‘मिशन मंगल का प्रमुख राकेश धवन और प्रोजेक्ट डायरेक्टर तारा शिंदे की टीम के युवा वैज्ञानिक होने के साथ सरकारी नौकर भी हैं। वे अपने काम को सुबह 9 से 5 की ड्यूटी मानते हैं, जबकि मंगल मिशन के लिए तो जुनूनी लोग चाहिए। एक दिन तारा उन सबको याद दिलाती है कि उनकी ज़िंदगी मे विज्ञान कब पहला प्यार बनकर आया था। कैसे एक जुनून ने उनको लैब में पहुंचा दिया था। तारा की कही बात टिपिकल सरकारी नौकर बन चुके उन वैज्ञानिकों को बचपन मे ले जाती है। एक वैज्ञानिक को याद आता है कि इंडिया टुडे पर छपा वैज्ञानिक कल्पना चावला का फुल साइज फ़ोटो देखकर उसके मन मे साइंटिस्ट बनने की इच्छा ने जन्म लिया था।’
मैं अब तक मानता आया था कि साइंस फिक्शन फिल्मों का हिंदी बॉक्स आफिस पर कोई भविष्य नहीं होता लेकिन स्वाधीनता दिवस के दिन मेरी ये धारणा बदल गई। अक्षय कुमार की ‘मिशन मंगल’ को दर्शकों की जबरदस्त सराहना मिली। न केवल मनोरंजन की दृष्टि से बल्कि मंगल मिशन को आसानी से समझा सकने के कारण इसे दर्शकों का भरपूर प्यार मिल रहा है। मैं विषय की जटिलता के कारण इस फ़िल्म की सफलता के प्रति आशंकित था। विचार था कि फ़िल्म निर्देशक जगन शक्ति इस विषय का सरलीकरण कर पाएंगे या नहीं।
फ़िल्म की शुरुआत में स्पष्टीकरण दे दिया गया कि फ़िल्म सीधे तौर पर इसरो के मंगल अभियान से प्रेरित नहीं है। निर्देशक ने मुख्य घटना को लेकर काल्पनिक कहानी में पिरोया है। ऐसा करने से निर्देशक के पास कहानी को अपने ढंग से बदलने की ताकत आ जाती है। इस फ़िल्म में मंगल मिशन की सिचुएशन काल्पनिक है। दर्शकों को पता होना चाहिए कि हमारा कोई मिशन 2010 में फेल नहीं हुआ था।
राकेश धवन की टीम की सबसे बड़ी चुनौती है कि मात्र 400 करोड़ में सेटेलाइट बनाकर मंगल तक ले जाना है और फ्यूल भी किफायत से इस्तेमाल करना है। टीम के सभी सदस्य मिलकर ऐसी सेटेलाइट बनाते हैं जो कम ईंधन में लक्ष्य हासिल कर ले।
निर्देशक की सबसे बड़ी सफलता ये है कि उन्होंने देश के सामने हमारे महत्वपूर्ण अंतरिक्ष अभियान की कहानी को मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया है। ये फ़िल्म रिलीज होने से पहले एक आम भारतीय नहीं जानता था कि इतने कम बजट में हम पहले प्रयास में ही मंगल तक जा पहुंचे। तारा शिंदे बताती है कि मंगलयान कैसे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकलेगा और मंगल की ओर बढ़ चलेगा।
अखरने वाली दो बातें हैं। एक तो साइंटिस्ट के बेटे को इस्लाम कबूल करने का शौक है और दूसरा इस टीम का एक वैज्ञानिक अंधविश्वासी है। ये दोनों ट्रेक न होते तो भी फ़िल्म की सेहत पर बुरा असर नही होता। एक हिन्दू वैज्ञानिक को मज़ाक का पात्र बताना सही नही है। फ़िल्म उद्योग को सोचना चाहिए कि इस देश मे सभी की भावनाएं आहत हो सकती हैं।
अक्षय कुमार के इस किरदार में कुछ नया करने की गुंजाइश नहीं थी। उन्होंने अच्छा अभिनय किया है लेकिन किरदार को ठीक से उकेर नहीं सके। विद्या बालन शानदार रही हैं। उनका किरदार सशक्त है। तापसी पन्नू को कम फुटेज मिला है। बाकी साथी कलाकार भी बेहतर रहे हैं।
मिशन मंगल की कामयाबी के दो कारण हैं। एक तो देश मे राष्ट्रीयता की लहर अब तक कायम है और दूसरा इस जटिल मिशन को निर्देशक ने आसानी से ‘होम साइंस’ की तरह दिखाया। दर्शक को न केवल कहानी समझ आई बल्कि मनोरंजन फ़िल्म के पेस को बरकरार रखने में कामयाब रहा। ये फ़िल्म खासतौर से बच्चों को दिखाई जानी चाहिए। हमारे देश मे वैज्ञानिक बनने से ज्यादा क्रिकेटर, अभिनेता और नेता बनने का क्रेज है। ऐसी फिल्में आती रहेंगी तो क्रेज ‘विज्ञान’ पर शिफ्ट होगा।
फिल्म मिशन मंगल ने अपने पहले दिन 29.16 करोड़ रुपये का कलेक्शन किया था। इसने अपने दूसरे 17.28 करोड़ रुपये का कमाए हैं। इसी के साथ फिल्म का कुल कलेक्शन 46.44 करोड़ रुपये हो गया है।