श्वेता पुरोहित। हंस और डिम्भक की सेनाओं का पुष्करतीर्थ में प्रवेश
वैशम्पायनजी कहते हैं – तदनन्तर हंस और डिम्भक भी विशाल धनुष लिये रथ और ध्वजसहित पुष्करतीर्थ में गये। उन दोनों के आगे दो बड़े-बड़े भूत चल रहे थे। वे इतने भयङ्कर थे कि संहार करनेके लिये उद्यत-से जान पड़ते थे। उन्होंने अपने सारे अङ्गों में भस्म रमा रखा था तथा वे जोर-जोर से सिंहनाद करते थे। उनके ललाट के प्रान्त भागों तक फैली हुई त्रिपुण्ड्र की रेखा शोभा पाती थी। वे दोनों रुद्राक्ष की मालाओं से सुशोभित थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो दो दूसरे रुद्र सम्पूर्ण लोकों का संहार करने के लिये आ गये हों। उन दोनोंके पीछे-पीछे सैकड़ों सैनिक चल रहे थे। हंस और डिम्भक की दस अक्षौहिणी सेनाएँ वहाँ आ गयी थीं।
उन दोनों के साथ विचक्र नामक पर्वताकार दानव भी था, जो उन बलशाली बन्धुओं का पहले से ही मित्र था। वज्रधारी इन्द्र भी उसके आगे आकर ठहर नहीं सकते थे। देवताओं और दैत्यों के संग्राम में उस महान् वीर ने देवताओं पर चोट करते हुए वहाँ देवराज इन्द्र को भी पराजित कर दिया था। पूर्वकाल में इस विचक्र ने प्रभावशाली भगवान् विष्णु के साथ युद्ध किया था और द्वारकापुरी में जाकर श्रेष्ठ यादवों को बड़ा कष्ट दिया था। उस समय युद्ध उपस्थित हुआ सुनकर कई लाख परिघधारी दानवों से घिरा हुआ वह दैत्य वृष्णिवंशियों से द्वेष रखने के कारण हंस और डिम्भक की सहायता करने के लिये उद्यत हो गया। उन दिनों राक्षसराज हिडिम्ब विचक्र नामक दैत्य का बड़ा भारी मित्र हो गया था। वह युद्ध में उसके लिये प्राण भी दे सकता था। राक्षसराज हिडिम्ब शिला, शूल और खड्ग धारण करनेवाले दूसरे नरभक्षी राक्षसों के साथ विचक्र की सहायता के लिये वहाँ गया।
अपने हाथों में शिला और परिघ लिये अट्ठासी हजार राक्षस उस हिडिम्ब के अनुगामी होकर वहाँ गये थे। भगवान् श्रीकृष्ण पर चढ़ाई के लिये जाते हुए हंस और डिम्भक की विशाल सेना वहाँ सब ओर से दैत्य समूहों तथा राक्षसों से मिश्रित हो गयी। वह अत्यन्त अद्भुत और महाभयंकर सेना तीनों लोकों को भय देनेवाली थी।
विचक्र नामक दैत्यके साथ ये दोनों हंस और डिम्भक श्रीकृष्णका अनायास वध करने के लिये पुष्करतीर्थ को गये। तदनन्तर यादवों के साथ हंस और डिम्भक के युद्ध का समाचार सुनकर जरासंध ने उन दोनों नरेशों की सहायता नहीं की। उसने सोचा कि ऐसा करनेसे मुझे पाप लगेगा (शास्त्र की आज्ञा है कि ‘परासक्तः परेण न हन्तव्यः’ अर्थात्- दूसरे के साथ युद्ध में फँसे हुए पुरुष को दूसरा न मारे इसलिए हंस की सहायता में जाने से जरासंध को उक्त शास्त्राज्ञा के उल्लङ्घन जनित दोष की प्राप्ति होती, इसीलिये वह नहीं गया।)
युद्ध में जाते हुए हंस और डिम्भक के साथ वे शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करनेवाले नरेशगण भी पुष्कर को गये। वे सब-के-सब सिंहनाद करते हुए परस्पर कहते थे कि ‘राजाओ ! पहले मैं ही श्रीकृष्ण के साथ युद्ध करूँगा’। इस तरह सैकड़ों नरेशों ने श्रीकृष्ण से युद्ध करने की बात कही। इस प्रकार बातचीत करते हुए वे श्रेष्ठ नरेश पुण्यवर्धक पुष्करतीर्थ में जा पहुँचे।
तपस्या में बढ़े-चढ़े ऋषि-मुनि उस तीर्थ का सेवन करते हैं। पुष्कर ही वह प्रथम तीर्थ है, जो तीनों लोकों में अत्यन्त कल्याणकारी बताया गया है। पुष्करतीर्थ और पुण्डरीकाक्ष भगवान् श्रीकृष्ण – ये दो ही ऐसे हैं, जो दर्शन और स्पर्श से सारे पापों का उच्छेद करनेवाले हैं। पुष्कर और पुण्डरीकाक्ष – इन दो का ही श्रेष्ठ मुनि तथा महामनस्वी देववृन्द सेवन करते हैं। वे दो ही सब पापों का नाश करने वाले हैं। वे दोनों जहाँ एक साथ हो गये थे, वहाँ वे सब नरेश उपस्थित हुए। उन सब ने वहाँ विस्तृत यशवाले परम पुरुष भगवान् विष्णु हरि का तथा ब्रह्माजी के द्वारा सेवित पुण्य-स्थान पुष्करतीर्थ का दर्शन साथ ही किया।
आप श्रोता गण भी अपने मन से पुष्करतीर्थ और भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार कीजिए
वहाँ दैत्यों और राक्षसों से भरी हुई जो सेना पहुँची थी, वह सारी की सारी फिर नष्ट हो गयी, इसमें संशय नहीं है। वह सेना अनेकानेक भेरी, पणव, झाँझ और नगाड़ों की ध्वनि से व्याप्त थी, नाना प्रकार के वाद्यों की ध्वनि से मिश्रित राक्षसों के सिंहनाद से गूँज रही थी। उस सेना ने पुष्कर-सरोवर के तटपर पहुँचकर युद्ध के लिये उपस्थित हुए देवेश्वर श्रीकृष्ण का एक दूसरे को दर्शन कराया ।
शेष अगले भाग में…