डीसीपी संजीव कुमार यादव की टीम दिल्ली के ज़ाकिर नगर पहुंची है। यहाँ बाटला हॉउस के एल-18 नंबर के घर में इंडियन मुजाहिदीन के संदिग्धों के छुपे होने की सूचना है। संजीव को बाटला हॉउस पहुँचने में देर हो गई है इसलिए उसका जूनियर इंस्पेक्टर केके अपने साथियों को लेकर एल-18 की ओर चल दिया है। डीसीपी के बाटला हॉउस पहुँचते ही ऊपर से गन शॉट्स की आवाज़ें आने लगती हैं।
जॉन अब्राहम का ‘बटला हाउस’ याद दिला गया कांग्रेस का काला काल!
कुछ देर में खून में लथपथ निढाल केके को उसके साथी अस्पताल पहुंचाते हैं, जहाँ कुछ देर बाद वह दम तोड़ देता है।’ ये दृश्य देख जेहन में वह तस्वीर आ जाती है, जो हमने सन 2008 में देखी थी। बाटला हॉउस एनकाउंटर में गंभीर रूप से घायल होने के बाद दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा को अस्पताल ले जाया गया था, जहाँ उनकी मृत्यु हो गई थी। एक ऐसा एनकाउंटर, जिसकी तफ्तीश और तत्कालीन सरकार की कारगुजारियों ने तय कर दिया था कि एक ‘खास समुदाय’ की संतुष्टि के लिए कानून और कानून के रखवालों की बलि ले ली जाएगी।
जॉन अब्राहम की ‘बाटला हॉउस’ इस एनकाउंटर की गहरी परतों में जाती है और बताती है कि एक ईमानदार कर्तव्यपरायण पुलिस अधिकारी को इसलिए सिस्टम का गुस्सा सहना पड़ता है क्योंकि उसने आतंक के मुंह में हाथ डालकर उसके दांत गिनने की कोशिश की है। ड्यूटी पर बलिदान हुए एक पुलिस अधिकारी के परिवार को मीडिया की बदसलूकी सहनी पड़ती है।
निर्देशक निखिल आडवाणी की ये फिल्म संदेह के गहरे कुहासे में दबे सत्य पर स्पॉटलाइट डालती है। ये बताती है कि एक खास ‘परिवार’ की सरकारों ने एक विशिष्ट समुदाय के लिए इस कदर तुष्टिकरण किया कि न केवल देश की सुरक्षा खतरे में आई, बल्कि संजीव कुमार जैसे समर्पित पुलिस अधिकारियों को शक की नज़रों से देखा जाने लगा।
निर्देशक निखिल आडवाणी कोई प्रस्तावना न रखते हुए सीधे कहानी में प्रवेश करते हैं। कहानी की शुरुआत में ही एनकाउंटर वाला सीन दिखाया गया है। निर्देशक बताते हैं कि संजीव कुमार की टीम किस तरह नेताओं की धूर्तता का शिकार हो जाती है।
संजीव की निजी ज़िंदगी तबाही के रास्ते पर चली जाती है। उस एनकाउंटर ने पुलिस पर कैसा मनोवैज्ञानिक असर डाला था, ये भी दिखाया गया है। एक दृश्य में एक राजनेता डीसीपी को कहता है ‘एक ही कम्युनिटी के पीछे क्यों पड़े हो, बैलेंस करके क्यों नहीं चलते।’ ये संवाद दिखाता है कि एक समुदाय के वोट पाने के लिए राजनेता देश की सुरक्षा के साथ खेल जाते हैं। निर्देशक ने वास्तविक तथ्यों को लेकर फिल्म का रोचक घटनाक्रम रचा है।
जॉन अब्राहम जब शुरुआती दौर में फिल्म उद्योग में आए, तब अंदाज़ा नहीं था कि इस एक्टर के भीतर एक नैसर्गिक अभिनेता छुपा बैठा है। वे आज भी फिल्म दर फिल्म निखरते जा रहे हैं। डीसीपी संजीव कुमार की तल्खी, उसका आक्रोश, कर्तव्यपरायणता को जॉन ने स्वाभाविक रूप से व्यक्त किया है।
एक ट्रेक में वे पुलिस अधिकारी की मुश्किलों को बयां करते हैं तो दूसरे ट्रेक में एक विवश पति की पीड़ा दिखाते हैं। निश्चित रूप से ये किरदार उनके अब तक निभाए किरदारों में सबसे प्रभावकारी सिद्ध हुआ है। कोर्ट रूम ड्रामा में उनकी अदाकारी देखने योग्य है, जब वे वकील से सवाल-जवाब करते हैं।
फिल्म में दिग्विजय सिंह, अरविंद केजरीवाल, अमर सिंह, सलमान खुर्शीद और एल के अडवानी के रियल फुटेज दिखाए गए हैं। सलमान खुर्शीद का सोनिया गाँधी के एक आतंकी के लिए रोने वाला बयान भी दिखाया गया है। साफ़ है कि निर्देशक उस अवैध गठजोड़ पर प्रहार करना चाहता था, जो उस वक्त सिस्टम और राजनीति के घृणित मेल से बनकर तैयार हुआ था।
फिल्म की बाकी स्टार कॉस्ट में मनीष चौधरी विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। पुलिस कमिश्नर के किरदार में वे कमाल कर गए हैं। रवि किशन ने केके के छोटे से किरदार के लिए अच्छी मेहनत की है। मृणाल ठाकुर में प्रतिभा दिखाई देती है लेकिन उन्हें अभी और वक्त देना होगा। जॉन अब्राहम के कॅरियर में मील का पत्थर बनेगी ये फिल्म।
अब जबकि बाटला हॉउस एनकाउंटर पर फिल्म बन चुकी है, असल में ये मामला अब भी कोर्ट में विचाराधीन है। इसी साल की शुरुआत में बाटला हॉउस का मुख्य अभियुक्त पैरोल पर छूटकर अपनी बहन के निकाह में पहुंचा था। वहां उसके समुदाय के लोगों ने उसका भव्य स्वागत किया था। एक आतंकी के लिए इस देश में ऐसा व्यवहार अब नया नहीं रहा है।
ये अच्छी बात है कि युवा दर्शक इस फिल्म को देखकर समझेंगे कि देश में ऐसी सरकारें भी हुआ करती थी, जो एक आतंकी के लिए अपने ईमानदार अफसर को कलंकित करने में ज़रा भी नहीं झिझकती थी। यदि आप उस बहुचर्चित एनकाउंटर के बारे में जानना चाहते हैं और संजीव कुमार का अंतर्दवंद समझना चाहते हैं तो ये फिल्म आपके लिए ही बनी है। आज ही टिकट कटाइये।
फिल्म तो देखना ही पडेगी…. बहुत ही सटीक समीक्षा