“एक बार चुनि कुसुम सुहाए, निज कर भूषन राम बनाए,
सीतहिं पहिराए प्रभु सादर, बैठे फटिका सिला पर सुन्दर!”
वनवास में सीता का ह्रदय श्रृंगार का हो रहा है और प्रभु मंद मंद मुस्करा रहे हैं, जैसे मानो कह रहे हों कि कहा तो था कि वही रह जाओ, महल में, आभूषण पहनी रहो! उधर सीता जी कह रही हैं कि पत्नी की इतनी भी इच्छा पूरी न होगी! राम अपनी सीता के लिए सब कुछ कर सकते हैं। वह अनुपम प्रेमी और पति हैं। वह अपनी प्रिया की आँखों में अश्रु नहीं देख सकते। फिर उन्होंने अपने हाथों से पुष्पों को चुना और अपनी प्रिया के लिए बना डाले आभूषण। वह अपनी प्रिया को मुग्ध भाव से और प्रीति से देख रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे सम्पूर्ण विश्व का समस्त सौन्दर्य इन दोनों में समा गया है। स्वर्णाभूषण भी कभी प्रिय के हाथों से बने आभूषणों का स्थान ले सकते हैं।
तभी जयंत कौवे का रूप धरकर सीता जी के चरण में चोंच मारकर भागता है। पति के रहते पत्नी को कोई कौवा भी चोंच मार जाए, यह पति के लिए सबसे बड़ा अपमान है। पत्नी की रक्षा करना पति का प्रथम कर्तव्य है। राम को सीता प्राणों से अधिक प्यारी थीं। वाल्मीकि भी कहते हैं कि राम सीता पर आसक्त थे तथा उन्हें बहुत प्रेम करते थे।
प्रिया तु सीता रामस्य दारा: पितृकृता इति,
मनस्वी तदगतमना नित्यं हृदि समर्पित:
अब ऐसी प्रिया के पैर में कोई चोंच मार कर चला जाए तो भला राम कैसे सहन कर सकते हैं? राम जैसे स्वयं से कहते हैं “एक पति का कर्तव्य है कि अपनी पत्नी के पैरों में कांटे तक न चुभने दे और तुम्हारे ही सम्मुख तुम्हारी पत्नी के पैरों में चोंच मारकर चला गया। बस यही रक्षा है तुम्हारी?” वन में राम पति राम हैं, वह राजा नहीं हैं। वह यहाँ पर अपनी पत्नी के बालों में पुष्प लगा सकते हैं, वह अपनी प्रिया को दिन भर मुग्ध भावों से निहार सकते हैं, और उसकी हर इच्छा की पूर्ति कर सकते हैं। उन्होंने क्रोधित होकर धनुष पर सींक का बाण जोड़ा, एवं जैसे ही वह मन्त्र वाला ब्रह्म बाण आगे बढ़ा, मूर्ख जयंत को अपनी भूल का अनुभव हुआ। उसे कहीं आसरा नहीं मिला, उसके पिता इंद्र ने भी उसे शरण नहीं दी, न ही कैलाश में उसे शरण मिली, फिर अंतत: नारद मुनि की सलाह के बाद वह राम की शरण में गया, क्षमा याचना की। राम ने एक क्षण को जानकी की ओर देखा, जैसे पूछ रहे हों क्षमा किया जाए! जानकी तो पूरे जगत की माँ हैं, भला इस कृतघ्न जयंत पर क्यों कुपित होंगी। राम और सीता दोनों ने उसे क्षमा कर दिया।

जंगल के प्रेमी राम अपनी प्रिया की रक्षा हर कीमत पर करना चाहते हैं और उन्हें प्रसन्न भी रखना चाहते हैं। तभी तो शूपर्णखा जब सीता जी पर झपटती है तब हैरान से राम और लक्ष्मण समझ नहीं पाते एवं राम अपनी प्रिया तक उस राक्षसी के पहुँचने से पहले ही उसे दंड दे देते हैं।
राम का प्रेमी रूप उस समय सबसे उच्चतम स्तर पर परिलक्षित होता है जब मारीच स्वर्ण मृग रूप रखकर आता है एवं सीता उसे पाने की हठ कर बैठती हैं। राम अपनी प्रिया का जी नहीं दुखाते एवं यह समझते हुए भी कि यह राक्षस हो सकता है, वह अपनी पत्नी की इच्छा पूरी करने के लिए निकल जाते हैं,
रावण द्वारा सीता हरण के पश्चात जब वह आते हैं और जानकीहीन कुटिया देखते हैं तो वियोग से भर जाते हैं। वह तो भगवान हैं, उनके अश्रु क्यों आएँगे? परन्तु उन्होंने मानव जन्म लिया है और मानव जन्म में वह रोते भी हैं। वह अपनी प्रिया को न पाकर रोते हैं
“हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता।।
लछिमन समुझाए बहु भाँती। पूछत चले लता तरु पाँती।।
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।।
खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना।।
वाल्मीकि भी राम की इस दशा का वर्णन करते हुए लिखते हैं
यत्नान मृगयमाणस तु नाससाद वने परियाम
शॊकरक्तेक्षणः शॊकाद उन्मत्त इव लक्ष्यते
अर्थात जब श्री राम चन्द्र जी ने यत्न पूर्वक ढूँढने पर भी उस वन में अपनी प्यारी सीता को न पाया तब शोक के मारे उनकी आँखें लाल हो गईं एवं शोक के मारे वह उन्मत्त की तरह हो गए।
राम अपनी प्यारी सीता के लिए व्याकुल हैं। हाय, जिन्हें अग्नि को साक्षी मानकर ब्याह कर लाए थे वह कहाँ चली गई, कौन ले गया। और क्या वह नदी तक गयी हैं? नहीं नहीं, वह मुझसे विनोद कर रही हैं, अभी यहीं से कहीं से प्रकट हो जाएँगी। पंरतु वह मेरे भोजन की चिंता करती हैं, यूं परिहास नहीं! और राम अपनी पीड़ा में घुले जा रहे हैं।
हाय सीते, हाय सीते, कहते कहते वह एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष जा रहे हैं।
वृक्षाद वृक्षं परधावन स गिरींश चापि नदीन नदीम
बभूव विलपन रामः शॊकपङ्कार्णवप्लुतः
अस्ति कच चित तवया दृष्टा सा कदम्बप्रिया परिया
कदम्ब यदि जानीषे शंस सीतां शुभाननाम
राम शोक के सागर में डूब गए हैं, वह यह जानते हैं कि पहाड़ उत्तर नहीं देंगे, परन्तु वह पहाड़ों से उत्तर चाह रहे हैं? वह एक एक वृक्ष से पूछ रहे हैं कि हे वृक्ष तुम ही बता दो कि मेरी प्रिया कहाँ हैं?
वह विलाप करते हुए कह रहे हैं कि हे कदम्ब वृक्ष! तुम्हारे पुष्पों पर तो मेरी प्रिया का विशेष अनुराग रहता था, क्या तुम्हें भी ज्ञात नहीं है कि वह कहाँ है? क्या तुम्हें भी नहीं ज्ञात है कि मेरी प्रिया शुभानना सीता कहाँ है?
प्रकृति ने अब तक राम की वीरता देखी थी, प्रकृति ने अब तक राम की सौम्यता देखी थी, पर अब जगत प्रेमी और पति राम की पीड़ा देख रहा था, प्रकृति हतप्रभ थी कि एक पुरुष जो अपने आयुध से सागर को सुखाने की क्षमता रखता है, वह प्रेम में इतना व्याकुल हो सकता है?
परन्तु अभी तो राम का प्रेमी रूप प्रकृति को और जगत को देखना था, यह तो आरम्भ था……………………. परिणाम शेष था।
प्रेम में राम हो जाना सहज कहाँ है?