श्वेता पुरोहित। आज चैत्रमास शुक्लपक्ष दिनांक १९ अप्रैल २०२४ को ‘कामदा’ एकादशी है इस एकादशी की कथा और माहात्म्य इस प्रकार है:
युधिष्ठिर ने पूछा- वासुदेव ! आपको नमस्कार है। अब मेरे सामने यह बताइये कि चैत्र शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है ? भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन् ! एकाग्रचित्त होकर यह पुरातन कथा सुनो, जिसे वसिष्ठजीने दिलीप के पूछने पर कहा था। दिलीपने पूछा- भगवन् ! मैं एक बात सुनना चाहता हूँ। चैत्रमासके शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है ? वसिष्ठजी बोले-राजन् ! चैत्र शुक्लपक्षमें ‘कामदा’ नामकी एकादशी होती है। वह परम पुण्यमयी है। पापरूपी ईंधन के लिये तो वह दावानल ही है। प्राचीन कालकी बात है, नागपुर नाम का एक सुन्दर नगर था, जहाँ सोनेके महल बने हुए थे। उस नगरमें पुण्डरीक आदि महा भयंकर नाग निवास करते थे। पुण्डरीक नाम का नाग उन दिनों वहाँ राज्य करता था। गन्धर्व, किन्नर और अप्सराएँ भी उस नगरी का सेवन करती थीं। वहाँ एक श्रेष्ठ अप्सरा थी, जिसका नाम ललिता था। उसके साथ ललित नामवाला गन्धर्व भी था। वे दोनों पति-पत्नीके रूपमें रहते थे। दोनों ही परस्पर कामसे पीड़ित रहा करते थे। ललिता के हृदयमें सदा पतिकी ही मूर्ति बसी रहती थी और ललित के हृदयमें सुन्दरी ललिता का नित्य निवास था। एक दिनकी बात है, नागराज पुण्डरीक राजसभामें बैठकर मनोरंजन कर रहा था। उस समय ललितका गान हो रहा था। किन्तु उसके साथ उसकी प्यारी ललिता नहीं थी। गाते-गाते उसे ललिताका स्मरण हो आया। अतः उसके पैरोंकी गति रुक गयी और जीभ लड़खड़ाने लगी। नागों में श्रेष्ठ कर्कोटक को ललित के मनका सन्ताप ज्ञात हो गया; अतः उसने राजा पुण्डरीक को उसके पैरोंकी गति रुकने एवं गानमें त्रुटि होनेकी बात बता दी। कर्कोटक की बात सुनकर नागराज पुण्डरीक की आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। उसने गाते हुए कामातुर ललित को शाप दिया – ‘दुर्बुद्धे ! तू मेरे सामने गान करते समय भी पत्नीके वशीभूत हो गया, इसलिये राक्षस हो जा।’
महाराज पुण्डरीक के इतना कहते ही वह गन्धर्व राक्षस हो गया। भयंकर मुख, विकराल आँखें और देखनेमात्र से भय उपजाने वाला रूप। ऐसा राक्षस होकर वह कर्म का फल भोगने लगा। ललिता अपने पति की विकराल आकृति देख मन-ही-मन बहुत चिन्तित हुई। भारी दुःखसे कष्ट पाने लगी। सोचने लगी, ‘क्या करूँ ? कहाँजाऊँ ? मेरे पति पापसे कष्ट पा रहे हैं।’ वह रोती हुई घने जंगलोंमें पतिके पीछे-पीछे घूमने लगी। वनमें उसे एक सुन्दर आश्रम दिखायी दिया, जहाँ एक शान्त मुनि बैठे हुए थे। उनका किसी भी प्राणी के साथ वैर-विरोध नहीं था। ललिता शीघ्रताके साथ वहाँ गयी और मुनिको प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हुई। मुनि बड़े दयालु थे। उस दुःखिनीको देखकर वे इस प्रकार बोले- ‘शुभे ! तुम कौन हो ? कहाँसे यहाँ आयी हो ? मेरे सामने सच-सच बताओ।’
ललिताने कहा- ‘महामुने ! वीरधन्वा नामवाले एक गन्धर्व हैं। मैं उन्हीं महात्माकी पुत्री हूँ। मेरा नाम ललिता है। मेरे स्वामी अपने पाप-दोषके कारण राक्षस हो गये हैं। उनकी यह अवस्था देखकर मुझे चैन नहीं है। ब्रह्मन् ! इस समय मेरा जो कर्तव्य हो, वह बताइये। विप्रवर ! जिस पुण्यके द्वारा मेरे पति राक्षसभावसे छुटकारा पा जायँ, उसका उपदेश कीजिये।’
ऋषि बोले- भद्रे ! इस समय चैत्रमास के शुक्लपक्ष की ‘कामदा’ नामक एकादशी तिथि है, जो सब पापोंको हरनेवाली और उत्तम है। तुम उसीका विधिपूर्वक व्रत करो और इस व्रतका जो पुण्य हो, उसे अपने स्वामी को दे डालो। पुण्य देनेपर क्षणभर में ही उसके शाप का दोष दूर हो जायगा। राजन् ! मुनिका यह वचन सुनकर ललिता को बड़ा हर्ष हुआ। उसने एकादशी को उपवास करके द्वादशी के दिन उन ब्रह्मर्षि के समीप ही भगवान् वासुदेवके श्रीविग्रहके समक्ष अपने पतिके उद्धारके लिये यह वचन कहा- ‘मैंने जो यह कामदा एकादशी का उपवासव्रत किया है, उसके पुण्य के प्रभाव से मेरे पतिका राक्षस-भाव दूर हो जाय।’
वसिष्ठजी कहते हैं- ललिताके इतना कहते ही उसी क्षण ललितका पाप दूर हो गया। उसने दिव्य देह धारण कर लिया। राक्षस-भाव चला गया और पुनः गन्धर्वत्व की प्राप्ति हुई। नृपश्रेष्ठ ! वे दोनों पति-पत्नी ‘कामदा’ के प्रभाव से पहले की अपेक्षा भी अधिक सुन्दर रूप धारण करके विमानपर आरूढ़ हो अत्यन्त शोभा पाने लगे।
यह जानकर इस एकादशी के व्रत का यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। मैंने लोगों के हितके लिये तुम्हारे सामने इस व्रतका वर्णन किया है। कामदा एकादशी ब्रह्महत्या आदि पापों तथा पिशाचत्व आदि दोषों का भी नाश करनेवाली है। राजन् !
इस कथा के पढ़ने और सुनने से वाजपेय-यज्ञका फल मिलता है।
जय जय जय श्री हरि