विपुल रेगे। तमिल सुपरस्टार थलापति विजय की ‘लियो’ टिकट खिड़की पर शेर की मानिंद दहाड़ रही है। रिलीज होने के बाद से ‘लियो’ आलोचनाओं भरी समीक्षाओं का सामना कर रही है लेकिन उसके कलेक्शन दीपावली के रॉकेट की भांति आकाश में जाते दिखाई दे रहे हैं। ये थलापति का स्टार पॉवर है। तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम में रिलीज हुई ‘लियो’ को आलोचनाओं के बावजूद दर्शकों की कोई कमी नहीं हो रही है। एक आम आदमी के अपने परिवार को बचाने के संघर्ष की इस कथा को दर्शक ने हाथों-हाथ लिया है। हालाँकि हिन्दी पट्टी पर थलापति की दहाड़ कुछ कम सुनाई दे रही है।
लोकेश कनगराज तमिल सिनेमा के एक समृद्ध हस्ताक्षर माने जाते हैं। उनकी सिनेमेटिक यूनिवर्स ‘लोकेश सिनेमेटिक यूनिवर्स’ के नाम से विख्यात है। इस यूनिवर्स का अपना विकिपीडिया पेज भी है। लोकेश की ‘लियो’ पार्थिबन की कहानी है। पार्थिबन हिमाचल प्रदेश के छोटे से कस्बे में अपना कैफे चलाता है। उसका एक परिवार है और वह आम जीवन जी रहा है। उस शांत से कस्बे में वहां के कलेक्टर की हत्या हो गई है। हत्यारे उसी कस्बे में घूम रहे हैं। एक रात उनमे से एक पार्थिबन के कैफे में कॉफी पीने चला जाता है। उस रात के बाद पार्थिबन और उसके परिवार का जीवन अशांत हो जाता है। अनजाने में बहुत शरीफ और सौम्य पार्थिबन अनजाने में एक बहुत ही ताकतवर गैंगस्टर से टकरा बैठा है। पार्थिबन का एक अतीत है, जो खून के छींटों से भरा हुआ है।
लोकेश कनगराज की ‘लियो’ कहानी के धरातल पर कमज़ोर रह गई है लेकिन दर्शक से मनोरंजन के वायदे को वह सौ फीसदी पूरा करती है। कहानी के ज़ोर की कमी को बेहतरीन एक्शन और थलापति के मैनरिज़म से भरने की कोशिश सफल रही है। लोकेश का स्टोरी ट्रीटमेंट इतना बेहतरीन होता है कि किसी भी कमी को वे दूसरे ढंग से पूरा कर देते हैं। पहला हॉफ बहुत मनोरंजक है लेकिन दूसरे हॉफ में पेस कुछ कम पड़ जाता है। फिल्म की यूएसपी की बात करे तो लकड़बग्घे से लड़ने वाला दृश्य, कैफे में अपराधियों से मुठभेड़, लियो का अतीत और अंत में कार चेज के दृश्य पैसा वसूल हैं। दर्शक जब हॉल से बाहर आता है तो फिल्म को विभक्त करके नहीं देखता। वह फिल्म के समग्र प्रभाव को महसूस करता है।
इस पैन इंडिया फिल्म में थलापति के सामने संजय दत्त को लीड भूमिका में रखा गया है। इस तमिल फिल्म के लिए संजय दत्त ने अपना संपूर्ण दिया है। एंटोनी दास की भूमिका में संजू ने दक्षिण के अभिनेताओं को कड़ी टक्कर दी है। संजय दत्त और थलापति का कंट्रास्ट परदे पर जंचता है। पार्थिबन की पत्नी सत्या का किरदार त्रिशा ने अदा किया है। हालांकि उनके जैसी सशक्त अभिनेत्री के हाथ में अधिक सीन नहीं आए हैं। संगीत अनिरुद्ध रविचंदर ने दिया है, जो इतना प्रभावित नहीं करता।
बैकग्राउंड म्यूजिक ‘लोकेश सिनेमेटिक यूनिवर्स’ की एक बड़ी विशेषता है। ‘लियो’ में भी हमें बड़ा ही झन्नाटेदार इलेक्ट्रिफाइंग पार्श्व संगीत सुनने को मिलता है। फिल्म के साथ सबसे बड़ी समस्या इसका दूसरा भाग है, जिसमे बड़े जतन से बिल्डअप की हुई फिल्म झटके से बिखर जाती है। लोकेश इस भाग में अपना पेस बरक़रार नहीं रख सके। फिल्म की लम्बाई भी एक समस्या बनकर उभरती है। इसे एडिट कर बेहतर किया जा सकता था।
हालाँकि थलापति विजय के स्टार पॉवर और बेहद शानदार एक्शन दृश्यों के दम पर फिल्म ने सिर्फ दो दिन में विश्वव्यापी 207 करोड़ का कलेक्शन कर लिया है। भारत में इसने दो दिन में 100.05 करोड़ और ओवरसीज में लगभग 90 करोड़ का कलेक्शन कर लिया है। हिन्दी पट्टी की बात करे तो ‘लियो’ ने दो दिन में लगभग 5 करोड़ का कलेक्शन किया है। एक पैन इंडिया फिल्म के पैमाने पर ये डिसेंट शुरुआत कही जा सकती है।
‘लियो’ में रक्तरंजित दृश्यों की भरमार है। ये आपको विचलित कर सकते हैं। बच्चों को ये फिल्म नहीं देखनी चाहिए। हालांकि लोकेश की फिल्मों में आपत्तिजनक गर्म दृश्य नहीं होते। कुल मिलाकर आलोचनाओं का डटकर सामना कर रही ‘लियो’ का विजयी रथ इस सप्ताहांत तक तो टिकट खिड़की को रौंदता रहेगा।