कमलेश कमल. वीरों की भूमि राजस्थान की छटा सच ही इंद्रधनुषी है। पर, यह भी सच है कि राजस्थान का नाम सुनते ही मन में पाठ्य-पुस्तकों में वर्णित शौर्य, वीरता, ओज के किस्से ही याद आते हैं, या फ़िर याद आता है- सिनेमा में दिखाया गया ‘रंगीला राजस्थान’। गंभीरता से विचार करने पर यही परिलक्षित होता है कि अन्य रंग भले ही कम न हों, शौर्य और प्रेम का रंग ही प्रमुखता से समुद्घाटित हुआ है। तभी तो कहा गया है-
त्याग, प्रेम सौन्दर्य,शौर्य की,
जिसका कण-कण एक कहानी ।
आओ पूजे शीश झुकाएँ
मिल हम, माटी राजस्थानी ।
इस भाव-भूमि के साथ अगर राजस्थानी इतिहास और साहित्य की अवगाहन करें तो युद्ध-कौशल के कुछ नायाब उदाहरण मिलते हैं, जिनसे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं:-
प्रथमतः, साहित्य में भी ढोला-मारू की जिस प्रेम कहानी को हम पढ़ते आए हैं, उसमें भी युद्ध कला के कुछ महत्त्वपूर्ण नियम हैं- चौकस रहना, सहभागिता आदि। एक तथ्य पर कम ही लोगों का ध्यान गया है कि सोच में राजस्थानी स्त्री-शक्ति कितनी आगे थीं। आज भी हिंदी फिल्मों में नायिका को मुसीबत में फँसी दिखाया जाता है, जिसे नायक अपने शौर्य-पराक्रम और सूझ-बूझ से बचाता है।
इसकी तुलना सदियों से प्रेम के अस्तित्व को सजीव करती इस गाई जाने वाली ढोला मारू की प्रेम-कहानी से करें तो इसमें पिंगल देश की राजकुमारी अदम्य सूझबूझ और पराक्रम का परिचय देती है और नरवर राजकुमार साल्हकुमार को भी बचाती है।
वर्णन है कि उमरा-सुमरा साल्हकुमार को मारकर राजकुमारी को हासिल करने के लिए रास्ते में जाजम बिछाकर और महफिल सजाकर बैठ जाता है। जब राजकुमार साल्हकुमार राजकुमारी को लेकर उधर से गुजरता है तो ये उसे मनुहार कर रोक लेते हैं। फ़िर अफ़ीम का दौर चल पड़ता है।
मारू देश का ढोली इस षड्यंत्र के बारे में राजकुमारी को बता देता है। राजकुमारी ऊंट को जोर से एड़ी मारती है, जिससे ऊंट भागने लगता है। राजकुमार ऊंट को रोकने आता है। पर, जैसे ही वह क़रीब आता है, राजकुमारी कहती है – “बड़ा जाल बिछा है, जल्दी ऊंट पर चढ़ो, ये तुम्हें मारना चाहते हैं।”
इस तरह वह राजकुमार का जीवन बचाते हुए निकल पड़ती है और सीधे नरवर पहुंचकर ही रुकती है। शताब्दियों पूर्व राजस्थान की धरती से नारी-सशक्तीकरण की ऐसी अनुगूँज का सुनाई देना एक विलक्षण घटना ही तो है।
और यह इकलौता उदाहरण नहीं है। हाड़ा रानी की कहानी हम सबने पढ़ी है, जिन्होंने अपने पति रतन सिंह को युद्ध में जाते समय निशानी के तौर पर अपना सिर ही दे दिया था कि वे मोहाविष्ट न हों। यह सीख है कि युद्ध में मोह लेकर नहीं जाना चाहिए।
इसमें कोई शक नहीं कि वीर पूरे भारत में हुए हैं। पर हाँ, राजस्थानी वीरों की कहानी से हमें युद्ध-कला के कई अप्रतिम उदाहरण मिलते हैं। कहीं पढ़ी श्री श्याम नारायण पाण्डेय जी की कविता ‘राणा प्रताप की तलवार’ की आरंभिक पंक्तियाँ बरबस याद आती हैं –
“चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट-काट,
करता था सफल जवानी को॥”
आश्चर्य होता है कि कवच, भाला, ढाल और तलवार को मिलाकर लगभग 200 किलो का वजन था, और तलवार के एक ही वार से बख्तावर खलजी को टोपे, कवच, घोड़े सहित एक ही झटके में काट दिया था। अपने से कई गुणा बड़ी सेना को नाकों चने चबवाने के लिए महाराणा प्रताप के युद्ध-कौशल को ध्यान से देखने की आवश्यकता है।
चित्तौड़ के जयमाल मेड़तिया ही नहीं जिन्होंने एक ही झटके में हाथी का सिर काट डाला था, बल्कि करौली के जादोन राजा, जोधपुर के जसवंत सिंह जी, वीर जुंझार आलाजी भाटी, रायमलोत कल्ला, जयमाल और कल्ला जी, आउवा के ठाकुर खुशाल सिंह आदि अनेकानेक उदाहरण हैं, जिससे हर देशवासी का मस्तक गर्व से उठ जाता है।
पर, शौर्य और नेतृत्व के लिहाज़ से राणा सांगा की कहानी ग़ौर करने की है। जैसा नेतृत्व उनका था और जो सम्मान उनके मातहत उनको देते थे, यह आज के प्रबंधन पाठ्यक्रम में शामिल होने लायक है।
उदयपुर के सिसोदिया राजवंश के राजा महाराणा सांगा (राणा संग्राम सिंह) ने मेवाड़ के सिंहासन पर विराजमान रहकर दिल्ली के लोदी, मालवा के नसीरुद्दीन शाह, और गुजरात के महमूद शाह की सयुक्त सेना के दाँत खट्टे कर दिए थे। आगे बाबर के साथ भी हुए युद्ध में उनके व्यक्तित्व का और मज़बूत पक्ष सामने आता है। उनके बारे में यह गाना हम सब जानते ही हैं-
“खून में तेरे मिट्टी
मिट्टी में तेरा खून
चारो तरफ है उसके शत्रु
बीच मे तेरा जुनून “
जय संग्राम, जय संग्राम”
तथ्यात्मक रूप से देखें तो बाबर के पास तोपखाना था, जिसका मुकाबला तलवार और भालों से नहीं किया जा सकता। पर, ‘जय भवानी’ के उद्घोष के साथ राजस्थान के रणबांकुरों ने अद्भुत शौर्य और वीरता का परिचय दिया और बाबर की सेना को गाज़र-मूली की तरह काटना शुरू किया और फिर हँस- हँसकर तोप के गोले अपनी छाती पर झेल लिए। “नायक उदाहरण प्रस्तुत करता है” का वे ख़ुद एक बेजोड़ उदाहरण थे।
वर्णन है कि जितने दिन भी वे जीवित रहे, सदैव युद्धरत ही रहे। लगभग 100 युद्ध और 80 घावों के बाद उनके कई अंग बेकार हो चुके थे। कहते हैं कि एक बार महाराणा सांगा ने अपने दरबारियों से आग्रह किया -” जिस तरह टूटी हुई मूर्ति प्रतिष्ठा में पूजने योग्य नहीं रहती , उसी प्रकार मेरी आँख, भुजा, पाँव सभी अंग बेकार हो चुके हैं , इसलिए मुझे सिहासन पर नहीं अपितु ज़मीन पर बैठना चाहिए। आप लोग आपस में विचार कर किसी योग्य व्यक्ति को सिंहासन पर बिठा दें।”
इस पर उन्हें प्रत्युत्तर मिला- “रणभूमि में अंग-भंग होने पर योद्धा का गौरव बढ़ता है, घटता नहीं है।” यह दिखाता है कि इस नायक पर लोगों को कितना विश्वास था। इसकी तुलना आज के परिदृश्य से करें कि ख़ुद आखिरी सांस तक कुर्सी का मोह नहीं जाता और अपने ही लोग हटाने की साज़िश में लगे रहते हैं। इस तरह राजस्थानी साहित्य में युद्ध-कौशल के अनेकानेक उदाहरण भरे पड़े हैं, जिन पर विधिवत अध्ययन की संभावना है।