श्वेता पुरोहित। वातापि तथा इल्वलका वध और लोपामुद्रा को पुत्रकी प्राप्ति महर्षि अगस्त्य और लोपामुद्रा के विवाहोपरांत बहुत समय व्यतीत हो गया, तब एक दिन भगवान् अगस्त्यमुनि ने ऋतुस्नान से निवृत्त हुई पत्नी लोपामुद्रा को देखा। वह तपस्या के तेज से प्रकाशित हो रही थी। महर्षिने अपनी पत्नी की सेवा, पवित्रता, इन्द्रियसंयम, शोभा तथा रूप-सौन्दर्य से प्रसन्न होकर उसे रमण के लिये पास बुलाया।
तब अनुरागिणी लोपामुद्रा कुछ लज्जित-सी हो हाथ जोड़कर बड़े प्रेम से भगवान् अगस्त्य से बोली –
‘महर्षे! इस में संदेह नहीं कि पतिदेव ने अपनी इस पत्नी को संतान के लिये ही ग्रहण किया है, परंतु आपके प्रति मेरे हृदय में जो प्रीति है, वह भी आपको सफल करनी चाहिये।
‘ब्रह्मन्! मैं अपने पिता के घर उनके महल में जैसी
शय्यापर सोया करती थी, वैसी ही शय्यापर आप मेरे साथ समागम करें। ‘मैं चाहती हूँ कि आप सुन्दर हार और आभूषणों से विभूषित हों और मैं भी दिव्य अलंकारों से अलंकृत हो इच्छानुसार आपके साथ समागम-सुख का अनुभव करूँ। ‘अन्यथा मैं यह जीर्ण-शीर्ण काषाय-वस्त्र पहन कर आपके साथ समागम नहीं करूँगी। ब्रह्मर्षे! तपस्वीजनों का यह पवित्र आभूषण किसी प्रकार सम्भोग आदि के द्वारा अपवित्र नहीं होना चाहिये’।
अगस्त्यजी ने कहा– सुन्दर कटिप्रदेशवाली कल्याणी लोपामुद्रे! तुम्हारे पिता के घर में जैसे धन-वैभव हैं, वे न तो तुम्हारे पास हैं और न मेरे ही पास। फिर ऐसा कैसे हो सकता है?
लोपामुद्रा बोली- तपोधन! इस जीव-जगत्में जो कुछ भी धन है, वह सब क्षणभर में आप अपनी तपस्या के प्रभाव से जुटा लेने में समर्थ हैं।
अगस्त्यजी ने कहा-प्रिये! तुम्हारा कथन ठीक है। परंतु ऐसा करने से तपस्या का क्षय होगा। मुझे ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे मेरी तपस्या क्षीण न हो।
लोपामुद्रा बोली– तपोधन! मेरे ऋतुकाल का थोड़ा ही समय शेष रह गया है। मैं जैसा बता चुकी हूँ, उसके सिवा और किसी तरह आप से समागम नहीं करना चाहती। साथ ही मेरी यह भी इच्छा नहीं है कि किसी प्रकार आपके धर्म का लोप हो। इस प्रकार अपने तप एवं धर्म की रक्षा करते हुए जिस तरह सम्भव हो उसी तरह आप मेरी इच्छा पूर्ण करें।
अगस्त्यजी ने कहा—सुभगे! यदि तुमने अपनी बुद्धि से यही मनोरथ पाने का निश्चय कर लिया है तो मैं धन लाने के लिये जाता हूँ, तुम यहीं रहकर इच्छानुसार धर्माचरण करो। तदनन्तर अगस्त्यजी धन माँगने के लिये महाराज श्रुतर्वा के पास गये, जिन्हें वे सब राजाओं से अधिक वैभव सम्पन्न समझते थे।
राजा को जब यह मालूम हुआ कि महर्षि अगस्त्य मेरे यहाँ आ रहे हैं, तब वे मन्त्रियों के साथ अपने राज्य की सीमापर चले आये और बड़े आदर-सत्कार से उन्हें अपने साथ लिवा ले गये। भूपाल श्रुतर्वा ने उनके लिये यथायोग्य अर्घ्य निवेदन करके विनीतभाव से हाथ जोड़कर उनके पधारने का प्रयोजन पूछा।
तब अगस्त्यजी ने कहा – पृथ्वीपते! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं धन माँगने के लिये आपके यहाँ आया हूँ। दूसरे प्राणियों को कष्ट न देते हुए यथाशक्ति अपने धन का जितना अंश मुझे दे सकें, दे दें।
तब राजा श्रुतर्वा ने महर्षि के सामने अपने आय-व्यय का पूरा ब्योरा रख दिया और कहा- ‘ज्ञानी महर्षे! इस धन में से जो आप ठीक समझें, वह ले लें’।
ब्रह्मर्षि अगस्त्य की बुद्धि सम थी। उन्होंने आय और व्यय दोनों को बराबर देखकर यह विचार किया कि इसमें से थोड़ा-सा भी धन लेनेपर दूसरे प्राणियों को सर्वथा कष्ट हो सकता है।
तब वे श्रुतर्वा को साथ लेकर राजा ब्रध्नश्व के पास गये। उन्होंने भी अपने राज्य की सीमा पर आकर उन दोनों सम्माननीय अतिथियों की अगवानी की और विधिपूर्वक उन्हें अपनाया। ब्रध्नश्व ने उन दोनों को अर्घ्य और पाद्य निवेदन किये, फिर उनकी आज्ञा ले अपने यहाँ पधारनेका प्रयोजन पूछा।
अगस्त्यजी ने कहा– पृथ्वीपते! आपको विदित हो कि हम दोनों आपके यहाँ धन की इच्छा से आये हैं। दूसरे प्राणियों को कष्ट न देते हुए जो धन आपके पास बचता हो, उसमें से यथाशक्ति कुछ भाग हमें भी दीजिये।
तब राजा ब्रध्नश्व ने भी उन दोनों के सामने आय और व्यय का पूरा विवरण रख दिया और कहा – ‘आप दोनों को इसमें जो धन अधिक जान पड़ता हो, वह ले लें’।
तब समान बुद्धिवाले ब्रह्मर्षि अगस्त्यने उस विवरणमें आय और व्यय बराबर देखकर यह निश्चय किया कि इसमें से यदि थोड़ा-सा भी धन लिया जाय तो दूसरे प्राणियों को सर्वथा कष्ट हो सकता है।
तब अगस्त्य, श्रुतर्वा और ब्रध्नश्व-तीनों पुरुकुत्सनन्दन- महाधनी त्रसदस्युके पास गये।
भूपालों में श्रेष्ठ इक्ष्वाकुवंशी महामना त्रसदस्यु ने उन्हें आते देख राज्य की सीमा पर पहुँचकर विधिपूर्वक उन सबका स्वागत-सत्कार किया और उन सबसे अपने यहाँ पधारने का प्रयोजन पूछा।
अगस्त्य ने कहा-पृथ्वीपते! आपको विदित हो कि हम धनकी कामना से यहाँ आये हैं। आप दूसरे प्राणियों को पीड़ा न देते हुए यथाशक्ति अपने धनका कुछ भाग हम सबको दीजिये।
तब राजा ने उन्हें अपने आय-व्यय का पूरा विवरण दे दिया और कहा-‘इसे समझकर जो धन शेष बचता हो, वह आपलोग ले लें।’ समबुद्धिवाले महर्षि अगस्त्यने वहाँ भी आय-व्यय का लेखा बराबर देखकर यही माना कि इसमें से धन लिया जाय तो दूसरे प्राणियों को सर्वथा कष्ट हो सकता है।
तब वे सब राजा परस्पर मिलकर एक – दूसरे की ओर देखते हुए महामुनि अगस्त्य से इस प्रकार बोले – ‘ब्रह्मन्! यह इल्वल दानव इस पृथ्वी पर सबसे अधिक धनी है। हम सब लोग उसी के पास चलकर आज धन माँगें’।
मणिमती नगरी में इल्वल नामक दैत्य रहता था। वातापि उसका छोटा भाई था। एक दिन दितिनन्दन इल्वल ने एक तपस्वी ब्राह्मण से कहा- ‘भगवन्! आप मुझे ऐसा पुत्र दें, जो इन्द्र के समान पराक्रमी हो।’ उन ब्राह्मणदेवता ने इल्वल को इन्द्रके समान पुत्र नहीं दिया। इससे वह असुर उन ब्राह्मण देवता पर बहुत कुपित हो उठा। तभी से इल्वल दैत्य क्रोध में भरकर ब्राह्मणों की हत्या करने लगा। वह मायावी अपने भाई वातापि को माया से बकरा बना देता था।
वातापि भी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ था! अतः वह क्षणभर में भेड़ा और बकरा बन जाता था। फिर इल्वल उस भेड़ या बकरे को पकाकर उसका मांस राँधता और किसी ब्राह्मण को खिला देता था। इसके बाद वह ब्राह्मण को मारने की इच्छा करता था। इल्वल में यह शक्ति थी कि वह जिस किसी भी यमलोक में गये हुए प्राणी को उसका नाम लेकर बुलाता वह पुनः शरीर धारण करके जीवित दिखायी देने लगता था ।
उस समय उन सबको इल्वल के यहाँ याचना करना ही ठीक जान पड़ा, अतः वे एक साथ होकर इल्वल के यहाँ शीघ्रतापूर्वक गये।
इल्वल ने महर्षि सहित उन राजाओं को आता जान मन्त्रियों के साथ अपने राज्य की सीमापर उपस्थित होकर उन सबका पूजन किया।
कुरुनन्दन! उस समय असुर श्रेष्ठ इल्वल ने अपने भाई वातापिञका मांस राँधकर उसके द्वारा उन सबका आतिथ्य किया।
उस दिन भी भेड़ के रूप में महान् दैत्य वातापि को ही राँधा गया देख उन सभी राजर्षियों का मन खिन्न हो गया और वे अचेत से हो गये। तब ऋषिश्रेष्ठ अगस्त्य ने उन राजर्षियों से (आश्वासन देते हुए) कहा – ‘तुम लोगों को चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मैं ही इस महादैत्य को खा जाऊँगा।’ ऐसा कहकर महर्षि अगस्त्य प्रधान आसन पर जा बैठे और दैत्यराज इल्वल ने हँसते हुए- से उन्हें वह मांस परोस दिया।
अगस्त्यजी ही वातापिका सारा मांस खा गये; जब वे भोजन कर चुके, तब असुर इल्वल ने वातापि का नाम लेकर पुकारा।
उस समय महात्मा अगस्त्य की गुदा से गर्जते हुए मेघकी भाँति भारी आवाज के साथ अधोवायु निकली। इल्वल बार-बार कहने लगा-‘वातापे! निकलो – निकलो।’ राजन्! तब मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य ने उससे हँसकर कहा –
‘अब वह कैसे निकल सकता है, मैंने (लोक हित के लिये) उस असुर को पचा लिया है।’ महादैत्य वातापि को पच गया देख इल्वल को बड़ा खेद हुआ।
उसने मन्त्रियोंणसहित हाथ जोड़कर उन अतिथियों से यह बात पूछी–‘आप लोग किस प्रयोजन से यहाँ पधारे हैं, बताइये, मैं आपलोगों की क्या सेवा करूँ?’
तब महर्षि अगस्त्य ने हँसकर इल्वल से कहा -‘असुर! हम सब लोग तुम्हें शक्तिशाली शासक एवं धनका स्वामी समझते हैं। ‘ये नरेश अधिक धनवान् नहीं हैं और मुझे बहुत धन की आवश्यकता आ पड़ी है। अतः दूसरे जीवों को कष्ट न देते हुए अपने धनमें से यथाशक्ति कुछ भाग हमें दो’।
तब इल्वल ने महर्षि को प्रणाम करके कहा—‘मैं कितना धन देना चाहता हूँ? यह बात यदि आप जान लें तो मैं आपको धन दूँगा’।
अगस्त्यजी ने कहा-महान् असुर! तुम इनमें से एक- एक राजा को दस-दस हजार गौएँ तथा इतनी ही (दस-दस हजार) सुवर्णमुद्राएँ देना चाहते हो।
इन राजाओं की अपेक्षा दूनी गौएँ और सुवर्ण-मुद्राएँ तुमने मेरे लिये देने का विचार किया है। महादैत्य! इसके सिवा एक स्वर्णमय रथ, जिसमें मनके समान तीव्रगामी दो घोड़े जुते हों, तुम मुझे और देना चाहते हो।
इसपर इल्वल ने अगस्त्य मुनि से कहा कि ‘आपने मुझसे जो कुछ कहा है, वह सब सत्य है; किंतु आपने जो मुझ से रथ की बात कही है, उस रथ को हमलोग सुवर्णमय नहीं समझते हैं’।
अगस्त्यजी ने कहा—महादैत्य! मेरे मुँह से पहले कभी कोई बात झूठी नहीं निकली है, अतः शीघ्र पता लगाओ, यह रथ निश्चय ही सोने का है। पता लगाने पर वह रथ सोने का ही निकला, तब मन में (भाईकी मृत्यु से) व्यथित हुए उस दैत्य ने महर्षि को बहुत अधिक धन दिया।
उस रथ में विराव और सुराव नामक दो घोड़े जुते हुए थे। वे धनसहित राजाओं तथा अगस्त्य मुनि को शीघ्र ही मानो पलक मारते ही अगस्त्याश्रम की ओर ले भागे। उस समय इल्वल असुर ने अगस्त्य मुनि के पीछे जाकर उनको मारने की इच्छा की, परंतु महातेजस्वी अगस्त्यमुनि ने उस महादैत्य इल्वल को हुंकार से ही भस्म कर दिया।
तदनन्तर उन वायु के समान वेगवाले घोड़ों ने उन सबको मुनि के आश्रम पर पहुँचा दिया। भरतनन्दन! फिर अगस्त्यजी की आज्ञा ले वे राजर्षिगण अपनी-अपनी राजधानी को चले गये और महर्षि ने लोपामुद्रा की सभी इच्छाएँ पूर्ण कीं।
लोपामुद्रा बोली–भगवन्! मेरी जो-जो अभिलाषा थी, वह सब आपने पूर्ण कर दी। अब मुझसे एक अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न कीजिये।
अगस्त्यजी ने कहा-शोभामयी कल्याणी! तुम्हारे सद्व्यवहार से मैं बहुत संतुष्ट हूँ। पुत्र के सम्बन्ध में तुम्हारे सामने एक विचार उपस्थित करता हूँ, सुनो – क्या तुम्हारे गर्भ से एक हजार या एक सौ पुत्र उत्पन्न हों, जो दस के ही समान हों? अथवा दस ही पुत्र हों, जो सौ पुत्रोंकी समानता करनेवाले हों? अथवा एक ही पुत्र हो, जो हजारों को जीतनेवाला हो?
लोपामुद्रा बोली- तपोधन! मुझे सहस्रों की समानता करनेवाला एक ही श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त हो; क्योंकि बहुत-से दुष्ट पुत्रों की अपेक्षा एक ही विद्वान् एवं श्रेष्ठ पुत्र उत्तम माना गया है।
तब ‘तथास्तु’ कहकर श्रद्धालु महात्मा अगस्त्य ने समान शील-स्वभाव वाली श्रद्धालु पत्नी लोपामुद्रा के साथ यथासमय समागम किया। गर्भाधान करके अगस्त्यजी फिर वनमें ही चले गये। उनके वनमें चले जानेपर वह गर्भ सात वर्षोंतक माताके पेटमें ही पलता और बढ़ता रहा।
सात वर्ष बीतने पर अपने तेज और प्रभाव से प्रज्वलित होता हुआ वह गर्भ उदरसे बाहर निकला। वही महाविद्वान् दृढस्यु के नाम से विख्यात हुआ।
महर्षि का वह महातपस्वी और तेजस्वी पुत्र जन्म-काल से ही अंग और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का स्वाध्याय- सा करता जान पड़ा। दृढस्यु ब्राह्मणों में महान् माने गये।
पिता के घर में रहते हुए तेजस्वी दृढस्यु बाल्य-काल से ही इध्म (समिधा) का भार वहन करके लाने लगे; अतः ‘इध्मवाह’ नाम से विख्यात हो गये।
अपने पुत्र को स्वाध्याय और समिधानयन के कार्य में संलग्न देख महर्षि अगस्त्य उस समय बहुत प्रसन्न हुए। इस प्रकार अगस्त्यजी ने उत्तम संतान उत्पन्न की।
तदनन्तर उनके पितरों ने मनोवांछित लोक प्राप्त कर लिये। उसके बाद से वह स्थान इस पृथ्वीपर अगस्त्याश्रम के नामसे विख्यात हो गया। वातापि प्रह्लाद के गोत्र में उत्पन्न हुआ था, जिसे अगस्त्यजी ने इस प्रकार शान्त कर दिया।