जब से जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी-JNU बनी है एक खास विचारधारा के लिए प्रसिद्ध रही है। इसलिए उसे कम्युनिस्टों का लाल दुर्ग भी कहा जाता है। हालांकि यहां हिंसा तो पहले भी होती थी किन्तु एक खास विचारधारा के दबाव के कारण वह दबी रह जाती थी, लेकिन जब से राष्ट्रीय विचारधारा का उभार बढ़ा है कम्युनिस्ट छात्रों की राष्ट्रविरोधी करतूतें अब विश्वविद्यालय के परिसर से भी बाहर आने लगी हैं। शुक्रवार की शाम घटी घटना ने जहां शहरी नक्सलियों के षड्यंत्र को उजागर करता है वहीं किसी दूसरे विचार को न सुनने की उसकी सामंती परंपरा को भी दिखाता है। असहिष्णुता के नाम पर पूरे देश में अभियान चलाने वाले इसी विश्वविद्यालय के कम्युनिष्ट छात्रों ने आज दिखा दिया है कि वह स्वयं कितने असहिष्णु हैं। ऐसा नहीं कि यह पहली घटना है। इससे पहले भी कई राष्ट्रविरोधी घटनाओं का यह विश्वविद्यालय साक्ष्य रहा है। वह चाहे, अफजल गुरु की फांसी की बरसी पर भारत तेरे टुकड़े होंगे.. इंशा अल्लाह …इंशा अल्लाह जैसे देशविरोधी नारे लगाने वाली घटना हो या फिर छत्तीसगढ के दांतेवाड़ा में नक्सलियों द्वारा मारे गए 76 सुरक्षा जवानों की खुशी में जश्न मनाया जाना हो। देश विरोधी एसी घटनाएं इस यूनिवर्सिटी में दफ़न हैं। उन सारी घटनाओं के साथ अपने ही देश के सबसे बेहतर विश्वविद्यालय में पल रहे देशद्रोहियों की कहानी के बारे में सिलसिलेवार तरीके से बताने जा रहा हूं।
आतंकी अफजल गुरु की याद में लगाए थे देश विरोधी नारे
JNU के ही छात्रों ने अपने परिसर में आतंकी अफजल गुरू की बरसी मनाई थी और देश विरोधी नारे लगाए थे। अफजल गुरु वही आतंकवादी है जिसे संसद पर हमला करने का गुनहगार मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई थी। और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 9 फरवरी 2013 को उसे फांसी दे दी थी। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि विश्वविद्यालय के छात्रों ने उसकी बरसी पर देशविरोधी नारे तब लगाए जब केंद्र में एनडीए की सरकार थी। सोचने वाली बात यह है कि जब कांग्रेस सरकार ने फांसी दी तब ये लोग देश विरोधी नारे क्यों नहीं लगाए थे? जेएनयू की छवि तभी दागदार हुई ऐसी बात नहीं है। इस बार सिर्फ इतना हुआ कि ठोस सबूतों के साथ कम्युनिस्ट छात्रों की करतूत जेएनयू के विशाल परिसर से बाहर निकल आई और पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया लेकिन यहां के छात्रों का देशद्रोही रवैया पहले से ही कायम है।
दंतेवाड़ा नरसंहार पर जेएनयू कैंपस ने देखा था जश्न
शायद जेएनयू में एक खास तरह का पानी बहता है जिसे पीते ही छात्रों को कम्यूनिस्ट बनने का चस्का लग जाता है। सबसे खास बात ये है कि कम्युनिस्ट बने छात्र संवेदनशून्य हो जाते हैं। हिंसा में विश्वास नहीं करने वाले देश में यहां के छात्र हिंसा पर जश्न मनाकर इस विश्वविद्यालय को देश से अलग दिखाना चाहते हैं। गरीबों की लड़ाई लड़ने का ढिंढोरा पीटने वाले सुरक्षा बलों की हत्या पर जश्न कैसे मना सकते हैं? लेकिन यह सच है कि 2010 के जून महीने में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में हुए नरसंहार का यहां जश्न मनाया। इस घटना को नक्सलियों की सफलता बताते उसे शौर्य दिवस के रूप में मनाया। यूनिवर्सिटी में भारतीय सत्ता के खिलाफ नक्सलवाद की जीत बताया। जिन 76 जवानों की हत्या को जेएनयू के छात्रों ने जायज ठहराया था वे जवान उसी वर्ग से आते हैं जिस वर्ग के हित की लड़ाई का ये दंभ दिखाते हैं। इनकी लड़ाई हास्यास्पद ही नहीं घृणित भी है।
जेएनयू को कश्मीर में बाहरी दखल से ऐतराज नहीं
जेएनयू में देश के जनमानस से अलग धारणा हमेशा से रही है, जिसे बौद्धिकता के नाम पर स्वीकार नहीं किया जा सकता है और न ही किया जाना चाहिए। जब देश की सरकार और आम जनमानस की जम्मू-कश्मीर पर हमेशा ही एक धारणा रही है कि वहां विदेशी दखल बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। ऐसे में जेएनयू के कम्युनिस्ट विंग की धारणा बिल्कुल उलट है। जेएनयू को इससे भी कोई ऐतराज नहीं है कि जम्मू-कश्मीर की समस्या के समाधान के लिए विदेशी दखल की भी स्वीकार किया जाए। क्या आप अभिव्यक्ति के नाम देश द्रोह का ऐसा उदाहरण कहीं और देख सकते हैं। फिर भी इस सरकार पर आरोप लगाया जा रहा है कि यह सरकार असहिष्णु है।
strong>चीन का भी हिमायती रहा है जेएनयू का लेफ्ट विंग
देश के कम्युनिस्ट 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के लिए अपने देश को ही दोषी ठहराते रहे हैं। कम्युनिस्टों का चीन प्रेम का तो इतिहास रहा है। लेकिन जेएनयू के लेफ्ट विंग ने तो तब हद पार कर दी जब वे चीन के विस्तारवादी नीति का भी खुला समर्थन कर दिया। यह घटना 2004 की है जब चीन ने देश के पूर्वी राज्य अरुणाचल प्रदेश को भारत से अलग कर अपने नक्शे में शामिल कर उसे अपना हिस्सा बता दिया। जेएनयू छात्र संघ में चयनित पार्षदों ने इसके खिलाफ संकल्प पेश कर चीन की विस्तारवादी नीति के खिलाफ प्रस्ताव रखा। इस मामले पर जम्मू कश्मीर में भी प्रस्ताव रखा जाता तो वहां भी शायद ही कोई विरोध करता। लेकिन जानते हैं जेएनयू में इस संकल्प प्रस्ताव के खिलाफ आवाजें उठाई गईं और जबरदस्त विरोध हुआ। जानकर हैरानी होगी कि चीन के खिलाफ पेश संकल्प प्रस्ताव को गिरा दिया गया। इतना ही नहीं जेएनयू के लेफ्ट विंग ने चीन के कदम की उचित बता दिया। क्या कोई भी सरकार ऐसी हरकतों को बर्दाश्त कर सकती है। लेकिन हमारे देश की सरकार ने बर्दाश्त किया।
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