ट और कटुवादी हो ! सदा मेरे साथ रहकर भी शत्रुपक्ष की स्तुति में लगे रहे हो (इसलिये मैंने तुम्हें त्याग दिया)। सब ओरसे कष्ट प्राप्त होने पर भी मुझे ब्राह्मण का वध नहीं करना चाहिये (इसीलिये तुम्हें जीवित छोड़ रहा हूँ )।
ब्राह्मण से ऐसा कहकर हंस ने फिर सात्यकि से कहा – ‘ओ यादवकुमार! तुम किसलिये यहाँ आये हो ? उस नन्दपुत्र ने तुमसे क्या कहा है ? अथवा उसने मेरे लिये कौन-सा कर प्रदान किया है ?’
सात्यकि बोले-हंस ! शङ्ख, चक्र और गदा धारण
करनेवाले श्रीकृष्ण का यह सत्य वचन सुनो। उनका कहना है कि ‘मैं शार्ङ्ग धनुष से छूटे हुए, शिला पर तेज किये गये और पैनी धारवाले बाणों द्वारा तुम्हारा सारा कर चुका दूँगा। हंस ! अपनी तीखी तलवार से तेरा सिर काट लूँगा’, यह तेरे लिये कर दान का अच्छा संग्रह होगा’। मन्दात्मन् ! नृपाधम! इससे बढ़कर तेरी धृष्टता क्या हो सकती है? नराधम ! जो राजा देवाधिदेव जगन्नाथ से कर लेना चाहता है, उसकी जीभ काट ली जाय, यही उसके करको समाप्त करने का उपाय है। श्रीहरि के शार्ङ्ग धनुषकी टङ्कार और पाञ्चजन्य शङ्ख का हुंकार सुनकर कौन जीवित रहने की आशा कर सकता है। तू अब हमारे सामने खड़ा तो हो।
भगवान् शङ्कर से मिले वरके घमंड में आकर कौन पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण से ऐसी बात कह सकता है, जैसी तूने कही है। बलभद्र आदि हम सभी वीर श्रीकृष्ण के सहायक हैं। प्रथम तो बलभद्रजी हैं, दूसरा मैं सात्यकि हूँ, तीसरा कृतवर्मा है, चौथा बलवान् निशठ है, पाँचवाँ बभ्रु, छठा उत्कल, सातवाँ अस्त्र- शस्त्रविशारद बुद्धिमान् तारण, आठवाँ सारङ्ग, नवाँ विपृथु और दसवें बुद्धिमान् उद्धवजी हैं। ये हम सभी सहायक बल-पराक्रम से सम्पन्न हैं। ये सभी वीर समस्त युद्धों में अपने रक्षक शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले देवाधिदेव श्रीकृष्ण के आगे ही खड़े होते हैं। उनके जो दो विख्यात पुत्र (प्रद्युम्न और साम्ब) हैं, वे दोनों बलमें अश्विनीकुमारों के समान हैं। केवल वे दोनों ही युद्ध में बल के मद से उन्मत्त हुए तुम दोनों भाइयों को मार सकते हैं।
वाणी के देवता जो गिरीश शिव हैं, वे तो वर देकर अलग खड़े हैं। तुम दोनों किस के बलका सहारा लेकर युद्ध में खड़े हुए हो और धनुष-बाण लेकर शत्रुओं के साथ जूझने को तैयार हुए हो ? जिनके हम-जैसे सेवक शत्रुओं के साथ युद्ध कर रहे हों, त्रिलोकी की रक्षा करनेवाले उन जगदीश्वर से कर लेने की इच्छा रखकर कौन जीवित लौट सकता है ? जो तीनों लोकों की रक्षा करते हैं, वे भगवान् श्रीकृष्ण युद्धस्थल में केवल शार्ङ्ग धनुष से छूटे हुए पैने बाण से तुम दोनों को अवश्य मार डालेंगे।
उन जगदीश्वर ने फिर यह पूछा था कि हम लोगों का यह संग्राम कहाँ होगा ? सदा ही पुण्य प्रदान करने वाले पुष्कर में, गोवर्धन पर्वतपर, मथुरा में अथवा प्रयाग में। जहाँ इच्छा हो मुझे अपना बल दिखाने के लिये आ जायँ । शङ्ख और चक्र धारण करनेवाले श्रीकृष्ण जब जगत्के पालन में तत्पर हों, उस समय कौन उनकी आज्ञा लिये बिना स्वयं राजसूय नामक महायज्ञ का अनुष्ठान करना चाहेगा? अथवा तुम्हारे सिवा दूसरा कौन मनुष्य है, जो ऐसी बात कहकर सकुशल एवं सुखपूर्वक घरको जा सकता है ? मूढ ! यदि तू ऐसा चाहता है तो इस भूतलपर उपहास का पात्र बनेगा। ऐसा कहकर वीर सात्यकि हँसते हुए-से भूतल पर खड़े हो गये।
शेष अगले भाग में…