श्वेता पुरोहित। वरुण के निवासस्थान जलनिधि समुद्र का आश्रय लेकर कालेय नामक दैत्य तीनों लोकों के विनाश-कार्य में लग गये। वे सदा रात में कुपित होकर आते और आश्रमों तथा पुण्य-स्थानों में जो निवास करते थे उन मुनियों को खा जाते थे। उन दुरात्माओं ने वसिष्ठ के आश्रम में निवास करनेवाले एक सौ अट्ठासी ब्राह्मणों तथा नौ दूसरे तपस्वियों को अपना आहार बना लिया। च्यवन मुनि के पवित्र आश्रम में, जहाँ बहुत-से द्विज निवास करते थे, जाकर उन दैत्यों ने फल-मूल का आहार करने वाले सौ मुनियों का भक्षण कर लिया।
इस प्रकार वे रात में तपस्वी मुनियों का संहार करते और दिन में समुद्र के जल में प्रवेश कर जाते थे। भरद्वाज मुनि के आश्रम में वायु और जल पीकर संयम-नियम के साथ रहने वाले बीस ब्रह्मचारियों को कालेयों ने काल के गाल में डाल दिया। इस तरह क्रमशः सभी आश्रमों में जाकर अपने बाहुबल के भरोसे उन्मत्त रहनेवाले दानव रात में वहाँ के निवासियों को सर्वथा कष्ट पहुँचाया करते थे। कालेय दानव काल के अधीन हो रहे थे; इसीलिये वे असंख्य ब्राह्मणों की हत्या करते चले जा रहे थे। मनुष्यों को उनके इस षड्यन्त्र का पता नहीं लगता था। इस प्रकार वे तपस्या के धनी तापसों के संहार में प्रवृत्त हो रहे थे।
प्रातःकाल आने पर नियमित आहार से दुर्बल मुनिगण अपने अस्थिमात्रावशिष्ट निष्प्राण शरीरों से पृथ्वीपर पड़े दिखायी देते थे। राक्षसों के द्वारा भक्षण करने के कारण उनके शरीरों का मांस तथा रक्त क्षीण हो चुका था। वे मज्जा, आँतें और संधिस्थानों (घुटने आदि) से रहित हो गये ब थे। इस तरह सब ओर फैली हुई सफेद हड्डियों के स कारण वहाँ की भूमि शंखराशि से आच्छादित सी प्रतीत होती थी।
उलटे-पुलटे पड़े हुए कलशों, टूटे-फूटे स्रुवों तथा बिखरी पड़ी हुई अग्निहोत्र की सामग्रियों से उन आश्रमों की भूमि आच्छादित हो रही थी। स्वाध्याय और वषट्कार बंद हो गये । यज्ञोत्सव आदि कार्य नष्ट हो गये । कालेयों के भय से पीड़ित हुए सम्पूर्ण जगत्में कहीं कोई उत्साह नहीं रह गया था।
इस प्रकार दिन-दिन नष्ट होनेवाले मनुष्य भयभीत हो अपनी रक्षा के लिये चारों दिशाओं में भाग गये।
कुछ लोग गुफाओं में जा छिपे। कितने ही मानव झरनों के आस-पास रहने लगे और कितने ही मनुष्य मृत्यु से इतने घबरा गये कि भय से ही उनके प्राण निकल गये। इस भूतलपर कुछ महान् धनुर्धर शूरवीर भी थे, जो अत्यन्त हर्ष और उत्साह से युक्त हो दानवों के स्थान का पता लगाते हुए उनके दमन के लिये भारी प्रयत्न करने लगे। परंतु समुद्र में छिपे हुए दानवों को वे पकड़ नहीं पाते। उन्होंने बहुत परिश्रम किया और अन्त में थककर वे पुनः अपने घर को ही लौट आये।
यज्ञोत्सव आदि कार्यों के नष्ट हो जानेपर जब जगत्का विनाश होने लगा, तब देवताओं को बड़ी पीड़ा हुई। इन्द्र आदि सब देवताओं ने मिलकर भय से मुक्त होने के लिये मन्त्रणा की। फिर वे समस्त देवता सबको शरण देनेवाले, शरणागतवत्सल, अजन्मा एवं सर्वव्यापी, अपराजित वैकुण्ठनाथ भगवान् नारायणदेव की शरण में गये और नमस्कार करके उन मधुसूदन से बोले –
‘प्रभो! आप ही हमारे स्रष्टा और पालक हैं। आप ही सम्पूर्ण जगत्का संहार करनेवाले हैं। इस स्थावर और जंगम सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि आपने ही की है। ‘कमलनयन! पूर्वकाल में आपने वाराहरूप धारण करके सम्पूर्ण जगत्के हित के लिये समुद्र के जल से इस खोयी हुई पृथ्वी का उद्धार किया था। ‘पुरुषोत्तम ! प्राचीनकाल में आपने ही नृसिंह-शरीर धारण करके महापराक्रमी आदिदैत्य हिरण्यकशिपु का वध किया था।
‘सम्पूर्ण प्राणियों के लिये अवध्य महादैत्य बलि को भी आपने ही वामनरूप धारण करके त्रिलोकी के राज्य से वंचित किया। ‘यज्ञोंका नाश करनेवाले क्रूरकर्मा महाधनुर्धर जम्भ नाम से विख्यात असुर को भी आपने ही मार गिराया था। ‘ऐसे-ऐसे आपके अनेक कर्म हैं, जिनकी कोई संख्या नहीं है। मधुसूदन! हम भयभीत देवताओं के एकमात्र आश्रय आप ही हैं।
‘देवदेवेश्वर! इसीलिये लोकहित के उद्देश्य से हम यह निवेदन कर रहे हैं कि आप सम्पूर्ण जगत्के प्राणियों, देवताओं और इन्द्र की भी महान् भय से रक्षा कीजिये ‘।
प्रभो ! जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज – इन चार भेदोंवाली सम्पूर्ण प्रजा आपकी कृपा से ही वृद्धि को प्राप्त होती है। अभ्युदयशील होने पर वे (मानव) प्रजाएँ ही हव्य और कव्योंद्वारा देवताओं का भरण-पोषण करती हैं।
मनुष्यों के समक्ष यह बड़ा भारी भय उपस्थित हुआ है। न जाने कौन रात में आकर इन ब्राह्मणों का वध कर रहा है। ब्राह्मणों के नष्ट होनेपर सारी पृथ्वी नष्ट हो जायगी और पृथ्वी का नाश होने पर स्वर्ग भी नष्ट हो जायगा।
महाबाहो ! जगत्पते ! आप ऐसी कृपा करें, जिससे आपके द्वारा सुरक्षित होकर सब लोग विनाश को न प्राप्त हों।
भगवान् विष्णु बोले – देवताओं ! प्रजा के विनाश का जो कारण उपस्थित हुआ है वह सब मुझे ज्ञात है। मैं तुम लोगों को भी बता रहा हूँ; निश्चिन्त होकर सुनो –
दैत्यों का एक अत्यन्त भयंकर दल है जो कालेय नाम से विख्यात है। उन दैत्यों ने वृत्रासुर का सहारा लेकर सारे संसार में तहलका मचा दिया था। परम बुद्धिमान् इन्द्रके द्वारा वृत्रासुरको मारा गया देख वे अपने प्राण बचाने के लिये समुद्र में जाकर छिप गये हैं।
नाक और ग्राहों से भरे हुए भयंकर समुद्र में घुसकर वे सम्पूर्ण जगत्का संहार करने के लिये रात में निकलते तथा यहाँ ऋषियों की हत्या करते हैं। उन दानवों का संहार नहीं किया जा सकता; क्योंकि वे दुर्गम समुद्र के आश्रय में रहते हैं। अतः तुम- लोगों को समुद्र को सुखाने का विचार करना चाहिये।
महर्षि अगस्त्य के सिवा दूसरा कौन है जो समुद्र का शोषण करने में समर्थ हो । समुद्र को सुखाये बिना वे दानव काबू में नहीं आ सकते।
भगवान् विष्णु की कही हुई यह बात सुनकर देवता ब्रह्माजी की आज्ञा ले अगस्त्य के आश्रम पर गये। वहाँ उन्होंने मित्रावरुण के पुत्र महात्मा अगस्त्यजी को देखा। उनका तेज उद्भासित हो रहा था। जैसे देवतालोग ब्रह्माजी के पास बैठते हैं, उसी प्रकार बहुत-से ऋषि- मुनि उनके निकट बैठे थे।
अपनी महिमा से कभी च्युत न होनेवाले मित्रावरुण नन्दन तपोराशि महात्मा अगस्त्य आश्रम में ही विराजमान थे। देवताओं ने समीप जाकर उनके अद्भुत कर्मों का वर्णन करते हुए स्तुति प्रारम्भ की।
देवता बोले- भगवन्! पूर्वकाल में राजा नहुष के अन्याय से संतप्त हुए लोकों की आपने ही रक्षा की थी। आपने ही उस लोककण्टक नरेश को देवेन्द्रपद तथा स्वर्ग से नीचे गिरा दिया था।
पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्य सूर्यदेव पर क्रोध करके जब सहसा बढ़ने लगा तब आपने ही उसे रोका था। आपकी आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए विन्ध्यगिरि आज भी बढ़ नहीं रहा है।
विन्ध्यगिरि के बढ़ने से जब सारे जगत्में अन्धकार छा गया और सारी प्रजा मृत्यु से पीड़ित होने लगी। उस समय आपको ही अपना रक्षक पाकर सबने अत्यन्त हर्षका अनुभव किया था।
सदा आप ही हम भयभीत देवताओं के लिये आश्रय होते आये हैं। अतः इस समय भी संकट में पड़कर हम आपसे वर माँग रहे हैं; क्योंकि आप ही वर देनेके योग्य हैं ।
शेष कथा अगले भाग में…