श्वेता पुरोहित। हंस और डिम्भक के सात्यकि के प्रति रोषपूर्ण वचन तथा सात्यकि का उन्हें वैसा ही उत्तर देकर द्वारका को प्रस्थान तथा भगवान् श्रीकृष्ण और यादव सेना का पुष्करतीर्थ में जाकर हंस और डिम्भक की प्रतीक्षा करना
वैशम्पायन जी कहते हैं – सात्यकि की बात सुन कर हंस और डिम्भक कुपित हो उठे। उनके नेत्र रोष से चञ्चल हो उठे। वे सम्पूर्ण दिशाओं की ओर इस प्रकार देखने लगे, मानो उन्हें जलाकर भस्म कर देना चाहते हैं। उन्होंने समस्त श्रेष्ठ नरेशों की ओर देखकर और एक हाथ से दूसरे हाथ को दबाकर सात्यकि के उस महान् वचन का स्मरण करते हुए इस प्रकार कहा – ‘कहाँ है ? कहाँ है ? वह नन्द का बेटा, और कहाँ है वह बलोन्मत्त बलराम’ सत्यप्रतिज्ञ सात्यकि पर आक्षेप करके ऐसी बातें कहते हुए वे दोनों फिर बोले – ‘अरे ओ यादव के बच्चे! हमारे सामने आकर तू यह क्या बक रहा है? मन्दात्मन् ! तू यहाँ से निकल जा। इस समय दूत बनकर आया है, नहीं तो ऐसा कठोर वचन कहने के कारण तू मार डालने के योग्य था। ‘सचमुच तू निर्लज्ज ही है, जो ऐसी बातें बक रहा है। हम दोनों नरेश इस सम्पूर्ण जगत्पर शासन करने के लिये उद्यत हैं। मनुष्यलोक में कौन ऐसा पुरुष है, जो हमें कर न देकर जीवित रह सके ?’
हम समस्त ग्वालों और बहुसंख्यक यादवों को कैद करके उनका सर्वस्व करके रूप में ग्रहण करेंगे। अतः नराधम ! तू यहाँ से चला जा। तू बहुत अंट-संट बक रहा है, किंतु क्या किया जाय, दूत बनकर आया है, इसलिये अवध्य है। भगवान् शङ्कर ने हम दोनों को वर दिया है और वे ही हमारे अस्त्रों के भी दाता हैं। संग्राम में जाते समय दो महाभूत हम दोनों की रक्षा करते हैं। हम लोग उस ग्वाले को जीतकर अपने पिता से राजसूय यज्ञ करायेंगे। तुमने जिन सहायकों के नाम बताये हैं, वे सब-के-सब युद्ध में अत्यन्त ही कायर हैं। मैं रणभूमि में सेनासहित उन सबको मारकर फिर केशव को पराजित करूँगा’। ‘इस समय धनुष- बाण धारण करने वाली विशाल सेना का संग्रह करना है। वह प्रास, मुसल, कवच आदि से सम्पन्न होगी। उसमें सहस्रों रथ होंगे, जिनमें रथी वीर आरूढ़ रहेंगे। वह सेना गदा और परिघ आदि अस्त्रों से भरी-पूरी होगी, उसके पास बहुत-से ईंधन होंगे तथा वह प्रचुर बल एवं साधन से सम्पन्न होगी। ऐसी भयङ्कर वाहिनी युद्ध के लिये कूँच करे। सेना नायक गण चारों ओर से इसकी देख-रेख करें, तू अवध्य रहकर ही चला जा। तुझे यहाँ मृत्यु से भय नहीं है।
नरेश्वर! कल-परसों तक हम लोगों का पुष्कर में संग्राम होगा। उस समय हम समझ लेंगे कि श्रीकृष्ण और बलराम में कितना बल है। तूने जिन नरेशों के नाम बताये हैं, उनमें भी युद्ध के मुहाने पर कितना बल है, इसका पता लग जायगा’।
सात्यकि बोले – राजा हंस ! मैं तुम दोनों भाइयों का वध करने के लिये कल या परसों भी आऊँगा। यदि मैं दूत न होता तो आज ही तुम दोनों मेरे हाथ से मार डाले जाते तुम दोनों कटु भाषियों को मैं कल या परसों के लिये जीवित नहीं छोड़ता। मनुष्यों को दूत बनने पर भी सदा अनुपम दुःख का सामना करना पड़ता है। मैं भी उस महान् दुःख का भार ढो रहा हूँ। अन्यथा नीच नरेशो ! मैं अपने पराक्रम और बाहुबल का घमंड दिखाता हुआ तुम दोनों भाइयों को मारकर परम संतोष प्राप्त करता।
जो अपने हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा और शाङ्ग धनुष धारण करते हैं, जिनके मस्तकपर मुकुट शोभा पाता है, जो काले-काले घुँघराले केशों से अलङ्कृत हैं, जिनकी भुजाएँ बहुत बड़ी हैं, जो अनुपम शोभा से सम्पन्न हैं, सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति के कारण हैं, सम्पूर्ण विश्व जिनका रूप है, जो परम सुन्दररूप से सुशोभित हैं, योगीजन जिनका ध्यान करते हैं, जो दैत्यों और दानवों का वध करनेवाले पुराणपुरुष हैं, जिनके नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान सुन्दर हैं, जिनकी अङ्गकान्ति श्याम है, जो सिंह के समान बल-विक्रमशाली तथा सृष्टि, पालन और संहार के एकमात्र कर्ता हैं, वे तीनों लोकों के गुरु भगवान् श्रीकृष्ण युद्धस्थल में तीखे बाणों से तुम दोनों भाइयों का घमंड चूर करेंगे। ऐसा कहकर सात्यकि रथपर आरूढ़ हो चले गये।
भगवान् श्रीकृष्ण तथा यादव सेना का पुष्करतीर्थ में जाकर हंस और डिम्भक की प्रतीक्षा करना
शिनिवंश शिरोमणि सात्यकि ने श्रीकृष्णपुरी में प्रवेश करके उनसे हंस और डिम्भक का सारा समाचार ज्यों-का-त्यों कह सुनाया। तदनन्तर निर्मल प्रातःकाल आने पर हाथ में चक्र और गदा धारण करनेवाले केशिहन्ता केशव ने समस्त सेनापतियों से इस प्रकार कहा – ‘रथ, हाथी और घोड़ों से युक्त सारी सेना को युद्ध के लिये तैयार करो । उसके साथ अनेकानेक भेरी, पणव आदि बाजे भी होने चाहिये। प्रास, खड्ग और परिघ आदि अस्त्र-शस्त्रों से वह सेना सम्पन्न होनी चाहिये । ध्वजा, पताका, अलङ्कार तथा अन्य आवश्यक उपकरणों से सारी सेना को सुसज्जित किया जाय’। तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर श्रीकृष्ण के अधीन रहनेवाले उन सेनापतियों ने सब कुछ उसी प्रकार किया। वे पुरुषप्रवर वीर कवच धारण करके रथपर आरूढ़ हो सुदृढ़ धनुष ले सेना के आगे-आगे तीव्रगति से चलने लगे। महाबली सात्यकि भी धनुष हाथ में लेकर अद्भुत शोभा पाने लगे। वे क्रोध में भरकर आगे-आगे चले अन्य श्रेष्ठ एवं शूरवीर यादव भी महान् आयुध लेकर सिंहनाद करते हुए तीव्रगति से चल दिये।
भगवान् श्रीकृष्ण दारुक के द्वारा सुसज्जित किये गये रथ पर आरूढ़ हो, भार सहन करने में समर्थ भयङ्कर शार्ङ्ग धनुष और बाण लेकर प्रस्थित हुए। उस समय उनके हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा, बाण और उत्तम खड्ग शोभा पाते थे। उन्होंने हाथों में गोह-चर्म के बने दस्ताने भी बाँध रखे थे। वे पीताम्बरधारी जनार्दन नूतन जलधर के समान श्याम कान्ति से सुशोभित थे। उनका वक्षःस्थल
कमलपुष्पों की माला से आच्छादित था। वे रथपर बैठकर आनन्दमग्न ब्राह्मणों के मुख से अपनी स्तुति सुनते हुए जा रहे थे। जहाँ-तहाँ सूत, मागध और बन्दीजन उनके गुण गाते रहते थे। उन्होंने सारी सेना को एकत्रित करके उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया।
पाञ्चजन्य शङ्ख को अपने मुख पर रखकर केशव ने सम्पूर्ण प्राणशक्ति लगाकर उसे बड़े जोर से बजाया। उसका महान् शब्द प्रकट करके वे शत्रुओंके भयकी वृद्धि करने लगे। श्रीहरि के बजाने पर उस शङ्खराज पाञ्चजन्य ने महानाद किया। उसका वह शब्द पृथ्वी और आकाश में सब ओर
व्याप्त हो गया। पाञ्चजन्य शङ्ख के उस प्रकार बजाये जाने पर दूसरे-दूसरे वीरों ने भी सहस्रों शङ्ख बजाये। बहुत-सी भेरियाँ और मृदङ्ग भी बज उठे।
वर्षा-ऋतु में जोर-जोर से गर्जना करनेवाले मेघों की भाँति वे मृदङ्ग आदि बाजे अनुपम गम्भीर स्वर में बजने लगे। इस प्रकार समस्त यादव सैनिक पुण्यवर्धक पुष्करतीर्थ में आ पहुँचे।
वे नृपश्रेष्ठ यादव वीर युद्ध के लिये हंस और डिम्भक की प्रतीक्षा करते हुए उस पुष्कर सरोवर के तटपर ठहर गये। सभी यादवों ने वहाँ सेना की छावनी डाल दी। सब लोग अपने-अपने लिये स्वीकृत कुटी और मठ आदि में सुखपूर्वक गये। उस शोभाशाली सरोवर को देखकर भगवान् गोविन्द ने भी उसके जल में आचमन किया और वहाँ रहनेवाले श्रेष्ठ यतियों को नमस्कार करके हंस और डिम्भक के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए उसके तटपर सुखपूर्वक बैठे। वे भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ सब ओर ब्राह्मणोंकी वेद-ध्वनि सुन रहे थे।
शेष अगले भाग में…