संतोष सिंह, अलीगढ़ उत्तर प्रदेश में नारायण दत्त तिवाड़ी ने कांग्रेस की जड़ें ऐसी खोद डालीं कि उनके बाद 1989 से अब तक वहां कांग्रेस का कोई नेता मुख्यमंत्री नहीं बन पाया. ठीक इसी तरह राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद भारतीय राजनीति में आये जबरदस्त परिवर्तन से बैकफुट पर चले गए नरेंद्र मोदी यह भली-भांति समझ गये हैं कि देश की जनता उनके नाम पर भाजपा को वोट देने वाली नहीं है, इसलिए वे चाहते हैं कि उनके बाद भाजपा का कोई नेता प्रधानमंत्री न बने ताकि उन्हें ‘जादुई जिताऊ नेता’ के तौर पर RSS-भाजपा में लंबे समय तक याद किया जाए.
मोदी के पराभव की शुरुआत हिमाचल से हुई जहां विधानसभा चुनाव में एक बागी नेता ने अपना नाम वापस लेने को मोदी के साथ हुई फोन-वार्ता को ठुकराते हुए सार्वजनिक कर दिया. राज्य में भाजपा की करारी हार हुई
उसके बाद कर्नाटक में कांग्रेस द्वारा बजरंग दल और सिमी को प्रतिबंधित करने की चुनावी घोषणा को मोदी ने ‘बजरंग बली’ बनाने की जो धूर्तता दिखाई, उस पर राज्य की जनता ने जरा भी ध्यान नहीं दिया. नतीजतन पोस्टरों से पहली बार मोदी को हटाकर पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की तस्वीर लगाने के बावजूद भी भाजपा को सत्ता गंवानी पड़ी.
उत्तर प्रदेश में घोसी विधानसभा उपचुनाव में पूरा केंद्रीय मंत्रिमंडल, चार राज्यों के मुख्यमंत्री व पार्टी अध्यक्ष तथा दर्जनों विधायक-सांसदों की अक्षौहिणी सेना उतारने के बाद भी मोदी की ऐतिहासिक हार हुई!
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में मिजोरम के मुख्यमंत्री ने तो मोदी को हाथ ही जोड़ लिये हैं कि ‘महाराज, चुनाव प्रचार के लिए आप हमारे राज्य में तशरीफ़ न लायें. आने की जबरदस्ती कर भी दोगे तो मैं आपके साथ एक ही मंच पर साथ बैठ नहीं सकूंगा.’
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और राजनाथ सिंह के साथ मोदी ने लंबे समय से 36 का आंकड़ा बना रखा है तो मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए ये दोनों क्षत्रप मेहनत क्यों करेंगे?
ओडिशा में नवीन पटनायक अपनी अलग ढपली बजाते हैं. वे एनडीए का हिस्सा जरूर हैं लेकिन प्रदेश की जनता में उनका ही सिक्का चलता है. मोदी वहां गौण हैं.
राजस्थान और मध्यप्रदेश में टिकटों के बंटवारे पर जैसा घमासान तथा जबरदस्त विरोध सड़कों पर दिखाई दे रहा है, उसकी उम्मीद मोदी को स्वप्न में भी नहीं रही होगी.
छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में भाजपा का सूपड़ा साफ होने के आसार दिखाई दे रहे हैं.
बंगाल में ममता बनर्जी के आगे मोदी की एक नहीं चलती.
दक्षिणी राज्यों में भाजपा वैसे ही कमजोर है.
किसान आंदोलनकारियों से माफी मांगने के बाद, MSP का वादा नहीं निभाने और फिर महिला पहलवानों के आंदोलन की अमानवीय ढंग से घनघोर उपेक्षा से, न सिर्फ जाटलैंड बल्कि पूरे देश में मोदी के खिलाफ वातावरण बना है.
रही-सही कसर मणिपुर के साथ शत्रुओं जैसे व्यवहार ने पूरी कर दी है।.
नूंह और गुरुग्राम में दंगा भड़काने की कोशिश नाकाम रही.
ताज़ा मामला इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध का है, जिसमें दशकों पुरानी विदेश नीति को लात मारकर खुद को वैश्विक नेता साबित करने की मूर्खता का परिचय देने के पांचवें दिन, विदेश मंत्री से फिलिस्तीन के समर्थन में न केवल बयान दिलवा दिया बल्कि हवाई जहाज में भरकर वहां दवाइयां व अन्य सामग्री भेजी, जिसका धक्का मोदी को लगा है.
सरकारी कर्मचारी पुरानी पेंशन को लेकर आक्रोशित हैं ही. व्यापारी वर्ग GST तथा बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों द्वारा सारा बिजनेस हड़प लेने से दुखी है. निम्न आय वर्ग महंगाई से जूझ रहा है. युवा बेरोजगारी से परेशान है.
महिलाओं को विधाई संस्थाओं में आरक्षण के प्रयास को राहुल गांधी ने OBC का मुद्दा उठाकर पलीता लगा दिया तो वह भी बूमरैंग कर गया है. रही-सही कसर जातिगत जनगणना ने पूरी कर दी है.
जिस तरह विपक्षियों और असहमतों के विरुद्ध CBI, ED और इनकम टैक्स के छापे डलवाये जा रहे हैं, पत्रकारों और लेखकों को फर्जी मुकदमे लगाकर जेल भेजा जा रहा है, उससे मोदी का तानाशाही रवैया खुलकर सामने आ गया है.
गोदी मीडिया ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है जिससे लोगों ने उसपर ध्यान देना बंद कर दिया है.
अब मोदी के कटखने अंधभक्तों की संख्या में भी तेजी से गिरावट आई है.
मोदी ने जिस तरह गुजरात में पार्टी के सभी बड़े नेताओं को ठिकाने लगा दिया, उसी तरह प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रोपेगंडा-तंत्र के जरिए ‘मोदी का कोई विकल्प नहीं’ की अवधारणा को मजबूत कर एक-एक कर सभी बड़े नेताओं को किनारे करते हुए अपना एकाधिकार कायम कर लिया. यहां तक कि RSS के प्रियपात्र नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह भी!
इससे पार्टी व RSS के भीतर मोदी के प्रति वितृष्णा का भाव भर गया है.
उधर I.N.D.I.A गठबंधन ताकतवर बनता जा रहा है. उसमें फूट डालने की कोशिशें परवान नहीं चढ़ रही हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि यदि मोदी 2024 में फिर से सत्ता पर काबिज हो गए तो देश का संविधान खत्म कर RSS-भाजपा का गुंडाराज क़ायम हो जाएगा. उसके सामने ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ जैसी स्थिति बन गई है.
ऐसे विभिन्न कारणों से मोदी और RSS को स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि चुनावी बाजार में मोदी एक खोटा सिक्का है जो अब प्रचलन से बाहर हो गया है.
स्थिति को विपरीत देखकर अब मोदी भी नारायण दत्त तिवाड़ी के नक्शे कदम पर चलते हुए ‘मैं नहीं तो कोई नहीं’ की चाल चल रहे हैं..