विपुल रेगे। संहार: द मैस्सेकर के कथानक का पालघर के साधुओं के नृशंस हत्याकांड से सीधा-सीधा तो कुछ लेना-देना नहीं है लेकिन इतना अवश्य है कि ये लघु प्रस्तुति पालघर में घटी उस मनहूस रात की भयंकर पीड़ा को भलीभांति परिलक्षित करती है। ये शार्ट फिल्म गौ के महत्व और उसके प्रति हिन्दू धर्म की आस्था को भी रेखांकित करती है। इस फिल्म में अभिनय कर रहे पुनीत इस्सर की प्रस्तुति में जूना अखाड़ा के उन दो संतों की वेदना प्रकट सी होती दिखती है। एक ज्वलंत विषय पर बनी ये फिल्म अब भी दर्शकों की बाट जोह रही है।
इस शार्ट फिल्म के निर्देशक सिद्धांत इस्सर हैं और इसके मुख्य निर्माता पुनीत इस्सर हैं। फिल्म में मुख्य रुप से गौ हत्या और साधुओं की हत्या का मुद्दा उठाया गया है। एक युवक एक ऐसे नेता की हत्या कर देता है, जो बड़े स्तर पर धर्मान्तरण करवा रहा था और गौ तस्करी में भी लिप्त था। युवा इस नेता की नृशंस हत्या करता है।
इस हत्या के कारण के पीछे की कथा फ्लेशबैक में पता चलती है। वृद्ध और निराश्रित गायों को शरण देने वाले एक संत की बढ़ती लोकप्रियता से धर्मांतरण का षड्यंत्र असफल होने लगता है। ये देखकर नेता बौखला जाता है और गुंडों के साथ संत के आश्रम पर हमला करता है। ये सब मिलकर संत की हत्या कर देते हैं।
निर्देशक ने फिल्म का विषय और कथा बहुत अच्छी चुनी है और प्रभावित भी करती है लेकिन इसे मुंबइया शैली में प्रस्तुत किया गया है। ऐसी फिल्मों का ट्रीटमेंट मसाला फिल्मों की तरह नहीं होना चाहिए। ये फिल्म हिस्सों में प्रभावित करती है। इसका सबसे अच्छा दृश्य रिपोर्टर और संत के बीच वार्तालाप है।
इस दृश्य में वे समझाते हैं कि गाय का महत्व क्या है और उसे वृद्ध होने पर बेच देना महापाप है क्योंकि बेचने के बाद उन्हें कसाईखाने में काट दिया जाता है। इस फिल्म को वास्तविक शैली में प्रस्तुत किया जाता तो इसकी बहुत चर्चा होती। इस फिल्म की चर्चा इसलिए भी नहीं हुई क्योंकि ये गाय और संत पर आधारित फिल्म है।
बॉलीवुड पोषित मीडिया ने पुनीत इस्सर की इस प्रस्तुति को चर्चा से लगभग बाहर रखा है। यही कारण है कि इसे अब तक पांच लाख दर्शक भी देख नहीं सके हैं। हिन्दू हितों और गाय की महत्ता को दिखाती ये शार्ट फिल्म बड़े ही लाउड तरीके से अपनी बात रखती है और इसका युवा नायक भी गलत चुन लिया गया। इन दोनों गलतियों के बावजूद ये शार्ट फिल्म उत्साहवर्धन के लिए देखी जानी चाहिए।