विपुल रेगे। नब्बे का दशक संगीत प्रेमियों के लिए एक विशेष कालखंड की भांति रहा है। इस दशक में उदित नारायण, कुमार सानू, सोनू निगम और अभिजीत ने मेलोडी को ख़त्म होने से बचाए रखा था। ये वही समय था जब दक्षिण से ए.आर.रहमान की हिन्दी संगीत में एंट्री हो चुकी थी। कुमार सानू जब बॉलीवुड में आए, उनका कोई गॉडफादर नहीं था। और बॉलीवुड में आपका कोई गॉडफादर न हो तो राहें अत्यंत कठिन हो जाती है। सानू के कॅरियर को उठाने में एक नामी सहृदय कलाकार का योगदान रहा था। कुमार सानू को यदि रेशमी आवाज़ वाले लेजेंड जगजीत सिंह ने नहीं सुना होता तो आज ज़माना कुमार सानू की ‘आशिकी’ नहीं सुन रहा होता।
फिल्म उद्योग में हर नए कलाकार को बहुत तकलीफें झेलनी पड़ती है। स्वयं को सिद्ध करने का संघर्ष होता है, साथ ही महानगरी में रात को भूखा न सोना पड़े, इसके लिए बहुत सी कवायद करनी पड़ती है। जो युवा आज मुंबई में अपने दुर्भाग्य से दो-दो हाथ कर रहे हैं, वे जान सकते हैं कि माया नगरी में सर्वाइवल की कीमत क्या होती है। ऐसे ही दुःख कुमार सानू ने भी झेले। केदारनाथ भट्टाचार्य उर्फ़ कुमार सानू आज 66 वर्ष के हो चुके हैं। कुमार सानू की उपलब्धियां जानना हो तो उससे पहले भारत के संगीत का मूड भी जानना आवश्यक है। भारत में संगीत के दो मूड चलते हैं। दोनों ही मूड फिल्म संगीत के हैं।
भारत के शहरों में संगीत का मूड तेज़ी से बदलता है। हर सप्ताह नई फिल्मों के गीत पुरानों की जगह ले लेते हैं। लेकिन गाँव-देहात में मूड अलग तरह का होता है। इस समय देहात की ओर जा रही किसी बस में कुमार सानू का ‘सांसों की ज़रुरत है जैसे’ बज रहा होगा। कुमार सानू कलकत्ते में पैदा हुए। पैतृक घर कभी बांग्लादेश के ढाका में था। पिता पशुपति संगीतज्ञ थे। सो संगीत सानू के रक्त में बहा करता था। अस्सी के दशक में गायन की शुरुआत हुई। सानू ने सन 1983 में एक बांग्लादेशी फिल्म ‘तीन कन्या’ के लिए पहला गीत रिकॉर्ड किया। लगभग इसी समय पर भारत में गुलशन कुमार की टी -सीरीज का कारोबार बढ़ने लगा था।
यहाँ गुलशन कुमार की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण है। जब कुमार सानू को इंडस्ट्री में कोई नहीं जानता था, ऐसे समय पर गुलशन ने उनसे किशोर कुमार के गीत गवाएं और उनके एल्बम निकाले। जब लोगों ने ये गीत सुने तो वे भी हैरान हो गए क्योंकि शुरुआत में सानू पूरी तरह किशोर कुमार की कॉपी किया करते थे। इस बहाने संगीत के सुनकारों को पता चला कि इंडस्ट्री में एक नई आवाज़ आई है। हालांकि प्लेबैक सिंगर का तमगा पा लेना इस इंडस्ट्री में बहुत ही टेढ़ी खीर थी। अस्सी का दशक बीत चुका था। लेजेंड गायक मोहम्मद रफ़ी का 1980 में निधन हो चुका था। महान गायक किशोर कुमार अब अपने ढलान पर थे।ऑल टाइम ग्रेट गायक मुकेश 1976 में ही जा चुके थे।
कुमार सानू के पदार्पण से पूर्व इंडस्ट्री में सुरेश वाडकर, जगजीत सिंह, मनहर उधास, शब्बीर कुमार, शैलेन्द्र सिंह आदि गायकों का बोलबाला था। ऐसे समय पर जब सानू मुंबई आए तो जीवन यापन के लिए स्टेज शो करते रहे। स्टेज शोज और होटलों में अक्सर वे किशोर कुमार की यूडलिंग किया करते, उनके गीत गाते। जगजीत सिंह और कुमार सानू के मिलने का किस्सा दिलचस्प है। जगजीत वे शख्स हैं, जो नए गायकों को हमेशा प्रमोट किया करते थे। कुमार सानू के ऐसे कई इंटरव्यू हैं, जिनमे उन्होंने जगजीत का साथ मिलने की बात कही है। बात तब की है, जब वे एक स्टूडियो में किशोर कुमार के गानें रिकार्ड कर रहे थे। उसी स्टूडियो में जगजीत भी अपनी ग़ज़लें रिकॉर्ड कर रहे थे। जगजीत ने एक बार उनके गीत सुने और बहुत प्रभावित हुए। जब सानू ने उन्हें स्टूडियो में देखा तो सीधे जाकर चरण स्पर्श कर लिए।
जगजीत ने उन्हें अगले दिन अपने घर आने के लिए कहा। जब वे अगले दिन उनके घर पहुंचे तो एक अलग ही मज़ेदार किस्सा हुआ। जगजीत के घर बहुत से पालतू कुत्तों ने सानू को घेर लिया। सानू जगजीत के ड्राइंग रूम में रखे संगीत इंस्ट्रूमेंट बजाना चाहते थे लेकिन कुत्तों ने उन्हें छूने ही नहीं दिया। फिर जगजीत ने अपने ढंग से कुमार सानू की आवाज़, उनका पेस और थ्रो का पूर्ण परीक्षण किया। संतुष्ट होने पर जगजीत उन्हें कल्याणजी-आनंद जी के पास ले गए। इन दोनों प्रसिद्ध संगीत निर्देशकों को भी सानू की आवाज़ पसंद आ गई। जिस फिल्म के लिए सानू को पहला ब्रेक मिला था, उसका नाम था ‘आंधियां’, हालांकि ये फिल्म पूरी नहीं हो सकी और एक प्लेबैक सिंगर के रुप में उनका पदार्पण होते-होते रह गया। हालांकि तब तक जगजीत जी की कोशिशों से सानू का नाम और काम और संगीत निर्देशकों तक पहुँच चुका था।
इसके बाद उन्हें महेश भट्ट की ‘आशिकी’ मिली और फिर जो बना वह इतिहास है। ‘आशिकी’ की हैरतअंगेज़ सफलता ने सानू को एक कैसेट की शक्ल में घर-घर पहुंचा दिया। जब नब्बे का दशक शुरु हुआ तो उसके चमकीले सितारों में सबसे चमकीला सितारा कुमार सानू ही थे। सानू के साथ एसपी बाल सुब्रमण्यम, अभिजीत और उदित नारायण ने नब्बे के दशक को मेलोडी से भर दिया। हर दशक के भाग्य में कहाँ इतनी मेलोडी होती है। अब हम एक कानफोड़ू दौर से गुज़र रहे हैं, जहाँ कभी-कभी कोई अरिजीत, कोई श्रेया घोषाल चले आते हैं और मन कुछ भर जाता है लेकिन मेलोडी की जो बाढ़ नब्बे में आई, वैसी तो अब बूंदाबांदी भी नहीं होती।