भारत के बारे में एक कहावत आम है। यहाँ तीन चीजे ही चलती हैं। राजनीति, फ़िल्में और क्रिकेट। भारत दरअसल एक ‘तिराहा’ है, जहाँ चौथी राह होने की संभावना अभी तो नज़र नहीं आती। हालाँकि हमेशा से ऐसा नहीं था। कभी इस तिराहे में ‘क्रिकेट’ की जगह ‘हॉकी’ हुआ करता था। हॉकी में विश्व का सिरमौर बने हमें कई दशक बीत गए और अब तो हम क्रिकेट के मारे, हॉकी विश्व कप में जीत का सपना भी नहीं देखते। भारत में हॉकी का उदय उस समय हुआ जब हम गुलाम थे। 1928, 1932, 1936 और 1948 के ओलम्पिक में ‘सोना’ जीतने के बाद हमने 1975 में पाकिस्तान को हराकर विश्वकप भी जीत लिया। इसके बाद हॉकी हमारे घरों और दिल से दूर होती चली गई। हॉकी का एक ऐसा ही सितारा था, जिसका जिक्र करना आज आवश्यक हो गया है।
तीस के दशक में एक हॉकी का खिलाड़ी हुआ करता था। हॉकी के लिए दीवाना था एनएन मुखर्जी। मुखर्जी को प्यार से ‘हबुल’ कहा जाता था। हाबुल ने 1928, 1932 और 1936 के ओलम्पिक में बतौर खिलाड़ी हिस्सा लिया था। वह ‘हॉकी के जादूगर’ ध्यानचंद के साथ भी मैदान पर खेल चुका था। हबुल ध्यानचंद की तरह अत्यंत प्रतिभाशाली था। मैदान में उसकी रनिंग कमाल की थी। ध्यानचंद ने खुद हॉकी की कई बारीकियां हबुल से सीखी थी। 1936 के ओलम्पिक के फ़ाइनल में मैदान पर फिसलन हो गई तो मुखर्जी ने अपने कप्तान ध्यानचंद के साथ नंगे पैर खेलकर देश को जीत दिलाई थी।
जब 1948 का ओलम्पिक नजदीक आया तो मुखर्जी खुद हॉकी फेडरेशन के पास गया। मुखर्जी ने उनसे लगभग भीख मांगते हुए हेड कोच के पद की मांग की। मुखर्जी ने वादा किया कि वह भारत को गोल्ड मैडल दिलवाएगा। उसके लिए ये सोने का पदक इसलिए महत्वपूर्ण था क्योकि पहली बार स्वतंत्र भारत ओलम्पिक में हिस्सा लेने जा रहा था। अंग्रेज़ों को सबक सिखाने का मौका मुखर्जी हाथ से नहीं जाने देना चाहता था। इसके बाद मुखर्जी ने कोच रहते हुए अगले तीन ओलम्पिक खेलों में भारत को सोना दिलवाया। लगातार छह बार सोना जीतने का ये कीर्तिमान आज की पीढ़ी को अविश्वसनीय लगेगा लेकिन ऐसा जादू हम अतीत में कर चुके हैं।
1996 में भारत का ये महान खिलाड़ी बिना किसी शोर-शराबे के चुपचाप ये दुनिया छोड़ गया। देश को तीन बार सोना दिलवाने वाले हबुल दा ने गुमनामी और गरीबी में दम तोड़ दिया। आज यदि आप हबुल दा के बारे में जानने की कोशिश करेंगे तो बहुत कम जानकारी मिल सकेगी। हॉकी फेडरेशन ने अपने महान खिलाडियों के साथ बेहद अपमानजनक व्यवहार किया है। आज हबुल दा चर्चा में हैं तो एक फिल्म के कारण। 15 अगस्त को प्रदर्शित होने जा रही ‘गोल्ड’ फिल्म में अक्षय कुमार का किरदार एनएन मुखर्जी पर ही आधारित है।
निर्देशक रीमा कागटी की इस फिल्म की पृष्ठभूमि 1948 के ओलम्पिक पर आधारित है। अब आपको ये जानकर और भी हैरानी होगी कि फिल्म में कहीं भी मुखर्जी का नाम ही नहीं आता। अक्षय कुमार के किरदार का नाम ‘तपन दास’ बताया गया है। निर्देशक का कहना है कि 1948 के ओलम्पिक से प्रेरणा लेकर उन्होंने एक काल्पनिक फिल्म बना डाली है। सच्ची घटनाओं से प्रेरणा लेकर काल्पनिक फिल्म का निर्माण करना क्या होता है? जब आप भारतीय हॉकी के नायकों का सम्मान करने के लिए फिल्म बना रहे हैं तो उनके किरदारों के नाम काल्पनिक क्यों रखे गए हैं?
सिर्फ कोच ही नहीं बल्कि फाइनल मैच में शानदार प्रदर्शन करने वाले खिलाडियों के नाम भी बदल दिए गए हैं। कप्तान कृष्णलाल के किरदार का नाम बदल दिया गया है। उप कप्तान केडी सिंह बाबू, शानदार प्रदर्शन करने वाले बलबीर सिंह सीनियर के किरदार का नाम बदला गया है। क्या ऐसा करने से हमारे नायकों को सम्मान मिल जाएगा। रीमा कागटी ने ऐसा करके दर्शा दिया है कि दर्शक की भावनाओं के साथ खेलकर बस बॉक्स ऑफिस पर सफलता चाहती हैं। असली नायकों को सम्मान मिले, ये वे नहीं चाहती थीं। अजीब विडंबना है। 15 अगस्त को ये फिल्म प्रदर्शित होगी। उन जांबाज खिलाडियों के कारनामे परदे पर देखकर दर्शक गौरवान्वित होगा लेकिन वह न मुखर्जी का नाम जान सकेगा, न बलबीर सिंह का।
गोल्ड निःसंदेह एक अच्छी फिल्म प्रतीत हो रही है और अक्षय कुमार का स्टार पॉवर इसे बिना बाधा बॉक्स ऑफिस पर विजय श्री दिलवा सकता है। अक्षय कुमार की तगड़ी फैन फॉलोइंग के चलते धमाकेदार ओपनिंग मिलना भी तय है। हॉकी की बेचारगी देखिये कि उसके नायकों का गुणगान भी परदे पर नाम बदलकर होने वाला है। रीमा कागटी से मेरा एक ही सवाल है। ‘एनएन मुखर्जी’ और बाकी खिलाडियों ने तो देश का नाम ही रोशन किया था या उन्होंने कोई बड़ा अपराध कर दिया था, जो उनके नाम फिल्म में बदल दिए गए हैं। सच की आंच पर ‘ख्याली पुलाव’ पकाना और खाकर निकल जाना इसे ही कहते हैं।
देखिये गोल्ड फिल्म का ट्रेलर:
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