सोनाली मिश्रा । साहित्य को कभी राजनीति से आगे चलने वाला कहा जाता था। साहित्य को कभी ज्ञान की मशाल कहा जाता था। परन्तु जैसे ही वर्ष 1935 में मुल्क राज आनंद, सज्जाद जहीर और ज्योतिमाया घोष सहित कुछ लेखकों के समूह ने मिलकर प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की गयी, उसने सब कुछ बदल दिया।
इस संगठन में यह निर्धारित किया गया कि “भारतीय समाज में बहुत ही तेजी से बहुत अधिक परिवर्तन आ रहे हैं। ऐसे में हमारा यह मानना है कि भारत में जो साहित्य है (लिटरेचर) है, उसे मौजूदा समस्याओं का सामना करना चाहिए, भूख और गरीबी की समस्याएं, सामाजिक पिछड़ेपन की समस्याएं, और राजनीतिक दमन की समस्याओं पर बात करनी चाहिए।
हमें जो भी पीछे की ओर खींचता है, हमें अकर्मण्य बनाता है और अतार्किक बनाता है हम उसे प्रतिक्रियावादी कहकर अस्वीकार करते हैं। हम केवल उसी को प्रगतिशील मानेंगे जो हमारे भीतर आलोचक की दृष्टि उत्पन्न करेगा और संस्थानों एवं परम्पराओं को तर्क से जांचने देगा!”
अर्थात इसपरिभाषा के अनुसार जो कुछ भी भक्तिकाल में रचा गया, वह सारा बेकार हो गया। और जो कुछ भी उस समय राष्ट्रीय परिदृश्य में हिन्दुओं के दृष्टिकोण से लिखा जा रहा था, वह सब पिछड़ा, साम्प्रदायिक हो गया और मात्र उसी को साहित्य माना गया, जो मौजूदा समस्याओं को दिखाए! अर्थात वह इसका विमर्श न करे कि इस गरीबी का कारण क्या होगा? इस पिछड़ेपन का कारण क्या है?
और यही दृष्टिकोण धीरे धीरे बढ़ते हुए हिन्दू विरोध की ओर बढ़ता गया। जो भी हिन्दू था, वह अपने आप पिछड़ा हो गया, साम्प्रदायिक हो गया। प्रगतिशील लेखक संघ को पंडित नेहरू द्वारा समर्थन मिलने से साहित्य का अर्थ ही जैसे हिन्दू और हिन्दू लोक का विरोध हो गया। जो अब आकर अश्लीलता को भी मात देने लगा है। हाल ही में साहित्य से जुड़े कई विवाद हुए। इन विवादों में सबसे महत्वपूर्ण जो बात उभर कर आई, वह यह कि हर स्थिति में इन कथित साहित्यकारों और पत्रिकाओं का उद्देश्य परिवार, देश और धर्म का विखंडन है।
सबसे पहले बात करते हैं, कथित जनवादी पत्रिका में प्रकाशित कहानी “कोका किंग”। पुरुष वेश्याओं अर्थात जिगोलों पर आधारित इस कहानी में सनसनी के अतिरिक्त कुछ नहीं है। और सबसे मजे की बात यही है कि कथित जनवादी मूल्यों का हवाला देने वाली और साहित्य की बातें करने वाली हंस पत्रिका में जो यह अश्लील और विकृत यौन स्थूलता की कहानी प्रकाशित हुई है, इसकी लेखिका रजनी मोरवाल की एक कहानी पर कहानी चोरी का आरोप लगा था और रजनी मोरवाल ने फेसबुक पोस्ट चुराकर कहानी बनाई थी। हंस पर तब भी प्रश्न उठे थे, परन्तु उस समय भी लेखिका के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया गया था और अब वही लेखिका जिगोलो के नाम पर यौन स्थूलता और अश्लीलता को परोस रही हैं।
ऐसा नहीं है कि अश्लीलता का संसार हंस तक है या फिर आज का है। हंस के साथ साथ पाखी पत्रिका भी कथित रूप से साहित्य की बात करती है। परन्तु पाखी पत्रिका में भी कुछ वर्ष पहले एक ऐसी कहानी प्रकाशित हुई थी जिसने सबसे पवित्र सम्बन्ध अर्थात माँ और बेटे के बीच यौन सम्बन्ध दिखलाए गए थे। वंदना गुप्ता की इस कहानी पर बहुत बहस हुई थी, विरोध हुआ था। परन्तु यह बहुत ही हैरान करने वाली बात है कि पत्रिकाओं का उद्देश्य कभी जिगोलो तो कभी माँ और पुत्र के बीच यौन सम्बन्ध दिखाने पर रहता है।


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इस प्रकार की अश्लील कहानी पर काफी बहस भी पाखी द्वारा कराई गयी थी, इस प्रकार के साहित्य से क्या दिशा देना चाहती थी पत्रिका, यह समझ नहीं आता है!
वैचारिक और बाजार की पत्रिका दोनों के बीच हिन्दू द्वेष के चलते अंतर कम हो गया है!
हंस, पाखी एवं स्त्रीकाल जैसी पत्रिकाएँ ऐसी हैं जो वैचारिक होने का दंभ भरती हैं और साथ ही गृहशोभा, सरिता आदि को बाजार की पत्रिका बताती हैं। परन्तु सत्य तो यह है कि परिवार तोड़ने में और अश्लीलता फैलाने में क्या विचार और क्या बाजार, दोनों ही एक साथ हैं। हंस जहाँ जिगोलों के माध्यम से अश्लीलता फैला रही है, वहीं पाखी ने पहले ही सारी सीमा पार कर दी थीं और उसके बाद कथित रूप से स्त्रियों की बात करने वाली स्त्रीकाल ने हाल ही में अपने कई पोस्टर जारी किये, जिसमें हिन्दुओं पर प्रहार थे!
जिनमें कृष्ण और द्रौपदी पर प्रहार थे और द्रौपदी के पांच पति के विषय में कहा गया था कि यह समाज में गाली मानी जाती है!

यह पोस्टर लेखिका अणुशक्ति सिंह द्वारा कहा गया था, जबकि यह बात एकदम गलत है क्योंकि हिन्दू समाज द्रौपदी को पंच्कन्याओं में से एक पंचकन्या मानता है और उनके विषय में यही मन्त्र पढता है
अहिल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा।
पंचकन्या स्मरणित्यं महापातक नाशक॥
इसी बात को लेकर फिर से एक बार बहस छिड़ गयी कि आखिर ऐसा क्या कारण है कि जिसमें हिन्दू धर्म के आराध्यों को लेकर हिन्दुओं पर प्रहार होता है। वह कौन से कारण हैं जिनके कारण हिन्दुओं को नीचा दिखाया जाता है, कथित साहित्य में? यह साहित्य इतना झूठा, अश्लील कैसे हो सकता है? परन्तु कथित विचार के और भी नीचे गिरने की सीमा पार की गृहशोभा ने!
हालाँकि हंस, पाखी और स्त्रीकाल बार बार स्वयं को गृहशोभा आदि से ऊपर मानते हैं, परन्तु कथा से लेकर विचार तक उन दोनों में कोई अंतर नहीं है। गृहशोभा का हर सम्पादकीय लगभग हिन्दुओ के प्रति घृणा से भरा हुआ होता है और वह शब्दों से इतना खेलते हैं कि वह हमेशा औरत शब्द का प्रयोग करते हैं। और हमेशा ही मुस्लिम या ईसाई जैसे अब्राह्मिक मजहबों के लिए भी धर्म का प्रयोग करते हैं। हर सम्पादकीय में सरकार को कोसने के नाम पर हिन्दुओं को कोसना इनका प्रिय शौक है, और यही शौक कथित जनवादिता, और स्त्रियों की बात करने वाले स्त्रीकाल के साथ होती है।

गृहशोभा का अप्रेल 2022 का सम्पादकीय, जिसमें कथित मानवता के नाम पर महाभारत जैसे धर्मयुद्ध पर प्रश्न उठाए हैं और विष घोलने का कुकृत्य किया गया है। इतना ही नहीं हाल ही में गृहशोभा का एक लेख बहुत वायरल हुआ, जिसमें यह लिखा था कि अगर शादी के बाद भी प्रेमी के साथ गर्भ ठहर जाए तो क्या करना चाहिए?
कैसे लड़कियों को अपनी सास, पति से छिपाना चाहिए, कैसे आराम करना चाहिए आदि आदि!
परिवार व्यवस्था को पूरी तरह से तहसनहस करने वाला लेख था, और इसमें सम्पादक भी यह बताने में नाकाम होंगे कि आखिर सन्देश क्या दे रहे हैं?
परिवार तोड़ने की दिशा में एक कदम था यह लेख,
सरकार के नाम पर हिन्दुओं को कोसते हैं यह सभी लोग
यह लोग भी सरकार का विरोध करने के नाम पर हिन्दुओं का विरोध करते हैं, परन्तु हंस में मंत्री रहते हुए रमेश पोखरियाल निशंक जी की कहानियां भी प्रकाशित हो जाती हैं, जिसके आधार पर यह लोग कहीं न कहीं यह दावा कर सकते हैं कि वह विचारों की छुआछूत में विश्वास नहीं करते हैं!
स्त्रीकाल के जिस पोस्टर पर विवाद हुआ, उसकी लेखिका पर शिकायत भी दर्ज हुई
स्त्रीकाल के जिस पोस्टर पर विवाद हुआ और चर्चा हुई, उसमें लेखिका के विषय में सबसे रोचक बात यह है कि वह zee मीडिया के डीएनए में काम करती हैं और एक दिन twitter पर यह ट्रेंड भी हुआ @antihinduzeenews
और हिन्दू भावनाओं को आहत करने के लिए उनपर कई शिकायतें भी दर्ज हुईं। जिनमें यह कहा गया कि लेखक होने का यह अर्थ नहीं है कि आप हिन्दू देवी देवताओं के विषय में कुछ भी कहते रहें:
लोगों का गुस्सा ज़ी न्यूज़ पर भी निकला परन्तु इस बात का कोई भी उत्तर डीएनए की ओर से नहीं आया कि आखिर हिन्दुओं के आराध्यों के प्रति द्वेष और अल्पज्ञान तथा दुराग्रह रखने वाली महिला पर कोई कार्यवाही क्यों नहीं की या फिर डीएनए या ज़ी नेटवर्क में काम करने से कोई विशेषाधिकार प्राप्त है?
जब लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर पर कार्यवाही हो सकती है क्योंकि उसने प्रभु श्री राम के विषय में अपशब्द कहे थे तो वही कदम ज़ी मीडिया द्वारा नहीं उठाया गया? लोगों ने प्रश्न पूछे? परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दुओं की बात करने वाला ज़ी मीडिया इस विषय पर मौन है!
कथित वैचारिकी से लेकर बाजार तक एक ही उद्देश्य है और वह है सबसे पहले परिवार पर प्रहार, फिर धर्म पर और फिर अंतत: देश पर प्रहार!
दुर्भाग्य की बात यह है कि गृहशोभा जैसी पत्रिकाएँ जहाँ हमारे घरों का हिस्सा हैं तो वहीं हंस, स्त्रीकाल, पाखी आदि वैचारिकी का दावा करते हुए कथित साहित्य एवं साहित्यिक मंचों पर एकाधिकार स्थापित किए हुए हैं।
जहाँ पर प्रकाशित होना लोग अपना सौभाग्य मानते हैं क्योंकि सरकार भले ही बदल गयी है, परन्तु साहित्यिक मंचों में और कॉलेज वगैर में लिट् फेस्ट होते हैं, उनमें किसे बुलाया जाए, वह यही लॉबी तय करती है जो राम और कृष्ण को कोसती है, इतिहास में हिन्दू पुरुषों को सबसे अधिक क्रूर और हिन्दू स्त्रियों को अनपढ़ मानती है और विदेश की गुलामी मानसिकता का शिकार है।
यही प्रश्न बार-बार उठता है कि क्या हिन्दुओं के भाग्य में साहित्य में भी छल ही लिखा है?
#antihinduhindiliterature, antifamilyhindiliterature
बहुत ही सतही सोच,छिछला लेखन। ना साहित्य की समझ,ना समाज की।