१. वेद-पुराण में शब्दार्थ- इस कथा का स्वरूप समझने के लिए वेद पुराण के शब्दार्थ तथा विधि को जानना आवश्यक है। ब्रह्माजी ने सभी वस्तुओं के कर्मों के अनुसार नाम दिये- सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्। वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे॥ (मनु स्मृति, १/२१)
ऋषयस्तपसा वेदानध्यैषन्त दिवानिशम्। अनादिनिधना विद्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा॥
नाना रूपं च भूतानां कर्मणां च प्रवर्तनम्। वेद शब्देभ्य एवादौ निर्मिमीते स ईश्वरः॥
(महाभारत, शान्ति पर्व, २३२/२४-२६)
यहां प्रश्न उठता है कि जब पहले ही से वेद के शब्द थे तो फिर ब्रह्मा ने शब्द क्यों बनाये। भूत (वस्तुओं, जीवों) के रूप, गुण, कर्म (त्रि-सत्य) जानने के लिए वेद ज्ञान आवश्यक है। उसके अनुसार उनके नाम व्यवस्थित किये। यह वाक्-अर्थ प्रतिपत्ति है। इससे शब्द तथा भाषा व्यवस्थित हुए और उससे विश्व वर्णन हो सका-
द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्द ब्रह्म परं च यत्। शाब्दे ब्रह्मणि निष्णातः परंब्रह्माधिगच्छति ॥ (मैत्रायणी उपनिषद्, ६/२२)
इयं या परमेष्ठिनी वाग्देवी ब्रह्म संशिता। (अथर्व, १९/९/३)
वाचीमा विश्वा भुवनानि अर्पिता (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/८/४)
मूल शब्द भौतिक वस्तुओं के थे। पर उनके अर्थों का विस्तार आध्यात्मिक तथा आकाश सृष्टि के लिए करने पर ही विश्व का वर्णन हो सकता है। गुणों में सामञ्जस्य के अनुसार विस्तार हुआ। जैसे अप् का अर्थ जल है। पृथ्वी पर जल के समुद्र जैसा सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड या उसके बाहर भी समुद्र जसे फैले विरल पदार्थ को भी जल नाम दिया। उससे बने दृश्य पिण्डों को भूमि या पृथ्वी नाम दिया। बीच की मिश्र स्थिति को मेघ (जल + वायु मिश्रण) या वराह (जल + स्थल का जीव) कहा। हर प्रकार कण गति को वायु, गति के लिये ऊर्जा स्रोत को अश्व नाम दिया। पृथ्वी पर भौतिक वस्तुओं के भी विज्ञान, व्यवसाय, जलवायु आदि के कारण भिन्न अर्थ हैं। ७ संस्थाओं का उल्लेख है, पर उनके नाम नहीं दिए हैं।
यास्सप्त संस्था या एवैतास्सप्त होत्राः प्राचीर्वषट् कुर्वन्ति ता एव ताः। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद्, १/२१/४)
छन्दांसि वाऽअस्य सप्त धाम प्रियाणि। सप्त योनीरिति चितिरेतदाह । (शतपथ ब्राह्मण, ९/२/३/४४, वाज. यजु, १७/७९)
अध्यात्ममधिभूतमधिदैवं च (तत्त्व समास, ७) अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावो ऽध्यात्म उच्यते। भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः॥३॥ अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषस्याधिदैवतम्। (गीता, अध्याय ८) शरीर के भीतर का विश्व अध्यात्म है, उस संस्था के लिए भौतिक शब्दों के सम्बन्धित अर्थ बने-योग, तन्त्र या आयुर्वेद के लिए। आकाश की सृष्टि के लिए आधिदैविक अर्थ विस्तार हुए। बाकी ५ संस्था आधिभौतिक हैं। सामान्य दृश्य वस्तुओं के नाम , अदृश्य क्रिया गुणों के नाम, विज्ञान परिभाषाओं के अनुसार अर्थ, गणित सूत्रों द्वारा अव्यक्त वर्णन के शब्द, तथा व्यवसाय और प्रचलन सम्बन्धित शब्द (निपातन) क् ५ संस्था कह सकते हैं। जैसे आकाश में अप् से सृष्टि हुयी, उसी प्रकार पृथ्वी पर जहां शब्द ज्ञान हुआ वह द्रविड़ हुआ। वेद का अर्थ श्रुति आदि ५ ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ज्ञान है, अतः इसे श्रुति कहा गया। श्रुति का कर्ण से ग्रहण होता है, अतः अर्थ विस्तार का क्षेत्र कर्णाटक हुआ। इस अर्थ विस्तार को वृद्धि कहा गया है, जो पाणिनि व्याकरण की वृद्धि सन्धि से भिन्न है-
ज्ञान वैराग्य नामानौ कालयोगेन जर्जरौ॥४५॥
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतांगता॥४८॥
(पद्म पुराण, उत्तर खण्ड, श्रीमद् भागवत माहात्म्य, भक्ति-नारद समागम नाम प्रथमोऽध्यायः)
२. पुराण वर्णन-
वेद एक समय ५ ज्ञानेन्द्रियों तथा से प्राप्त ज्ञान है। कुछ ज्ञान २ प्रकार के असत् प्राणों द्वारा अतीन्द्रिय ज्ञान भी है। ये असत् प्राण ऋषि (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१) कहे गये हैं। अन्य परोरजा प्राण है (बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/१४/३)। २ असत् प्राणों को मिला कर ७ प्राण हैं (मुण्डकोपनिषद्, २/१/८) अन्यथा प्रायः ५ प्राण ही कहे जाते हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान, अनेक देश काल के ऋषियों के ज्ञान का समन्वय, तथा सप्त संस्था के समन्वय के कारण वेद ३ प्रकार से अपौरुषेय हैं। काल के साथ परिवर्तन जानने के लिए कुछ काल के बाद पुनः विश्व को देखना पड़ेगा। अतः पुराणों का कई बार संस्करण करना पड़ता है। वेद सूक्तों का संग्रह भी देश काल परिस्थिति के अनुसार २८ व्यासों द्वारा २८ बार हुआ तथा उसे समझने के लिए ब्राह्मण भागों का प्रणयन ऐतरेय, याज्ञवल्क्य, कण्व, तित्तिरि, जैमिनि आदि द्वारा हुआ। पुराणों द्वारा लोक की माप और काल गणना प्रथम व्यास स्वायम्भुव मनु से पूर्व थी, तभी लोक तथा काल का वर्णन सम्भव है, नहीं तो वेद का कोई अर्थ नहीं होगा- ऋच सामानि छन्दांसि पुराण यजुषा सह। उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रिता। (अथर्व, ११/७/२५)
२८ व्यासों के बाद भी नैमिषारण्य की शौनक महाशाला (विश्वविद्यालय) में पुराण संकलन १००० वर्षों तक हुआ जिसे १००० वर्ष का सत्र कहा गया है- नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः। सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत॥ (भागवत पुराण, १/१/४) कलौ सहस्रमब्दानामधुना प्रगतं द्विज। परीक्षितो जन्मकालात् समाप्तिं नीयतां मखः॥ (पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, १९६/७२)
उसके बाद विक्रमादित्य के काल में भी बेताल भट्ट की अध्यक्षता में पुराणों का सम्पादन हुआ। इन स्थानों को शौनक की महाशाला की तरह विशाला कहा गया-उज्जैन, वैशाली, बद्रीविशाल।
एवं द्वापरसन्ध्याया अन्ते सूतेन वर्णितम्। सूर्यचन्द्रान्वयाख्यानं तन्मया कथितम् तव॥१॥
विशालायां पुनर्गत्वा वैतालेन विनिर्मितम्। कथयिष्यति सूतस्तमितिहाससमुच्चयम्॥२॥
तन्मया कथितं सर्वं हृषीकोत्तम पुण्यदम्। पुनर्विक्रमभूपेन भविष्यति समाह्वयः॥३॥
नैमिषारण्यमासाद्य श्रावयिष्यति वै कथाम्। पुनरुक्तानि यान्येव पुराणाष्टादशानि वै।।४॥
(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ४, अध्याय १)
अतः इसमें गुप्त काल तक के राजाओं का वर्णन है। कुछ अतीन्द्रिय वर्णन भी है जैसे भविष्य में होने वाले कल्कि अवतार का। यदि इसे प्रत्यक्ष ज्ञान माना जाय तो अभी तक कोई पुराण नहीं लिखा गया है। कालक्रम के अनुसार पुराणों में ६ प्रकार के वर्णन हैं- (१) अव्यक्त अन्धकार युग-सृष्टि का आरम्भ से मनुष्य सृष्टि तक। इसका अनुमान बाद के अवशेषों से लगाया गया क्योंकि उस समय देव भी नहीं थे (नासदीय सूक्त, ऋक्, १०/१२९, वायु पुराण, अध्याय ६, वराह पुराण, अध्याय ३५ आदि)
(२) प्राचीन सभ्यता-स्वायम्भुव मनु के पूर्व मणिजा, साध्य युग (पुरुष सूक्त, १६, वायु पुराण, अध्याय ३१, ब्रह्माण्ड पुराण, अध्याय २/३/३, आदि)-६२००० से ३१००० ईपू तक। (३) स्वायम्भुव मनु काल (३१,००० ई के जल प्रलय के बाद)-वेद द्वारा ज्ञान का समन्वय या प्रतिष्ठा (मुण्डक उपनिषद्, १/१/१)। वहां से कश्यप (१७५०० ईपू) तक का काल स्पष्ट नहीं है। केवल स्वायम्भुव मनु, प्रियव्रत, उत्तानपाद, ध्रुव का वर्णन है।
(४) कश्यप काल (१७,५०० ई.) से देव-असुरों का वर्णन, पृथु, कार्त्तिकेय चरित्र।
(५) वैवस्वत मनु (१३९०२ ईपू) से वर्णन। इसमें १०,००० ईपू के बाद इक्ष्वाकु काल से क्रमबद्ध वंशावली है।
(६) महाभारत के बाद-शौनक तथा विक्रमादित्य काल में कलि राजाओं का वर्णन।
महाभारत के बाद ज्योतिष का मूल ज्ञान लुप्त हो चुका था। आर्यभट के महा सिद्धान्त (२/१-२) के अनुसार ज्योतिष की २ प्राचीन विधियां प्रचलित रह गयीं-आर्य मत (पितामह स्वायम्भुव मनु का) तथा पराशर मत (वैवस्वत मनु के पिता विवस्वान् परम्परा में पराशर द्वारा मैत्रेय को विष्णु पुराण में उपदेश)। वेद-शाखा में भी इसी प्रकार २ सम्प्रदाय हैं-ब्रह्म, आदित्य। आर्यभटीय (२/९) की भास्कर टीका के अनुसार गणित की १६ शाखाओं में महाभारत के बाद केवल ४ बचीं थी-मस्करी, पूरण, पूतन, मुद्गल। इन्हीं के कुछ सूत्र आर्यभट ने लिखे। अतः नैमिषारण्य तथा विशाला के संकलनकर्ताओं ने आकाश के अधिज्योतिष वर्णन तथा पृथ्वी के आधिभौतिक वर्णन का अन्तर नहीं समझा और दोनों को मिला दिया। वेदार्थ में भी ऐसी ही भूल होती है।
३. देवासुर संग्राम काल-
काल-क्रम में विवाद का कारण है कि सूर्य सिद्धान्त (१४/१) में ९ प्रकार के काल-मानों का उल्लेख है, किन्तु हम अपने को बड़ा दिखाने के लिए बड़े से बड़ा कालमान लिखते हैं जो व्यवहार में सम्भव नहीं है। ऐतिहासिक युग निर्धारण के ५ प्रकार हैं, जैसे पञ्चाङ्ग में ५ प्रकार से दिन निर्धारण होता है। (१) ऐतिहासिक मन्वन्तर-ब्रह्माण्ड की प्रतिमा मनुष्य मस्तिष्क है जिनमें कण संख्या समान है (१०० अरब = खर्व, चूर्ण या कण रूप, शतपथ ब्राह्मण, १२/३/२/५, १०/४/४/२)। अतः ब्रह्माण्ड का अक्ष-भ्रमण काल ३०.६८ कोटि वर्ष का मन्वन्तर काल है। इसमें चन्द्र आकर्षण के कारण मन में परिवर्तन होता है, अतः चन्द्र मन का कारक है (चन्द्रमा मनसो जातः)। चन्द्र आकर्षण के कारण पृथ्वी का अक्ष शङ्कु आकार में २६,००० वर्ष में एक परिक्रमा करता है जिसे ऐतिहासिक मन्वन्तर कहा गया है।
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९/१९, १/ २/९/३६,३७) के अनुसार स्वायम्भुव मनु से कलि आरम्भ (३१०२ ईपू) तक २६,००० वर्ष का मन्वन्तर हुआ जिसमें ७१ युग थे (प्रायः ३६० वर्ष के)। मत्स्य पुराण (२७३/७७-७८) के अनुसार स्वायम्भुव मनु से वैवस्वत मनु तक ४३ युग (प्रायः १६,००० वर्ष) तथा उसके बाद कलि आरम्भ तक २८ युग हुए। उसके बाद व्यास तथा यह युग गणना बन्द हो गयी, अतः अभी भी २८वां युग ही कह रहे हैं।
(२) अयनाब्द युग-इतिहास के दीर्घकालीन परिवर्तन काकारण है, हिमयुग तथा जल प्रलय का चक्र। इसके २ ज्योतिषीय कारण हैं-२६,००० वर्ष का अक्ष भ्रमण या अयन चक्र, तथा इसके विपरीत दिशा में १ लाख वर्ष में मन्दोच्च (पृथ्वी कक्षा का दूर विन्दु) का चक्र। दोनों का संयुक्त चक्र २४,००० वर्ष का है जिसमें २ भाग हैं-१२,००० वर्ष का अवसर्पिणी जिसमें सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि क्रमशः ४८००, ३६००, २४००, १२०० वर्ष के हैं। उसके बाद १२,००० वर्ष के उत्सर्पिणी चक्र में विपरीत क्रम से कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य युग आते हैं। वैवस्वत मनु के समय से यह नियम तथा अवसर्पिणी का आरम्भ हुआ। अतः उससे पूर्व की गणना में स्वायम्भुव मनु या ब्रह्मा का काल आद्य त्रेता में आता है (वायु पुराण, ३१/३ आदि)। उनसे क्रम आरम्भ होने पर उनसे सत्य युग का आरम्भ होता।
(३) दिव्य वर्ष-३६० वर्षों का दिव्य वर्ष ही ऐतिहासिक मन्वन्तर का युग है। १२,००० वर्ष की युग गणना में वैवस्वत मनु से कलि आरम्भ तक ४८०० + ३६०० + २४०० = १०,८०० वर्ष हुए जिसमें ३६० वर्ष के ३० युग हुए किन्तु हम ३० युग ही मानते हैं। इसका कारण है कि वैवस्वत यम के बाद २ युग = ७२० वर्ष तक जल प्रलय हुआ था जिनकी ऐतिहासिक गणना नहीं की जाती है। ब्रह्माण्ड पुराण (४३/७१-७७) में जल प्रलय के कारण जगन्नाथ की इन्द्रनील मणि प्रतिमा डूबने का उल्लेख है। जेन्द-अवेस्ता (छन्दोभ्यस्ता) के अनुसार भी जमशेद (यम) के बाद ९५८४ ईपू में जल प्रलय हुआ था। विवस्वान् के पूर्व १० युग तक असुर प्रभुत्व काल था जो कश्यपसे आरम्भ हुआ। अतः कश्यप काल १३९०२ + ३६०० = १७,५०२ ईपू मानते हैं। उस समय पुनर्वसु नक्षत्र से वर्ष या विषुव-संक्रान्ति का आरम्भ होता था जिसका स्वामी कश्यप पत्नी अदिति को माना गया।
यह शान्ति पाठ में पढ़ते हैं-अदितिर्जातम्, अदितिर्जनित्वम् (ऋक्, १/८९/१०, वाज यजु, २५/२३) = पुराने वर्ष से अदिति जन्म हुआ उससे नया वर्ष आरम्भ हुआ। कश्यप के बाद के १० युगों में चतुर्थ में हिरण्याक्ष-वराह, ५-६ युग में हिरण्यकशिपु-नरसिंह तथा ७वें युग में बलि हुए जिनके काल में वामन, कूर्म अवतार और कार्त्तिकेय हुए।
युगाख्या दश सम्पूर्णा देवापाक्रम्यमूर्धनि । तावन्तमेव कालं वै ब्रह्मा राज्यमभाषत ॥५१॥
दैत्यासुरं ततस्तस्मिन् वर्तमाने शतं समाः॥६२॥ प्रह्लादस्य निदेशे तु येऽसुरानव्यवस्थिताः ॥७०॥
धर्मान्नारायणस्तस्मात्सम्भूतश्चाक्षुषेऽन्तरे॥७१॥
यज्ञं प्रवर्तयामास चैत्ये वैवस्वतेऽन्तरे॥७१॥
प्रादुर्भावे तदाऽन्यस्य ब्रह्मैवासीत् पुरोहितः। चतुर्थ्यां तु युगाख्यायामापन्नेष्वसुरेष्वथ॥७२॥
सम्भूतः स समुद्रान्तर्हिरण्यकशिपोर्वधे द्वितीयो नारसिंहोऽभूद्रुदः सुर पुरःसरः॥७३॥
बलिसंस्थेषु लोकेषु त्रेतायां सप्तमे युगे। दैत्यैस्त्रैलोक्य आक्रान्ते तृतीयो वामनोऽभवत्॥७४॥
नमुचिः शम्बरश्चैव प्रह्लादश्चैव विष्णुना ॥८१॥ दृष्ट्वा संमुमुहुः सर्वे विष्णु तेज विमोहिताः॥८४॥
(वायु पुराण, अध्याय ९८, मत्स्य पुराण, ४७/२३६-२४५ भी)
(४) सप्तर्षि चक्र-यह २७०० दिव्य वर्ष या ३०३० मानुष वर्ष का होता है (ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/२९/१६, २/३/७४/२३१, वायु पुराण, ५७/१७, ९९/४१९)। गणना से दिव्य वर्ष का अर्थ हुआ ३६५.२५ दिन का सौर वर्ष तथा १२ चन्द्र परिक्रमा (१२ x २७.३ = ३२७ दिन) का मानुष वर्ष।
(५) बार्हस्पत्य वर्ष- यह ६० वर्ष का चक्र है। पितामह मत से सौर वर्ष को ही बार्हस्पत्य वर्ष कहते हैं। वैवस्वत या सूर्य सिद्धान्त मत से मध्यम गति से गुरु का १ राशि में भ्रमण काल (३६१.०४८६ दिन) को गुरु वर्ष कहते है। इसके अनुसार ८५ सौर वर्ष में ८६ गुरु वर्ष होंगे। दोनों प्रकार का संयुक्त चक्र ८५ x ६० = ५१०० वर्ष में होगा। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम-जन्म की ग्रह स्थिति ११-२-४४३३ ई.पू. में थी, जब २४वां त्रेता चल रहा था। उस समय विष्णुधर्मोत्तर पुराण (८२/७, ८) के अनुसार सौर तथा पैतामह दोनों मतों से प्रभव वर्ष था। इसी प्रकार मत्स्य अवतार के समय भी दोनों मतों से प्रभव वर्ष था। अर्थात् मत्स्य अवतार राम से ५१०० वर्ष पूर्व ९५३३ ई.पू. में हुआ था। होमर के इलियड के अनुसार भी एटलाण्टिस का अन्तिम भाग ९५६४ ई.पू. में डूबा था।
४. वैवस्वत पूर्व अवतार- (१) वराह-प्रथम विश्वविजयी असुर राजा हिरण्याक्ष चतुर्थ युग (१७५००-३ ३६० = १६४२० से १६०६० ईपू के बीच था। इस समय तेजस्वी नामक इन्द्र देवों के राजा थे। तेजस्वी नाम वै शक्रो हिरण्याक्षो रिपुः स्मृतः। हतो वराह रूपेण हिरण्याख्योऽथ विष्णुना॥ (गरुड़ पुराण, १/८७/३०) जब हिरण्याक्ष ने इन्द्र को पराजित कर प्रायः पूरी पृथ्वी पर अधिकार कर लिया, तब विष्णु ने वराह रूप में हिरण्याक्ष का वध किया। हाथों में गदा और चक्र लिये हुये थे।
निष्प्रयत्ने सुरपतौ धर्षितेषु सुरेषु च। हिरण्याक्ष वधे बुद्धिं चक्रे चक्र गदाधरः॥ (हरिवंश पुराण, ३/३९/१)
आकाश के वराह ५ स्तर के हैं-आदिवराह से १०० अरब ब्रह्माण्डों का समूह, यज्ञ वराह से हमारा ब्रह्माण्ड, श्वेत वराह से सौर मण्डल, भू-वराह से पृथ्वी (इस क्षेत्र के पदार्थ से घनीभूत होकर पृथ्वी बनी, मधु कैटभ माध्यम से। इसी के दांत पर पृथ्वी का धारण दिखाते हैं), एमूष वराह (वायुमण्डल)। ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२०/३४-३६) के अनुसार हिरण्याक्ष रसातल में रहता था जो कि द्वीप गणना में पुष्कर द्वीप (वर्तमान दक्षिण अमेरिका) कहा जाता है। यह ब्रह्मा के पुष्कर (उज्जैन से १ मुहूर्त्त = १२ अंश पश्चिम बुखारा) के ठीक विपरीत दिशा का द्वीप है (विष्णु पुराण, २/४/८५, २/८/२६)। जेन्द अवेस्ता के अनुसार आमेजन नदी के किनारे हिरण्याक्ष की राजधानी थी। वे लोग विष्णु की वराह रूप में पूजा करते थे। यह केतुमाल (भारत से ९० अंश पश्चिम) के क्षेत्र में आता था जहां विष्णु की वराह
रूप में पूजा होती थी- भद्राश्वे भगवान् विष्णुः आस्ते हयशिरा द्विज। वराहः केतुमाले तु भारते कूर्मरूपधृक्॥५०॥
मत्स्यरूपश्च गोविन्दः कुरुश्वास्ते जनार्दनः। विश्वरूपेन सर्वत्र सर्वः सर्वत्रगो हरिः॥५१॥ (विष्णु पुराण, २/२/५०-५१)
अन्य स्थानों पर वर्णन है कि हिरण्याक्ष ने वेदों का अपहरण किया था जिसका वराह या हयग्रीव ने उद्धार किया। शौनक के चरण व्यूह में कृष्ण यजुर्वेद की शाखाओं का विस्तार सभी द्वीपों में लिखा है, केवल पुष्कर द्वीप में नहीं है जहां हिरण्याक्ष का शासन था। वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड में बालि पर जब राम ने बाण चलाया तो उसने कहा था कि सीता को खोजने के लिये सुग्रीव से मित्रता की कोई जरूरत नहीं थी। यदि राम उससे कहते तो वह सीता को जहां भी छिपा कर रखा हो उसे खोज कर लाता जैसे हयग्रीव ने श्वेताश्वतर श्रुति का हिरण्याक्ष से उद्धार किया था।
कण्ठे बद्ध्वा प्रदद्यां ते निहतं रावणं रणे। न्यस्तां सागार्तोये वा पाताले वापि मैथिलीम्॥४९॥
आननेयं तवादेशात् श्वेताश्वमश्वतरीमिव। युक्तं यत् प्राप्नुयाद् राज्यं सुग्रीवः स्वर्गते मयि॥५०॥
(वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड १७/४९-५०)
(२) नरसिंह अवतार-
यह कश्यप के ५वें या छठे युग (१६०६२-१५३४२ई.पू.) में थे। लाङ्गूलोपनिषद् में रामचन्द्र को भी सिंह कहा है उसके बाद यह राजाओं की उपाधि होने लगी। हिरण्य-कशिपु को ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२०/२४-२५) में तलातल (अफ्रीका) का राजा कहा है (इसके पुत्र प्रह्लाद के बारे में)। स्पष्टतः इसका काल और स्थान हिरण्याक्ष से अलग था, पर देवों के विरुद्ध उसी सत्ता दल का होने के कारण इनको भाई कहा है। नरसिंह पुराण के अनुसार नरसिंह ८३ हजार सेना सहित हिरण्यकशिपु की राजधानी में पहुंचे थे। हिरण्यकशिपु के पास १० लाख से अधिक सेना थी पर राजधानी में १० हजार सैनिक ही थे। प्रह्लाद के बदले अन्य पुत्र को राजा बनाना चाहता था, अतः उसकी सहायता से यह सेना धीरे धीरे राजधानी में घुस गयी और एक दिन उन लोगों ने हिरण्यकशिपु का वध कर प्रह्लाद को राजा बना दिया। भारत में नरसिंह को सिंह मुख के साथ मनुष्य दिखाते हैं। इसका उलटा मिस्र में स्फिंक्स का सिंह शरीर और मनुष्य का मुंह दिखाते हैं।
(३) बलि के समय वामन और कूर्म अवतार-
यह कश्यप के ७वें युग (१५३४२-१४९८२ ई.पू.) में हुआ। इस अवतार में वामन का व्यक्तिगत नाम भी विष्णु ही था। इस के पूर्व दैत्यों से पराजित होने पर कूर्म की सलाह से देवों ने सन्धि कर ली और सम्मिलित रूप से समुद्र मन्थन अर्थात् खनिज निष्कासन आरम्भ किया। भारत के कर्क-खण्ड (छत्तीस-गढ़ के कोरबा से झारखण्ड के घाटशिला) के खनिज क्षेत्र में दैत्यों ने खुदाई का काम किया क्योंकि उसमें वे दक्ष थे। इस क्षेत्र का आकार कूर्म जैसा है तथा कठोर ग्रेनाइट चट्टान में खनिज होते हैं जिसे कूर्म-पृष्ठ भूमि कहा गया है। इसके उत्तर मथानी के आकार का पर्वत गंगा नदी तक उत्तर चला गया है जिसके छोर पर वासुकि-नाथ तीर्थ है। वासुकि नाग खनन का समन्वय कर रहे थे।
महिषासुर और वासुकि दोनों पाताल लोक (उत्तर अमेरिका) के थे, पर वासुकि को इन्द्र का मित्र कहा है (ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/२०/३९-४१)। देव विरल धातुओं के शोधन में दक्ष थे अतः वे जिम्बाब्वे की स्वर्ण खान (जाम्बूनद स्वर्ण) तथा मेक्सिको की चान्दी खान (माक्षिकः = चान्दी) में गये। असुर मुख्यतः उत्तर अफ्रीका तथा पश्चिम एशिया से आये थे। उसी क्षेत्र के यवनों ने बाक्कस के समय ६७७७ ई.पू. में भारत पर आक्रमण किया था जिसमें इक्ष्वाकु राजा बाहु मारे गये। १५ वर्ष बाद उनके पुत्र सगर ने यवनों को भगा दिया जो ग्रीस चले गये अतः ग्रीस का नाम इयोनिया (हेरोडोटस के अनुसार) या यूनान हो गया। आज भी अरबी चिकित्सा को यूनानी ही कहते हैं। अतः खनिजों के ग्रीक भाषा में जो नाम हैं, उस क्षेत्र से झारखण्ड आये असुरों की उपाधि भी वही है। कुछ संस्कृत नाम भी हैं। सोना को ग्रीक में औरम कहते हैं। अतः सोने का शोधन करने वाले को ओराम कहते हैं।
सोने के कण बालू या चट्टान की ढेर में छिपे रहते हैं। इनको निकालना वैसा ही है जैसे बालू की ढेर से चीनी का कण चींटी निकालती है। अतः सोने की खुदाई करने वालों को कण्डूलना (= चींटी) कहते थे। इस नाम का अर्थ नहीं जानने के कारण मेगास्थनीज ने २ अध्याय तथा हेरोडोटस ने भारत में सोने की खुदाई करने वाली चींटियों के बारे में लिखा है। उनको यह नहीं पता चला कि ये मनुष्य ही हैं। खान को नक्शे पर खोजने वाले को कर्कटा (कर्कट = कम्पास) कहते थे। ताम्बा की खुदाई करने वाले खालको (ताम्र -गन्धक अयस्क को खालको-पाइराईट कहते हैं)।
पारा शोधन करने वाले हेम्ब्रम, टोपाज खुदाई करने वाले टोप्पो, टिन खूदाई करने वाले सिंकू (ग्रीक स्टैनिक) हैं। अयस्क की सफाई करने वाले मिन्ज, रासायनिक शोधन करने वाले हंसदा हैं। लोहे की खुदाई करने वाले मुण्डा (मुण्ड = अयस्क पत्थर, मुर = अयस्क चूर्ण मुर्रम्, लोहा), उससे लोहा बनाने वाले किस्कू (ब्लास्ट फर्नेस, कियोस्क आकार का) हैं।
पुनः खनिज सम्पत्ति के बंटवारे के लिये झगड़ा आरम्भ हुआ तो कार्त्तिकेय ने क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका) पर पहले शक्ति (मिसाइल) से आक्रमण किया जिसने क्रौञ्च पर्वत विदीर्ण कर दिया। उसके बाद अपनी मयूरी (जल-स्थल सीना) से क्रौञ्च द्वीप पर अधिकार किया। मयूरी सैनिकों के वंशज आज भी प्रशान्त महासागर के द्वीपों में हवाई से न्यूजीलैण्ड तक फैले हुये हैं। महाभारत, वन पर्व (२३०/८-१०) के अनुसार इस काल में उत्तरी ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया तथा धनिष्ठा में सूर्य प्रवेश से वर्ष और वर्षा का आरम्भ हुआ। यह १५,८०० ई.पू. में था। अतः मेगास्थनीज ने लिखा है कि भारत अन्न तथा सभी चीजों में स्वावलम्बी होने के कारण इसने पिछले १५००० वर्षों (३२६ ई.पू. के सिकन्दर आक्रमण से १५५०० वर्ष पूर्व) में किसी देश पर आक्रमण नहीं किया। इस काल में अदिति के पुत्र रूप में विष्णु नाम के वामन का जन्म हुआ।
श्रोणायां श्रवणद्वादश्यां मुहूर्तेऽभिजिति प्रभुः।
सर्वे नक्षत्र ताराद्याश्चक्रुस्तज्जन्म दक्षिणम्॥५॥
द्वादश्यां सविता तिष्ठन् मध्यन्दिन गतो नृप।
विजया नाम सा प्रोक्ता यस्यां जन्म विदुर्हरेः॥६॥ (भागवत पुराण, ८/१८) = वामन भगवान् के जन्म के समय चन्द्र श्रवण नक्षत्र में थे, भाद्रमास शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि थी जिसे विजया द्वादशी कहते हैं। जन्म के समय सूर्य आकाश के मध्य में स्थित थे जो अभिजित् मुहूर्त होता है। उन्हों ने बलि के यज्ञ में ३ पग भूमि मांगी। बलि को देवों की बढ़ी शक्ति का अनुमान था अतः उन्होंने बिना विरोध के देवों के ३ लोक लौटा दिये। उत्तर गोलार्ध में विषुव से उत्तर ध्रुव तक उज्जैन केन्द्र से ९० अंश देशान्तर का क्षेत्र भारत पद्म (उत्तर नक्शा का चतुर्थ भाग) कहलाता था। इसके ३ लोक भारत, चीन, रूस थे जिनपर इन्द्र का पुनः अधिकार हो गया। यह भाद्र शुक्ल द्वादशी को हुआ जिसे वामन द्वादशी या ओणम कहते हैं। इसी काल से राजाओं का राजत्व काल गिना जाता है जो ओड़िशा में आज भी प्रचलित है
(अंक पद्धति)।
तत्र पूर्वपदं कृत्वा पुरा विष्णुस्त्रिविक्रमे। द्वितीयं शिखरे मेरोश्चकार पुरुषोत्तमः॥५८॥ (वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४०)
आकाश में सूर्य रूपी विष्णु के ३ पद हैं-१०० योजन (सूर्य-व्यास) तक ताप क्षेत्र, १००० योजन तक तेज (क्रतु, सौर वायु) क्षेत्र, तथा १ लाख योजन तक प्रकाश क्षेत्र। परम पद सूर्यों का समूह है जिसके छोर पर सूर्य विन्दुमात्र दीखता है। यह भी भाद्र शुक्ल द्वादशी को हुआ जिसे वामन द्वादशी या ओणम कहते हैं। इसी काल से राजाओं का राजत्व काल गिना जाता है जो ओड़िशा में आज भी प्रचलित है (अंक पद्धति)। किसी भी समय अभिषेक होने पर, उसके बाद प्रथम भाद्र शुक्ल १२ को शून्यगिनते हैं, उसके बाद अगले वर्षों में क्रमशः १, २, ३, — गिनते हैं। इनकी २ पद्धति हैं-एक में सभी अंक गिनते हैं। अन्य पद्धति में ० तथा ६ से अन्त होने वाले अंक छोड़ देते हैं, जैसे १, २, ३, ४, ५, ७, ८, ९, ११, —। इसके अतिरिक्त अभिषेक समय से भी गिनते हैं, या निकटतम दहाई अंक में लिखते हैं। अतः पुरुरवा आदि का राजत्व काल ५६, ६०, ६४ आदि विभिन्न पद्धतियों में लिखा है।
बलि से इन्द्र के ३ लोक लेने का काम १ दिन में नहीं हुआ। वामन के साथ सेना भी थी जो सम्भवतः केरल तट से गयी थी, अतः वहां ओणम का पालन होता है। इस सेना ने अश्वमेध यज्ञ करते समय बलि की सेना को पराजित कर दिया था। अतः बलि ने युद्ध बन्द कर सन्धि कर ली। इसा मसीह के पूर्व तक बलि की पश्चिम एश्या में बाल देवता रूप में पूजा होती थी। इन्द्र को विशाल भूभाग पर अधिकार करने में कुछ मास लगा। दीपावली के समय तक यह पूरा हुआ जिसके अगले दिन बलि को दीपदान किया जाता है। उसके कुछ समय बाद बलि ने ओड़िशा पूर्व तट से यात्रा की। कार्त्तिक पूर्णिमा के दिन ओड़िशा में बालि यात्रा मनाते हैं। पूर्व एशिया में बलि के वंशज बाण का शासन रह गया। यह भगवान् कृष्ण से युद्ध करने वाले बाण से बहुत पहले था। दोनों एक ही वंश के हो सकते हैं, जैसा पुराणों से लगता है।
५. वामन और त्रिविक्रम- इनके कई अर्थ हैं।
(१) वामन-(क) आध्यात्मिक रूप से शरीर के भीतर आत्मा ही वामन है जिसकी पूजा सभी आन्तरिक देवता करते हैं।
ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति। मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते॥।३॥ (कठोपनिषद्, २/२/३)
शरीर ही रथ है, इसके भीतर आत्मा वामन है, जिसके साक्षात् से मोक्ष होता है। इसका लौकिक वर्णन विद्यापति के प्रसिद्ध गीत में है- पिया मोरे बालक (वामन), हम तरुणी गे। —- धैरज धये रहु, मिलत मुरारी॥
(ख) सौर मण्डल सूर्य व्यास का १५७.५ लाख गुणा बड़ा है, जिसे सूर्य का रथ कहा गया है (विष्णु पुराण, २/८/३)। इसके भीतर सूर्य ही वामन है। ठोस ग्रह मंगल तक हैं, उसकी कक्षा को विष्णु, भागवत आदि पुराणों में दधि समुद्र कहा गया है। यह दधि-वामन हुआ।
(ग) मनुष्य रूप में विष्णु कम आयु के थे जब वे बलि से ३ पद भूमि मांगने गये थे, या शरीर तुलना में उनकी शक्ति बहुत थी, अतः उनको वामन कहा गया है।
(२) त्रिविक्रम- (क) मनुष्य के ३ पद से ३ पद लम्बी और उतनी ही चौड़ी भूमि २ लोगों के खाट का आकार है। इतनी ही भूमि यज्ञ वेदी तथा उसके होताओं के बैठने के लिए चाहिए।
(ख) पृथ्वी के लिए उत्तर गोल ४ पाद का है। इनको भूपद्म का ४ दल कहा गया है-भारत, पूर्व में भद्राश्व, पश्चिम में केतुमाल, विपरीत दिशा में कुरु वर्ष।
भद्राश्वं पूर्वतो मेरोः केतुमालं च पश्चिमे। वर्षे द्वे तु मुनिश्रेष्ठ तयोर्मध्यमिलावृतः॥२४॥
भारताः केतुमालाश्च भद्राश्वाः कुरवस्तथा। पत्राणि लोकपद्मस्य मर्यादाशैलबाह्यतः॥४०॥
(विष्णु पुराण २/२)
इसमें भारत पाद विषुव से उत्तर ध्रुव (मेरु या सुमेरु) तक है तथा उज्जैन से पूर्व-पश्चिम ४५-४५ अंश तक है। विशुव के पश्चिमी विन्दु से पूर्व विन्दु तक १ पद हुआ। दोनों विन्दुओं पर एक-एक मेरु (त्रिशिरा स्तम्भ) है। वहां से मेरु तक दूसरा पद हुआ। वापस विषुव पर पश्चिम विन्दु तक (मिस्र पिरामिड तक) वापस तीसरा पद होगा, जो भारत पद्म के तीनों लोक हैं। इन पर इन्द्र का अधिकार पुनः हो गया।
तत्र पूर्वपदं कृत्वा पुरा विष्णुस्त्रिविक्रमे। द्वितीयं शिखरे मेरोश्चकार पुरुषोत्तमः॥५८॥
(वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४०)
(ग) आकाश में सूर्य रूपी विष्णु के ३ पद हैं-१०० योजन (सूर्य-व्यास) तक ताप क्षेत्र, १००० योजन तक तेज (क्रतु, सौर वायु) क्षेत्र, तथा १ लाख योजन तक प्रकाश क्षेत्र। इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे॥ (ऋक्, १/२२/१७) स एष (आदित्यः) एकशतविधस्तस्य रश्मयः शतं विधा एष एवैकशततमो य एष तपति। (शतपथ ब्राह्मण, १०/२/४/३)
युक्ताह्यस्य (इन्द्रस्य) हरयः शतादशेति। (ऋक्, ६/४७/१८) सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः (हरयः = रश्मयः)। (जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण, १/४४/५) त्रिंशद् धाम वि राजति वाक् पतङ्गाय धीयते। प्रति वस्तो रहद्युभिः॥ (ऋक् १०/१८९/३) रम पद सूर्यों का समूह है जिसके छोर पर सूर्य विन्दुमात्र दीखता है। इसका परम पद ब्रह्माण्ड है जो सूर्य जैसे तारों का समूह (सूरयः) है। तद् विष्णोः परमं पदं, सदा पश्यन्ति सूरयः। (ऋक्, १/२२/२०)
इसे सूर्य सिद्धान्त में ब्रह्माण्ड की सीमा कहा गया है जहां तक सूर्य किरणों का प्रसार होता है, अर्थात् विन्दु मात्र दीखता है।
आकाशकक्षा सा ज्ञेया करव्याप्तिस्तथा रवेः॥८१॥ ख व्योम ख-त्रय ख-सागर षट्क नाग व्योमाष्ट शून्य यम-रूप नगाष्ट चन्द्राः। ब्रह्माण्ड सम्पुटपरिभ्रमणं समन्तादभ्यन्तरा दिनकरस्य कर प्रसाराः॥ (सूर्य सिद्धान्त १२/८१, ९०) (घ) राजनीति-राजा की ४ नीतियां हैं-साम, दाम, दण्ड, भेद। इनके २ भेद कहे जा सकते हैं। बल रहने पर दण्ड दिया जा सकता है। बल की कमी पर अन्य ३ विक्रमों से काम होगा-साम, दाम, भेद। इस त्रिविक्रम से ही तिकड़म हुआ है। वामन ने पहले हिरण्याक्ष से ले कर बलि तक सभी असुर राजाओं की प्रशंसा की-यह साम है। उनके गुरु शुक्र से तथा उन सेनापतियों से भी भेद कराया जो युद्ध चाहते थे। बलि अभिमान में बहुत जमीन देना चाहता था, उससे कम से कम भूमि मांगना दाम है।