श्वेता पुरोहित। चैत्रमास संवत्सर का प्रथम मास है। सृष्टि के आरम्भ में चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर था। इसी कारण यह चैत्रमास कहलाता है। अन्य महीनों की अपेक्षा चैत्र पहला महीना माना गया है और वैशाख आदि महीने इसके पीछे आते हैं। इस मासका इसलिये भी वैशिष्ट्य है कि इसी मास में ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना प्रारम्भ की थी-
‘चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि ।
शुक्लपक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति ॥’
इस मास में होनेवाले व्रत-पर्वों का संक्षेप में विवरण इस प्रकार है-
कृष्ण पक्ष
चैत्रमासके कृष्णपक्षमें कृष्ण प्रतिपदासे चैत्र शुक्ल द्वितीयातक गौरीव्रत किया जाता है। इसे विवाहिता और कुमारी दोनों करती हैं। कृष्ण प्रतिपदाको ही होलामहोत्सव या धुरंडी होती है। शास्त्रानुसार इसी दिन नवान्नेष्टि नामक यज्ञ भी होता है। इसी पक्षमें चन्द्रोदयव्यापिनी चतुर्थीको संकष्ट चतुर्थी व्रत किया जाता है। वर्तमान या भावी संकटकी निवृत्तिके लिये यह उत्तम व्रत है। इसी पक्षकी अष्टमी तिथिको शीतलाष्टमीका व्रत किया जाता है। इससे शीतला रोगजनित उपद्रवकी शान्ति होती है। इसमें एक दिन पहले बने पूआ-मिठाई आदिसे शीतला देवीको भोग लगाया जाता है तथा शीतलास्तोत्रका पाठ किया जाता है। इसी दिन संतानाष्टमीका भी व्रत होता है, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण और देवकीका गन्धादिसे पूजन किया जाता है। इस पक्षकी एकादशीको पापमोचनी एकादशीका व्रत किया जाता है। इसी पक्षकी त्रयोदशीको वारुणी योग होता है, इस पुण्यप्रद महायोगमें गंगादि पवित्र नदियोंमें स्नान, दान और उपवासादिका बड़ा महत्त्व है। चैत्र कृष्ण चतुर्दशीको केदारदर्शन व्रत किया जाता है। इसमें गंगास्नानकर एकभुक्त व्रत किया जाता है। चैत्री अमावस्याको स्नान-दान आदिका बड़ा महत्त्व है, इस दिन सोम, भौम या गुरुवार हो तो इस व्रतसे सूर्यग्रहणके समान फल होता है।
शुक्ल पक्ष
नवसंवत्सर – जिस प्रकार रवि-सोम आदि सात वार, चैत्र-वैशाखादि बारह मास, अश्विनी-भरणी आदि सत्ताइस नक्षत्र, मेष-वृषादि बारह राशियाँ और वसन्त- ग्रीष्मादि संज्ञक छः ऋतुएँ होती हैं, उसी प्रकार प्रभव- विभव आदि साठ संवत्सर होते हैं। बीस-बीस संवत्सरों की ब्रह्म-विष्णु-रुद्रसंज्ञक तीन विंशतिकाएँ होती हैं। बृहस्पति अपनी मध्यम गतिसे जब एक राशिका भोग कर लेता है, तब एक संवत्सर पूर्ण हो जाता है अर्थात् बृहस्पति जब मध्यम मानसे राशि-परिवर्तन करता है, तभी संवत्सर परिवर्तित होता है –
बृहस्पतेर्मध्यमराशिभोगात् संवत्सरं सांहितिका वदन्ति ॥
चैत्रमासके शुक्लपक्षकी प्रतिपदा तिथिसे नवसंवत्सरका आरम्भ होता है, यह अत्यन्त पवित्र तिथि है। इस तिथिको रेवती नक्षत्रमें, विष्कुम्भ योगमें दिनके समय भगवान्के आदि अवतार मत्स्यरूपका प्रादुर्भाव भी माना जाता है—
कृते च प्रभवे चैत्रे प्रतिपच्छुक्लपक्षगा।
रेवत्यां योगविष्कुम्भे दिवा द्वादशनाडिकाः ॥
मत्स्यरूपकुमार्यां च अवतीर्णो हरिः स्वयम् ।
(स्मृतिकौस्तुभ)
युगों में प्रथम सत्ययुगका प्रारम्भ भी इसी तिथिको हुआ था। यह तिथि ऐतिहासिक महत्त्वकी भी है, इसी दिन सम्राट् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यने शकोंपर विजय प्राप्त की थी और उसे चिरस्थायी बनानेके लिये विक्रम- संवत्का प्रारम्भ किया था।
इस दिन प्रातः नित्यकर्म करके तिलका उबटन लगाकर स्नान आदिसे शुद्ध एवं पवित्र होकर हाथमें गन्ध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर देश-कालके उच्चारणके साथ यह संकल्प करना चाहिये-
‘मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य स्वजनपरिजनसहितस्य वा आयुरारोग्यैश्वर्यादिसकलशुभफलोत्तरोत्तराभिवृद्धयर्थं ब्रह्मादिसंवत्सरदेवतानां पूजनमहं करिष्ये।’
- ऐसा संकल्पकर नयी बनी हुई चौरस चौकी या बालूकी वेदीपर स्वच्छ श्वेतवस्त्र बिछाकर उसपर हल्दी या केसरसे रँगे अक्षतसे अष्टदल कमल बनाकर उसपर ब्रह्माजीकी सुवर्णमूर्ति स्थापित करे। गणेशाम्बिका- पूजनके पश्चात् ‘ॐ ब्रह्मणे नमः’ मन्त्रसे ब्रह्माजीका आवाहनादि षोडशोपचार पूजन करे। पूजनके अनन्तर विघ्नोंके नाश और वर्षके कल्याणकारक तथा शुभ होनेके लिये ब्रह्माजीसे निम्न प्रार्थना की जाती है –
भगवंस्त्वत्प्रसादेन वर्ष क्षेममिहास्तु मे।
संवत्सरोपसर्गा मे विलयं यान्त्वशेषतः ॥
पूजन के पश्चात् विविध प्रकार के उत्तम और सात्त्विक पदार्थोंसे ब्राह्मणोंको भोजन करानेके बाद ही स्वयं भोजन करना चाहिये।
इस दिन पंचांग-श्रवण किया जाता है। नवीन पंचांगसे उस वर्षके राजा, मन्त्री, सेनाध्यक्ष आदिका तथा वर्षका फल श्रवण करना चाहिये। सामर्थ्यानुसार पंचांग-दान करना चाहिये तथा प्याऊ (पौसला)-की स्थापना करनी चाहिये।
आज के दिन नया वस्त्र धारण करना चाहिये तथा घरको ध्वज, पताका, बन्दनवार आदिसे सजाना चाहिये । आजके दिन निम्बके कोमल पत्तों, पुष्पोंका चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिस्त्री और अजवाइन डालकर खाना चाहिये, इससे रुधिर-विकार नहीं होता और आरोग्यकी प्राप्ति होती है। इस दिन नवरात्रके लिये घट-स्थापन और तिलकव्रत भी किया जाता है । इस व्रतमें यथासम्भव नदी, सरोवर अथवा घरपर स्नान करके संवत्सरकी मूर्ति बनाकर उसका ‘चैत्राय नमः’, ‘वसन्ताय नमः’ आदि नाम-मन्त्रोंसे पूजन करना चाहिये। इसके बाद विद्वान् ब्राह्मणका पूजन-अर्चन करना चाहिये।
वासन्तिक नवरात्र –
चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघके शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे नवमीतकके नौ दिन नवरात्र कहलाते हैं। इस प्रकार एक संवत्सरमें चार नवरात्र होते हैं, इनमें चैत्रका नवरात्र ‘वासन्तिक नवरात्र’ और आश्विनका नवरात्र ‘शारदीय नवरात्र’ कहलाता है। इनमें आद्याशक्ति भगवती दुर्गाकी विशेष आराधना की जाती है।
श्रीरामनवमी –
श्रीरामनवमी सारे जगत्के लिये सौभाग्यका दिन है; क्योंकि अखिल विश्वपति सच्चिदानन्दघन श्रीभगवान् इसी दिन दुर्दान्त रावणके अत्याचारसे पीड़ित पृथ्वीको सुखी करने और सनातन धर्मकी मर्यादाकी स्थापना करनेके लिये मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामके रूपमें प्रकट हुए थे।
चैत्र शुक्ल नवमीको ‘श्रीरामनवमी’ का व्रत होता है। यह व्रत मध्याह्नव्यापिनी दशमीविद्धा नवमीको करना चाहिये। अगस्त्यसंहितामें कहा गया है कि यदि चैत्र शुक्ल नवमी पुनर्वसु नक्षत्रसे युक्त हो और वही मध्याह्नके समय रहे तो महान् पुण्यदायिनी होती है। अष्टमीविद्धा नवमी विष्णुभक्तोंको छोड़ देनी चाहिये। वे नवमीमें व्रत तथा दशमीमें पारणा करें।
अनंगत्रयोदशी –
चैत्रमासके शुक्लपक्षकी त्रयोदशी ‘अनंगत्रयोदशी’ कहलाती है। इस दिन व्रत करनेसे दाम्पत्य-प्रेममें वृद्धि होती है तथा पति-पुत्रादिका अखण्ड सुख प्राप्त होता है। भविष्यपुराणके अनुसार चैत्र शुक्ल त्रयोदशीको कामदेव, रति और वसन्तकी पूजा करके दम्पती सुख-सौभाग्य तथा पुत्रकी प्राप्ति करते हैं।
यह व्रत इस तिथि को आरम्भकर वर्षभर प्रत्येक त्रयोदशी को किया जाता हैश्रीहनुमज्जयन्ती –
श्रीहनुमान्जीकी जयन्ती की तिथि के विषय में दो मत प्रचलित हैं-
१. चैत्र शुक्ल पूर्णिमा और
२. कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी।
हनुमज्जयन्ती के दिन श्रीहनुमान्जीकी भक्ति पूर्वक आराधना करनी चाहिये।
सौभाग्यशयन-व्रत –
सौभाग्यशयन व्रत की महिमा के सम्बन्ध में मत्स्यपुराण में वर्णन आया है कि पूर्वकाल में जब सम्पूर्ण लोक दग्ध हो गये थे तब समस्त प्राणियों का सौभाग्य एकत्र हो गया। वह सौभाग्यतत्त्व वैकुण्ठलोकमें जाकर भगवान् श्री विष्णु के वक्षःस्थल में स्थित हो गया। तदनन्तर दीर्घकाल के बाद जब पुनः सृष्टिरचनाका समय आया, तब प्रकृति और पुरुष से युक्त सम्पूर्ण लोकोंके अहंकारसे आवृत हो जानेपर श्रीब्रह्मा जी तथा श्रीविष्णुजी में स्पर्धा जाग्रत् हुई। उस समय पीले रंग की (अथवा शिवलिंगके आकारकी) अत्यन्त भयंकर अग्निज्वाला प्रकट हुई। उससे भगवान्का वक्षःस्थल तप उठा, जिससे वह सौभाग्यपुंज वहाँसे गलित हो गया। श्रीविष्णुके वक्षःस्थलका आश्रय लेकर स्थित वह सौभाग्य अभी रसरूप होकर धरतीपर गिरने भी न पाया था कि ब्रह्माजीके पुत्र दक्षप्रजापतिने उसे आकाशमें ही रोककर पी लिया, जिससे दक्षका अद्भुत प्रभाव हो गया। उनके पीनेसे बचा हुआ जो अंश पृथ्वीपर गिरा, वह आठ भागोंमें बँट गया। उससे ईख, रसराज (पारा) आदि सात सौभाग्यदायिनी औषधियाँ उत्पन्न हुईं तथा आठवाँ पदार्थ नमक हुआ – इन आठोंको ‘सौभाग्याष्टक’ कहते हैं।
ब्रह्माजीके पुत्र दक्षने पूर्वकालमें जिस सौभाग्यरसका पान किया था, उसके अंशसे उन्हें एक कन्या उत्पन्न हुई, जो सती नामसे प्रसिद्ध हुईं। अपने अद्भुत सौन्दर्य, माधुर्य तथा लालित्यके कारण ललिता भी इनका नाम है। ये देवी सती तीनों लोकोंकी सौभाग्यरूपा हैं।
चैत्रमासके शुक्लपक्षकी तृतीया तिथि को विश्वात्मा भगवान् शंकरके साथ इनका विवाह हुआ था। अतः इस दिन उत्तम सौभाग्य तथा भगवान् शंकरकी प्रसन्नता प्राप्त करनेके लिये सौभाग्यशयन नामक व्रत किया जाता है। यह व्रत सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है।
व्रतीको चाहिये कि इस दिन प्रातः तिलमिश्रित जलसे स्नानकर सतीदेवीके साथ ही भगवान् शंकरका पूजन करे।
गणगौर –
दाम्पत्य प्रेम के उच्चादर्श की शिक्षा देने हेतु शिव-पार्वती के रूप में ईसर गौर (ईश्वर-गौरी)-की पूजा का विधान विशेष रूप से राजस्थान में ईसर-गण गौर के महोत्सव रूप में बड़ी ही श्रद्धा से सम्पन्न होता आया है। यह गौर पूजा सौभाग्यवती स्त्रियों और कन्याओं का विशेष त्योहार है। राजस्थान में कन्याओं के लिये विवाह के उपरान्त प्रथम चैत्र शुक्ल तृतीयातक गणगौर का पूजन करना आवश्यक कर्तव्य समझा जाता है। वे होलिका दहन की भस्म और तालाब की मिट्टीसे ईसर-गौरकी प्रतिमाएँ बनाती हैं। उन्हें वस्त्रालंकरणों से सुसज्जित कर घरके चौक में स्थापित करके श्रद्धापूर्वक उनकी पूजा करती हैं। सौभाग्यवती स्त्रियों के साथ कुमारी कन्याएँ भी श्रेष्ठ वरकी प्राप्तिके लिये इस पूजनमें भाग लेती हैं। इन दिनों पूजाके लिये हरी दूर्वा, पुष्प और जल लानेहेतु ये अपनी टोलियाँ बनाकर प्रतिदिन प्रातः सुमधुर गीत गाती हुई घर से निकलती हैं। पास के उद्यानों एवं तालाबों- सरोवरों से कलशोंमें जल भरकर दूर्वा-फल-फूल सहित लौटती हैं और पवित्र स्थानपर गणगौर की पूजा करती हैं।
चैत्र शुक्ल तृतीयाको प्रात:कालकी पूजाके बाद तालाब, सरोवर, बावड़ी या कुएँपर जाकर मंगलगानसहित गणगौरकी प्रतिमाओंका विसर्जन किया जाता है। गणगौरकी विदाई अथवा विसर्जनका दृश्य देखनेयोग्य होता है। उस समय कन्याएँ एवं विवाहिताएँ वस्त्राभूषणोंको धारणकर सुसज्जित हो उसमें भाग लेती हैं। ईसर-गणगौरकी प्रतिमाओंको जलमें विसर्जित किया जाता है।
आप सबको हिन्दू नववर्ष विक्रम संवत २०८१ पिंगल नवसंवत्सर और चैत्र मास में पड़ने वाले सभी त्यौहारों की ढेरों शुभकामनाएँ