शंकर शरण। भारतीय दलों ने ऐसे अघोषित अधिकार ले लिये हैं, जो यूरोप, अमेरिका में कोई सोच भी नहीं सकता। एक ओर यहाँ किसी के बैंक-खाते में भी बड़ी रकम आने पर देखने की व्यवस्था है। तब यह कैसा मजाक कि राजनीतिक पार्टियाँ द्वारा सैकड़ों करोड़ लेन-देन की कोई हिसाबदारी न हो! स्थानीय से ऊपर तक के चुनावों में एक-एक सीट पर कई पार्टियाँ जो खर्चती हैं, उस से एक ही चुनाव में सैकड़ों करोड़ रूपये लगाती हैं। वह धन कहाँ से आया, क्या यह संवैधानिक संस्थाओं को भी जानने की जरूरत नहीं?
एक ओर लघुतम दुकानदार या क्लर्क से भी आमदनी का हिसाब लेने की दृढ़ता है! तब राजनीतिक दलों को क्यों अदृश्य देशी-विदेशी धन लेते रहने की ऐसी छूट रहे कि कभी कहीं हिसाब न देना हो?
वस्तुत: भारतीय दलों ने ऐसे अघोषित अधिकार ले लिये हैं, जो यूरोप, अमेरिका में कोई सोच भी नहीं सकता। एक ओर यहाँ किसी के बैंक-खाते में भी बड़ी रकम आने पर देखने की व्यवस्था है। तब यह कैसा मजाक कि राजनीतिक पार्टियाँ द्वारा सैकड़ों करोड़ लेन-देन की कोई हिसाबदारी न हो! स्थानीय से ऊपर तक के चुनावों में एक-एक सीट पर कई पार्टियाँ जो खर्चती हैं, उस से एक ही चुनाव में सैकड़ों करोड़ रूपये लगाती हैं। वह धन कहाँ से आया, यह संवैधानिक संस्थाओं को भी जानने की जरूरत नहीं? यही ‘जनता का शासन’, यानी उसे उल्लू बनाकर पार्टी, गुट का उल्लू सीधा करने का व्यापार है।
स्पष्टत: ऐसी माँग इसीलिए कि राजनीतिक दलों के अनुचित, अनैतिक क्रियाकलापों पर पर्दा रहे। उसे कानून और नैतिकता – दोनों मर्यादा से मुक्त रखा जाए। यह घातक प्रक्रिया लंबे समय से चल, बढ़ रही है। भारतीय संसद में सन् 1956 में ही चर्चा हुई थी कि एक राजनीतिक पार्टी को तब एक अन्य देश से अवैध धन मिल रहा था। सत्ताधारियों को मालूम था, पर वे निष्क्रिय रहे। फलत: रोग बढ़ता गया। नेताओं को सूटकेस में नोट भर-भर पहुँचने का उल्लेख इंदर मल्होत्रा और राज थापर जैसे बड़े पत्रकारों ने किया है।
भारत में अमेरिकी राजदूत डैनियल पैट्रिक मोइनिहन ने अपनी पुस्तक ‘ए डैंजरस प्लेस’ (1978) में सी.आई.ए. द्वारा सब से बड़े भारतीय नेताओं में एक को पैसे देने की बात लिखी है। यह स्वयं मोइनिहन द्वारा जाँच करवाने पर सामने आया, जब सी.आई.ए. पर विरोधी दलों को पैसे देने का आरोप लग रहा था। राजनीतिक दलों को अवैध विदेशी धन के चलन की पुष्टि ”मित्रोखिन आर्काइव्सः द के.जी.बी. एंड द वर्ल्ड” (2005) से भी फिर हुई। यह दस्तावेजी पुस्तक देश के मुँह पर तमाचे जैसी थी। इस में भारतीय तंत्र में के.जी.बी. की गहरी पैठ पर दो अध्याय हैं। उन विवरणों के अनुसार यहाँ अनेक दल के लोग उस की सेवा में थे।हमारे सत्ताधारियों ने उस की भी जाँच नहीं कराई। न किसी दल ने उस की माँग की। क्यों? इसी का उत्तर यह नवीनतम दलील है, जो सुप्रीम कोर्ट में दी गई है।
अधिकांश दल अनेक ऐसी गतिविधियों में लिप्त रहे हैं, जिस कारण वे दूसरों की भी गतिविधियों पर हल्की आवाज ही उठाते हैं। बुनियादी गड़बड़ी पर चुप रहते हैं। सभी मानो मौन सहमति रखते हैं कि कुछ विशेषाधिकारी व्यवस्था चलाते रहना है। चाहे कभी किसी भी दल की सत्ता हो। यह केवल विदेशी स्रोतों से गुपचुप पैसे लेने की बात नहीं, जिस का आज बहुत बड़ा जाल, और स्त्रोत हो गये हैं। आज दुनिया में मिशनरी, तबलीगी, जिहादी गतिविधियाँ एक विशाल कारोबार हैं।
ईरान में खुमैनी तख्तापलट के बाद से ही कई इस्लामी देशों द्वारा दुनिया भर में भरपूर पेट्रो-डॉलर उड़ेला जाने लगा। सुलतान शाहीन जैसे भारतीय बौद्धिकों के अनुसार सऊदी धन बल से यहाँ मदरसों से पारंपरिक नरम इस्लामी पाठ हटाकर उग्रवादी पाठ डाले गए। इस का अतिरिक्त दुष्प्रभाव देश की राजनीति में हो रहा है। पर विदेशी धन-स्त्रोतों से यहाँ राजनीति और शिक्षा को दुष्प्रभावित करने के विरुद्ध कभी कुछ नहीं हुआ।
उस के अतिरिक्त, कुछ अन्य बातें भी नैतिकता की दृष्टि से अनुचित हैं। चुनाव की निष्पक्षता के भी विरुद्ध है। कुछ मुख्य बिन्दु यह हैं –
- सरकारी पदों पर बैठे नेताओं द्वारा पार्टी काम करना। किसी मंत्री को राजकीय सुविधा, स्टाफ, सम्मान, आदि राजकार्य के लिए मिल रहा है। न कि पार्टी कार्य के लिए।
- 2. इंदिरा गाँधी के चुनाव पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले (1975) की आत्मा यही थी। प्रधानमंत्री को मिले राजकीय संसाधन का उपयोग चुनाव में करना अवैध था। वह मंत्री के चुनाव-कार्य ही नहीं, दैनंदिन पार्टी कार्य करने पर भी लागू है।
- अतः सरकार में रहते किसी मंत्री द्वारा पार्टी बयान तक देना अनैतिक है। उन्हें जो महत्व, कवरेज, राजकीय संसाधन, सुविधाएं मिलती हैं वह मंत्री होने के कारण। जिन का उपयोग किसी पार्टी के विरुद्ध करना अनुचित है। मंत्री हरेक नागरिक के लिए है। अतः एक पार्टी को बल पँहुचाने हेतु मंत्री पद से बोलना दूसरी पार्टी को अनुचित हानि पँहुचाना है।
- फिर, पार्टी के लिए पार्टी कार्यकर्त्ता हैं। अतः पार्टी संबंधी कार्य, प्रचार केवल पार्टी अधिकारियों के माध्यम से सुनिश्चित करें। इस प्रकार, पार्टी और सरकार के पदधारियों, कार्यों में घालमेल, बयान देना भी रोकना सहज सरल है।
5 यदि कोई विशिष्ट नेता पार्टी कार्य हेतु अपरिहार्य है, तो उसे राजकीय पदों से मुक्त रखना चाहिए। मंत्री पदधारी केवल सरकारी कार्य करे।
- कुछ मंत्री सदैव पार्टी कार्य में व्यस्त रहते हैं। उस के विवरण छपते रहते हैं। यह उस के मंत्रालय के काम की हानि भी है। यदि कोई मंत्री एक दिन भी पार्टी कार्य में गया हुआ है, तो उतने समय सरकार में उस का काम उपेक्षित पड़ा है। यह अनुचित और राजकीय संसाधन का पार्टी कार्य में दुरुपयोग भी है।
- यदि किन्हीं गतिविधियों की देख-रेख मंत्रालय के मंत्री ‘क’ हैं, और वही अपनी पार्टी के प्रत्यक्ष संचालक भी हैं – तो अपनी पार्टी की गतिविधियों पर उन की स्थिति पक्षपातरहित होनी असंभव है। कानून की भाषा में यह ‘कान्फ्लिक्ट ऑफ इन्टेरेस्ट’ है। इसे रोकने हेतु भी मंत्री और पार्टी नेता अलग-अलग व्यक्ति होने आवश्यक हैं।
- राज्य/पार्टी घालमेल रोकना चुनावी निष्पक्षता के लिए भी आवश्यक है। मंत्रियों को जो राजकीय सुविधाएं, संसाधन मिले रहते हैं वह उन के बल के साथ पार्टी-प्रचार करता है। इस से सत्ता-विहीन दल, उम्मीदवार विषम स्थिति में पड़ते हैं। अतः मंत्री पदधारियों को केवल अपने चुनाव में, अपने क्षेत्र में प्रचार के सिवा कहीं भी, कभी भी प्रचार करना, अन्य पार्टी के विरुद्ध बयान देना भी वर्जित होना चाहिए। अन्यथा यह सत्ता-विहीन दलों, उम्मीदवारों के विरुद्ध सरकारी संसाधनों की ताकत लगने का सीधा मामला बनता है।
यह सब रोकना संभव है। सर्वप्रथम, हमारी सुप्रीम कोर्ट, संसद, या चुनाव आयोग को समुचित विचार करके, तथा सभी प्रतिष्ठित लोकतंत्रों के श्रेष्ठ चलन का भी आकलन करके यहाँ भी पार्टी और राज्य को बिलकुल अलग रखने की पक्की व्यवस्था करनी चाहिए। दूसरे, राजनीतिक दल भी अन्य संस्थाओं की तरह अपने आय-व्यय के लिए समान रूप से पारदर्शी उत्तरदायी बनाए जाएं। तीसरे, संसद में सदस्यों को पार्टी अनुशासन से मुक्त, वास्तविक जनप्रतिनिधि के रूप में स्वविवेक से बोलने, और संसदीय कार्रवाइयों में भाग लेने की स्वतंत्रता सुनिश्चित की जाए। यही संविधान की भी स्पष्ट भावना थी।
अन्यथा यहाँ का राज्य-तंत्र किसी पार्टी या उस के मैनेजरों, एक्टिविस्टों का बंधक बनता जाएगा। बाकी सोवियत अनुभव से समझ सकते हैं।