मूवी रिव्यू : पगलैट
विपुल रेगे। संध्या के पति की मौत हो चुकी है। घर में शोक का वातावरण है लेकिन संध्या के कमरे में ऐसा नहीं है। संध्या व्हाट्सएप पर मैसेज पढ़ रही है। वह ऐसे मौके पर चिप्स और पेप्सी की मांग करती है। ये एक नया भारत है। ये नवभारत हमें निर्देशक उमेश बिस्ट के चश्मे से दिखाया जाता है। एक तर्क को स्थापित करने के लिए वे कई तर्क गढ़ते हैं। बड़ी ही बारीक़ी से वे ये जस्टिफाई करने में सफल रहते हैं कि हिन्दू परिवेश के विवाह असंवेदनशीलता के वाहक हैं। इस परिवेश की मान्यताएं बेकार हैं। यहाँ तक कि अंतिम संस्कार की विधियां भी आडंबर है।
इस मुद्दे पर Sandeep Deo का Video
एक फ़िल्मकार अपनी कृति के द्वारा एक विचार प्रस्तुत करता है। उमेश बिस्ट का विचार एक ऐसी महिला का विस्तार है, जिसे अपनी पति की मृत्यु की संवेदनाओं का अनुभव नहीं हो पा रहा है। निर्देशक बताता है कि इसके पीछे उसके पति आस्तिक का शुष्क व्यवहार रहा है। संध्या स्वयं को उसकी पत्नी के रुप में स्वीकार नहीं कर पा रही है।
इसलिए वह पति की मौत के दूसरे दिन अपनी दोस्त के साथ गोलगप्पे खाने चली जाती है। तथाकथित प्रगतिशीलों को ऐसे दृश्य बहुत पसंद आते हैं। शायद इसलिए ही अंग्रेजी भाषाई मीडिया ने इस फिल्म की तर्कपूर्ण समीक्षा न करते हुए, प्रशंसा के गीत गाए हैं। निर्देशक ने तर्कों के इस मांझे को भावनात्मक रुप से उलझा दिया है।
वह चाहता है कि आप नायिका की जीत देखे, तर्क न देख पाए। हिन्दी फिल्मों की विशेषता होती है कि कहानी के मुख्य पात्र को विशेष रुप से रेखांकित करने के लिए उसके आसपास के पात्र बुरे और नैतिकताहीन दिखाए जाते हैं ताकि मुख्य पात्र परदे पर और उभरकर आए। जिस घर में मृतक का संस्कार हो रहा है, वहां एक वृद्ध छत पर शराब पी रहा है।
गमी में आए दो परिवारों के चचरे भाई-बहन में प्रेम संबंध बन जाते हैं। लड़की लड़के से कहती है ‘हम टेक्निकली तो भाई-बहन हैं ना’। संध्या की मुस्लिम दोस्त उसके घर आई है। वहां उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है। संध्या बाज़ार में गोलगप्पे खाने जाना चाहती है, लेकिन उसकी ये दोस्त नाज़िया घबराती है। निर्देशक दिखाना चाहता है कि हिन्दू परिवेश में पली-बड़ी ये कन्या संस्कारों से बहुत कमज़ोर है लेकिन उसकी दोस्त नाज़िया को उसके संस्कारों का ख्याल है।
निर्देशक ने एक हिन्दू परिवार की तस्वीर का ऐसा ख़ाका खींचा है, जो इस परिवेश की मान्यताओं को ध्वस्त करता दिखाई देता है। निर्देशक के इस तर्क से मुझे गहन आपत्ति है कि उसने पति-पत्नी के संबंध को इतना शुष्क बना दिया कि पति की मृत्यु पर शोक मनाने आई उसकी दोस्त को वह कहती है कि फेसबुक पर उसके पति की मौत के समाचार को ढाई सौ लाइक मिले हैं।
जिस दिन आस्तिक की अस्थियां बहाई जाती है, उस दिन संध्या कहती है कि मैंने उसे माफ़ कर दिया। निर्देशक ये जस्टिफाई नहीं कर पाते कि उसके पति ने ऐसी कौनसी गलती कर दी थी, जिसके लिए उसे माफ़ किया गया है। कुछ लोग लिख रहे हैं कि विधवा के प्रति सामाजिक व्यवहार को लेकर ये फिल्म तय सामाजिक मानदंडों पर प्रहार करती है।
एक फिल्म ये कैसे तय करेगी कि विधवा के प्रति सामाजिक व्यवहार के मानदंड क्या हैं। किसी घर में निधन हो जाता है तो उसके संपूर्ण परिवार को एक परिवर्तन से गुज़रना पड़ता है। पत्नी और माता-पिता सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। निर्देशक ने फिल्म में ‘आस्तिक’ को नहीं दिखाया है। उसके बारे में जो बातें होती है, उसके आधार पर दर्शक उसकी छवि का एक खाका खींचता है।
निर्देशक स्वयं बता रहा है कि आस्तिक एक अच्छा व्यक्ति था। परिवार का बहुत ध्यान रखता था। उसका अफेयर शादी से पहले ही समाप्त हो चुका था। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु पर उसकी पत्नी को दुःख नहीं हो रहा। इसलिए नहीं हो रहा कि उनके संबंध सामान्य नहीं थे।
इस वास्तविक सी दिखने वाली कथा के बिंदु नितांत अवास्तविक है। बेहतर होता कि निर्देशक भारत की उस प्रथम महिला ड्राइवर पर फिल्म बनाता, जो विवाह उपरान्त विधवा हो गई और ट्रक चलाकर परिवार का पालन-पोषण कर रही है। हालांकि महिलाओं की सच्ची गाथाएं दिखाने में बॉलीवुड को कोई रुचि नहीं है। यदि वह ऐसी फ़िल्में बनाने लग जाएंगे तो हिन्दू परिवेश की छीछालेदर कैसे कर सकेंगे।