[दुःख निरोध की तीसरी सीढ़ी : बुद्ध/ व्याख्या ]
“सत्य आमतौर पर सुनाई नहीं, दिखाई देता है।”
-बालतेसर ग्रेशियन
कमलेश कमल। यह एक कारग़र जीवन सूत्र है, जिसका निहितार्थ है कि हमें अपने परिचितों, सगे-संबंधियों, सहकर्मियों या किसी को भी अपने शब्दों से प्रभावित करने की बचकानी कोशिश नहीं करनी चाहिए। हमारे कर्म, हमारी गरिमा, हमारी उपस्थिति और हमारी उपलब्धियाँ- ये सब भी बहुत कुछ कहते हैं, जिन्हें लोग सुन रहे होते हैं और जिन पर हमारे शब्दों से कई गुणा ज़्यादा भरोसा भी करते हैं।
एक मिनट के लिए यह मान भी लिया जाए कि कोई अपिरिचित व्यक्ति तत्काल हमारे शब्दों के प्रभाव में आ जाता है, तो भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वैज्ञानिक परीक्षणों से यह ज्ञात हुआ है कि मौखिक वार्तालाप (verbal communication) का प्रभाव अमौखिक (nonverbal communication) की तुलना में काफ़ी कम होता है। आप क्या हैं, इसका निर्धारण सिर्फ़ आपके शब्दों के आधार पर नहीं हो सकता या भविष्य में आप क्या करेंगे- यह जानकर भी नहीं हो सकता। आपने अब तक क्या कर लिया है- जो सबके सामने हो? यह तो प्रत्यक्ष ही होता है। इसमें शब्दों का क्या काम ??
एक अनुभवजन्य सत्य है कि लोग पहले ही आपकी हैसियत का एक अंदाज़ा रखते हैं, और उस हैसियत से उन्हें कितना मतलब है या हो सकता है- इसे जोड़कर आपको महत्त्व देते हैं। एक गाँव में तीन मित्र हैं जो साथ ही पढ़ाई करते थे- एक सरकारी क्लर्क है, दूसरा विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर है और तीसरा किसी मॉल में सेल्समेन है। अब तीनों एक दूसरे की हैसियत को जानते हैं और गाँव वाले भी उनकी हैसियत का एक अंदाज़ा बना चुके हैं। ऐसे में अपनी हैसियत क्या कुछ शब्दों से या व्यर्थ के तिकड़मों, झूठे प्रदर्शनों से बढ़ाने की कोशिश करना वाज़िब है?
इसी तरह हमें इससे क्या मतलब कि अल्बानिया या युगोस्लोवाकिया के राष्ट्रपति कौन हैं, कितने पढ़े लिखे हैं और कितने स्मार्ट हैं। तो, जिनसे मतलब नहीं, उनकी फ़िक्र छोड़िए। और जिनसे आपको मतलब है, अगर उन्हें आपसे मतलब नहीं, तो उन्हें भी छोड़िए; क्योंकि आप लाख सोच लें, वे आपके बारे में नहीं सोचेंगे।
ऐसे में बहुत कम लोग बचते हैं, जो आपके लिए सही में महत्त्वपूर्ण हैं। उन्हें भी व्यर्थ ही अपने शब्दों से या किसी तिकड़म से अपनी हैसियत ज़्यादा दिखाने से कहीं फ़ायदे का सौदा है ऐसे कर्म करना जिससे सच ही आपकी हैसियत बढ़ जाए। असली चीज में समय और श्रम का निवेश होना चाहिए। आभास होना आभासी दुनिया तक ही ठीक है। वास्तविक दुनिया में होना पड़ता है। होने में कर्म मायने रखते हैं, सिर्फ़ शब्द नहीं!
अगर बोलने से ही काम हो जाता तो टीवी पर बहस करते रहने वाले सदा सत्ता में होते, मंत्रिमंडल में रहते! पर नहीं, कर्म महत्त्वपूर्ण होते हैं। इसके साथ ही सामने वाला अपने मूड, आपके प्रति छवि और असुरक्षा की भावना के स्तर पर आपकी बातों को लेता है।
बात लोकव्यवहार की करें, तो किसी से कुछ कहलवाने के लिए भरोसे की बूटी पिलाई जाती है। अगर वक़्ता झूठ बोल रहा हो, तो उससे और कुछ उगलवाने के लिए भरोसे का नाटक किया जाता है। इसके विपरीत अगर कोई कुछ छिपाने की कोशिश कर रहा हो, तो उससे उगलवाने के लिए उसे अनदेखा किया जाता है। यह देखा गया है कि अनदेखा करने पर या उपेक्षणीय प्रतीत होने पर व्यक्ति असहज हो जाता है या उसे लगता है कि यह शायद उतनी महत्त्वपूर्ण बात नहीं और वह कुछ और उगल जाता है।
क्या आपने ग़ौर किया है कि स्पष्ट दिखाई पड़ने वाले सबूत पर बहस नहीं होती? कर्म स्पष्ट दिखने वाले सबूत की तरह होते हैं और शब्द किसी कर्म के इर्द-गिर्द ही टिक सकते हैं।
शब्दों की उपर्युक्त सीमा हमें यह नहीं कहती कि शब्द कम महत्त्वपूर्ण हैं, वरन् यह सीमा हमें आगाह करती है कि हमारे शब्द व्यर्थ न हों, अव्यर्थ रहें, इसके लिए इसका कर्म, व्यवहार और सत्य के अनुरूप होना अत्यावश्यक है। यही सम्यक्-वाक् है। सम्यक्-वाक् मतलब संतुलित वाणी, सरल, सहज, सटीक और सारगर्भित वाणी। वस्तुतः, शाब्दिक अभिव्यक्ति मन का आईना होती हैं। जिनके मन में कोई उलझाव नहीं, उनके विचार भी स्पष्ट होते हैं और कथन भी। जिनके विचार अस्पष्ट, उनकी बातें भी अस्पष्ट होती हैं।
देखा जाए तो लोकव्यवहार से जुड़ी दुनिया की तीन चौथाई मुसीबतें दूर हो जाएँ यदि लोग संतुलित होकर बोलने लगें। सम्यक्-वाक् का यही अभिप्रेत है। जहाँ जितना ज़रूरी है उतना ही कहना और जिस तरह कहना चाहिए उसी तरह कहना। ऐसा नहीं होने का ही परिणाम होता है कि लोग सफाई देते रहते हैं- मेरा मतलब यह नहीं था…मैं आपको ठेस नहीं पहुँचाना चाहता था…मेरी बात आप ठीक से समझ नहीं सके….आदि-आदि।
सम्यक्-वाणी का अर्थ कम बोलने से नहीं, उपयुक्त बोलने से है। आम तौर पर जितने से काम चल जाए उतना ही बोलना कम बोलना समझा जाता है- यह इस बात का सबूत है कि लोग आमतौर पर ज़्यादा ही बोलते हैं, इसलिए सम्यक् रूप से बोलना को कम बोलना मान लिया जाता है।
हमारा व्यक्तित्व बचपन से चली आ रही घटनाओं की अंतहीन शृंखला से निर्मित होता है। परवरिश से लेकर, अभाव, अतृप्ति और अपमान के घाव व्यक्तित्व में काम, क्रोध, लोभ आदि के कोष भरते रहते हैं। ये कोष जिनके ज़्यादा भरे होते हैं, उनमें सामान्यतः ज़्यादा बोलने की आदत होती है या अचानक से बहुत कम बोलने की आदत होती है।
कहा जा सकता है कि मध्यम वर्ग के निम्न आय वाले लोग या अतृप्त इच्छाओं वाले लोग बहुत ज़्यादा शब्द ख़र्च करते हैं। सम्यक्-वाणी का अभ्यास ऐसे लोगों से नहीं हो सकता।
सम्यक्-वाक् का अर्थ संतुलित रूप से बोलना तो है ही, इसका अर्थ है जब बोलना ज़रूरी नहीं हो, तो चुप रहना। मार्क ट्वेन ने इसे इस तरह कहा-
“जब आपके पास कहने के लिए कुछ नहीं हो, तो कुछ नहीं कहें। सरलता एक लम्बी, श्रमसाध्य पक्रिया की पराकाष्ठा है, चरम परिणति है, कोई आरंभिक बिंदु नहीं!’
तो, जब बोलने के लिए कुछ ख़ास न हो, तब चुप रह जाना सरलता भी है और बुद्धिमानी भी। इसे एक उदाहरण से देखें- रूस में निकोलस द्वितीय के समय एक व्यक्ति ने शासक का विरोध कर जनता में अपनी पहचान बना ली थी। किसी मामले में उसकी गिरफ़्तारी हुई और फाँसी की सजा सुनाई गई। फाँसी के लिए उसे जब लटकाया गया तो रस्सी टूट गई। इसे ईश्वरीय न्याय मान कर उसे छोड़ा जाना तय था। वह व्यक्ति ख़ुशी से झूम उठा और बोल गया- “देखा, यहाँ कुछ भी अच्छा नहीं है, एक रस्सी तक रूस में सही नहीं है।”
बात निकोलस तक पहुँची कि उस विद्रोही को छोड़ना होगा। निकोलस उदास था। भारी मन से वह मुक्तिपत्र पर हस्ताक्षर करने ही वाला था कि उसने पूछा, “वह कुछ बोल भी रहा था?” निकोलस को पता लगा कि उसने कहा कि रूसी रस्सी तक सही नहीं बनाते। निकोलस ने कहा- “हम उसे ग़लत साबित करेंगे!” और विद्रोही को ज़्यादा बोलने के कारण दुबारा फाँसी दी गई। सम्यक्-वाक् की महत्ता इससे स्पष्ट होती है।
‘सम्यक्-वाक्’ साधना की निशानी है, शक्ति की निशानी है। बात थोड़ी अटपटी लग सकती है, पर जिसे एक कम पढ़ा लिखा व्यक्ति काफ़ी घमंडी मानता है, मनोवैज्ञानिक उसे असुरक्षित मानते हैं। किसी व्यक्ति के चिड़चिड़ापन को, बात-बात पर गुस्सा करने को उसके नीचे काम करने वाले उसके मातहत उसकी शक्ति का प्रदर्शन या फ़िर अपमान करने की आदत मानते हैं, पर यह दरअसल कमज़ोरी की निशानी है।
अपने आस-पास वृद्ध, पागल, बीमार व्यक्ति आदि को देखें या घर में ही स्त्रियों को मासिक स्राव के दिनों में देखें! आपको समझ में आ जाएगा कि चिड़चिड़ापन कमज़ोरी से नाभिनाल जुड़ा है। तथ्य है कि सम्यक्-वाणी के अभ्यास से चिड़चिड़ापन भी दूर होता है और चिड़चिड़ापन पर नियंत्रण करने से हम सम्यक्-वाक् की ओर उन्मुख होते हैं।
सम्यक्-वाक् से जुड़ा एक तथ्य यह है कि अगर कोई व्यक्ति वाक्-संयम नहीं कर पा रहा है, तो वह निश्चय ही अपने आसपास ठीक से देख नहीं पाता है। इसे ऐसा समझें कि उसकी पहली सीढ़ी ‘सम्यक् दृष्टि’ ही स्पष्ट नहीं है। अर्थात् उसे पुनः पहली सीढ़ी पर जाकर पहले ठीक से देखना सीखना चाहिए । डिजरायली ने कहा है- mediocrity can talk; but it is for genius to observe. तो, सम्यक् दृष्टि ही अगर नहीं है, तो सम्यक्- संकल्प या सम्यक्-वाणी की बात बेमानी है।
हम भूल जाते हैं कि हमारी भाषा ही हमारी परिभाषा है, अतः हमें ठीक प्रकार इसे गढ़ना चाहिए। हमें स्मरण रहना चाहिए कि जैसे ज़ोर से वे बोलते हैं, जिन्हें सुनाई कम पड़ता है, वैसे ही ज़्यादा वे बोलते हैं जो कम सुनते हैं और कम अनुभव करते हैं।
शब्दों को सम्यक् बनाए रखने हेतु हमें अपनी संगति का भी ध्यान रखना चाहिए। आर्ष ऋषियों ने मौन व्रत की महिमा गाई है। व्यवहार में भी हम देखते हैं कि जैसे खिलाड़ियों के बीच रहने वाला खेलने लगता है, शिकायती लोगों के साथ रहने वाले शिकायती हो जाते हैं, वैसे ही गपोड़ियों की संगति मनुष्य को गप्पी बना देती है। हमें इस तथ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
मनोवैज्ञानिक रूप से देखें, तो गप्प जागरुकता के अभाव का परिणाम है। ज़्यादा बातचीत या गप्प में शामिल होना बताता है कि व्यक्ति की दिलचस्पी स्वयं में नहीं, कहीं और है। जी हाँ, समाचारपत्र, टीवी, गप्पें, व्यर्थ मुलाक़ातें अशांत मन का स्वयं से भागने का उपक्रम ही हैं। किसी गप्पी व्यक्ति का ध्यान से अवलोकन करें, तो आप पाएँगे कि गप्पी मन एक उथला पर जिज्ञासु मन होता है। उसे न स्वार्थी कहा जा सकता है और न ही परार्थी-परमार्थी कहा जा सकता है, बस बेकार, निठल्ला या बेचैन कहा जा सकता है।
बुद्ध जब सम्यक्-वाक् कहते हैं, तो इसमें सम्यक् श्रवण शामिल है; क्योंकि जो ठीक से, उचित रीति-से सुन ही नहीं सकता, वह भला ठीक-से बोल कैसे सकता है? अमूमन हमें लगता है कि हम ठीक-से सुन रहे हैं, पर ऐसा होता नहीं है। हम सब पूर्वाग्रहों, मान्यताओं, प्रतिरोधों के पर्दे के साथ सुनते हैं। वस्तुतः सुनना बहुत ही गहरी कला है। और उसमें भी सम्यक्/श्रवण के लिए तो हमें अपनी सभी मान्यताओं, पूर्वाग्रहों आदि को बाहर रखना ही पड़ता है। श्रोता द्वारा उच्चरित शब्दों का तभी सही निहितार्थ निकल सकता है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सम्यक्-वाक् का अर्थ है शब्दों का सम्मान करना,उन्हें यथेष्ट महत्त्व देना, सोच-समझ कर उनका प्रयोग करना। शब्द को ब्रह्म, परंब्रह्म, अनित्य, भगवन्नाम, आकाश-संभूत आदि न जाने कितने विशेषणों से अभिहित किया गया है पर प्रयोग करते समय हम भूल जाते हैं और अनावश्यक रूप से इसे खर्च कर देते हैं। सदा संतुलन बना रहे, इसका होश रहे तो हम सम्यक्-वाक् को साध लेते हैं।
नोट– दुःख पर मेरे द्वारा लिखे 32 मनोवैज्ञानिक निबंधों में से एक महत्त्वपूर्ण और चर्चित निबंध।