कमलेश कमल। “वासना-विकारहीनता के बिना प्रकाश-प्राप्ति संभव ही नहीं है।”- बुद्ध वासना और इससे मिलने वाले दुःखों की चर्चा जनमानस में परिव्याप्त है, पर इनकी उत्पत्ति, प्रकृति और अंतर्संबंध पर अंतर्दृष्टि का सर्वथा अभाव और दैन्य परिलक्षित होता है।
सबसे पहले तो यही प्रश्न है कि वासना है क्या? वासना है इच्छाओं की अधिकता। वासना है सुख-लोलुपता। वासना है- प्राप्ति की चाह। वासना है- ‘सुखभोग की कामना’। वासना है- ‘इंद्रियों की गुलामी’, ‘इंद्रियों की सत्ता’। वासना है- ‘और-और-और की चाह’। वासना है मन की दुर्बलता, यह है किसी व्यक्ति या वस्तु के पीछे पागल हो जाना, उससे चिपक जाना। यह संभोग का हो सकता है, ज़मीन, मकान, दुकान, कार, क़बाब या शराब किसी भी चीज का हो सकता है।
यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वासना का यह अर्थ नहीं कि कोई कांक्षा (इच्छा) ही न हो। निर्भ्रान्त सत्य यह है कि जब तक शरीर है, मानुषी-तन है, इच्छाएँ रहेंगी। पर कितनीं? नियंत्रित या अनियंत्रित? सीमित या असीमित? परिमित या अपरिमित-अदमनीय?? देखा जाता है कि वासना असीमित, अनियंत्रित और अदमनीय हो जाती है।
वासना से चित्त उखड़ा-उखड़ा रहता है, अशांत रहता है। अशांत होते ही वासना को विस्तार मिलता है जिसके चक्रव्यूह में फँसकर व्यक्ति अनेक पाप करता है। इसलिए कहा जाता है कि जब किसी वस्तु की वासना जगे, यह देखना चाहिए कि यह अच्छी लग रही है, इसलिए चाहिए या इसकी सच में आवश्यकता है? इसकी उपादेयता क्या है और उपयोगिता कितनी है?? केवल चाह के लिए चाह दुर्वह इच्छा है, वासना है, दुर्वासना है।
ध्यान से देखें, तो वासना का खेल बड़ा विचित्र है। यह किसी वस्तु के लिए उत्कट चाह या उत्तेजना हो सकती है, या किसी व्यक्ति के लिए या यहाँ तक कि महत्ता के लिए भी। हाँ, ऐसा संभव है कि किसी व्यक्ति का मन धन से ऊब गया हो, और उसे अकस्मात् लगे कि असली नाम और यश तो धन और साम्राज्य छोड़ने में है।
ऐसे में, वह महत्ता या नाम के लिए सारा धन छोड़ सकता है, त्याग और काठिन्य का जीवन जी सकता है। यहाँ भी ग़ौर से देखें, तो त्याग या वैराग्य उसके अंदर घटित नहीं होता है, वह तो वासना के ही एक दूसरे रूप के फ़ेर में फँस गया प्रतीत होता है। ऐसे में, अगर उसके त्याग की चर्चा न हो, तो वह आभ्यन्तर से दुःखी और क्षुब्ध हो सकता है।
वासना के स्वरूप को देखें, तो वासना है अदम्य आसक्ति, संवेदन, प्रलोभन, सनसनी या उत्तेजना। यह किसी भी चीज़ (अच्छी या बुरी) की हो सकती है और हम जानते हैं कि अति हर चीज़ की बुरी होती है। वासना अंततोगत्वा दुःख देती है और ऐसा सम्भव है कि लोग एक वासना से दुःखी होकर, दूसरी पकड़ लें। यह तो वासना की अदला-बदली है, स्वरूप परिवर्तन है। जहाँ तक वासना के त्याग का प्रश्न है, तो यह त्याग आत्यंतिक रूप से घटित होता है, ऊपर से नहीं, किसी लोभ में नहीं।
अब प्रश्न है कि क्या है वासना की प्रकृति? तो, इसका उत्तर है कि अपनी प्रकृति में वासना है ‘मन की बीमारी’। जैसे शरीर की बीमारी को हम अस्वीकार नहीं करते, प्रत्युत उसका इलाज़ करते हैं, वैसे मन की बीमारी (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह) के साथ हम नहीं करते। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि इसकी सत्ता को जानते हुए भी, इस बीमारी का पता होते हुए भी व्यक्ति इसे अस्वीकार करता है।
यहाँ तक कि अगर कोई दूसरा इंगित कर दे, डायग्नोज़ कर दे, तो उससे भी झगड़ पड़ता है। दरअसल इसकी स्वीकृति से व्यक्ति को हीनता बोध होता है…उसे अपनी लघुता, क्षुद्रता दिख जाती है कि उसके अंदर यह वासना है, या कमी है। अतः, वह अपने पूरे सामर्थ्य से उस अस्वीकार करने लगता है। दूसरों के सामने कैसे माने कि उसके अंदर लोभ है, काम है या क्रोध है?
अब प्रश्न उठता है कि कैसे काम करता है वासना का जाल? इसका उत्तर है कि बेरोज़गारी, बोरियत और व्यर्थ का बुद्धिविलास व्यक्ति को काम के द्वार पर छोड़ आते हैं। व्यक्ति आरंभ कहीं और से करता है और पहुँच जाता है, काम के द्वार। इस प्रक्रिया की समझ और आत्म-अनुशासन से इसे रोक सकना या सीमित करना ही साधना है। यही आत्म-अनुशासन या स्वयं को काबू रखना ही वासनाजन्य दुःख से बचने की चाभी है।
वासना का जाल है- यह मिथ्याबोध कि मैं और मेरा सुख-दुख बहुत गहराई में सम्बद्ध हैं या एक ही हैं। इसके विपरीत, विवेक है यह अवबोध कि मैं और मेरे सुख-दुख पृथक्-पृथक् हैं। यह विवेक जागना बहुत कठिन है। एक वाक्य में कहें, तो वासना पर विजय सात्त्विकता के आधिक्य के बिना संभव ही नहीं है।
सात्त्विकता क्या है? यह है सुखभोगों की स्पृहा की समाप्ति, सुखासक्ति की समाप्ति। महत्ता है इस भाव का जगना कि मैं सुखभोग करना नहीं, दूसरों को पहुँचाना चाहता हूँ।
वासना के प्रश्न पर पुनः लौटें, तो यह है भोग में रमना। भोग बाँधता है। इसमें बहुत कुछ चाहिए और सदा चाहिए। भोग प्रतीक्षा नहीं जानता। वैसे, त्वरित सफलता की स्पृहा भी एक भोग ही है। अधैर्यवान् और ऊर्जावान् भोगी ऐसा ही तो चाहता है कि सब मिले और शीघ्र मिले। क्या ऐसे भोगी लोगों को सफलता मिल सकती है? वासना के दमन से तो नहीं मिल सकती। संयम की साधना से ही ऐसे लोगों को सफलता मिल सकती है, अन्यथा देखा जाता है कि हरदम इन्हें इनकी योग्यता से कम मिलता है।
वासना का दमन क्यों नहीं? क्योंकि दमन और दुःख में अन्योन्याश्रित संबंध है। वासना का दमन तप नहीं है, वासना का ऊर्ध्वगमन तप है। इसी अर्थ में शास्त्रों में कहा गया है कि मूढ़ है वह व्यक्ति जो इंद्रियों को दबाता है; क्योंकि बेचारी इंद्रियों का कोई कसूर नहीं है…वे तो मन की सेविकाएँ हैं। उदाहरण के लिए आँख, या हाथ या जिह्वा की अपनी कोई इच्छा नहीं होती। इच्छा मन की होती है और ये इन्द्रियाँ तो मन की गुलामी करती हैं। ये तो निर्दोष और निष्पाप होती हैं और मन के इशारे पर नाचती हैं।
पर जब व्यक्ति वासना का गुलाम होता है, तो क्या होता है? व्यक्ति विवेकशून्य हो जाता है और विकारग्रस्त हो जाता है। रुचि कब आसक्ति बन जाती है, उसे पता ही नहीं चलता और पता चल भी जाता है, तब भी व्यक्ति कुछ कर नहीं पाता।
यहाँ आसक्ति बढ़ने, या वासना बढ़ने का अर्थ है भोगप्राप्ति की इच्छा का बढ़ना। भोगप्राप्ति की इच्छा का बढ़ना मतलब पदार्थ और शरीरजन्य आसक्ति का बढ़ना, मनोवेग का लगभग अनियंत्रित हो जाना। ऐसे में यदि इस भोगेच्छा में या कामना प्राप्ति में बाधा उत्पन्न हो, तो क्रोध उत्पन्न होता है। इस चाहत को कोई नकार दे, तो अहं आहत होता है, जो प्रकारांतर से क्रोध की अग्नि को उत्पन्न करता है।
क्रोध अंदर के अव्यवस्थित और डावाँडोल अवस्था की अभिव्यक्ति है। क्रोध के बढ़ने से आत्मनियंत्रण एकदम कम हो जाता है। ऐसे भी आपा खोना ताक़त की निशानी तो हो नहीं सकतती। तो इस दारुण स्थिति में व्यक्ति चाह कर भी अपना मुँह बंद नहीं रख सकता है और अप्रिय वचन बोलता रहता है। कभी-कभी जब आत्म-नियंत्रण एकदम ही दुर्बल हो जाता है, तो व्यक्ति मुँह से ही अप्रिय वचन नहीं बोलता, बल्कि हाथ-पाँव या हथियार आदि से भी सम्बद्ध व्यक्ति को क्षति पहुँचाकर अपने अहं को तुष्ट करने का प्रयास करता है।
यहाँ प्रश्न उठ खड़ा होता है कि वासना की पूर्ति में विघ्न से क्रोध उठता है जिससे इतना अपकार होता है, तो क्यों नहीं वासना को बलपूर्वक दबा दिया जाए, इसका दमन कर दिया जाए? शास्त्र कहते हैं कि वासना के दमन से कुछ सिद्ध नहीं होता, ऊर्ध्वगमन से चमत्कार हो जाता है। दमन करने पर यह पुनः उठ खड़ी होती है, अतः ऊर्ध्वगमन ही उपाय है। यहाँ वासना के ऊर्ध्वगमन से आशय है सुखभोगों से अस्पर्शित रहना, तादात्म्य मुक्त रहना।
वासना के ऊर्ध्वगमन का अर्थ है अस्तित्व के महोत्सव को देखकर, प्रकृति के अनिवर्चनीय, अभिराम सौंदर्य को देखकर आँखें बंद नहीं करना, वरन् उससे आनंदित होना पर बंधन में नहीं पड़ना, मोहाच्छन्न नहीं होना।
वासना का ऊर्ध्वगमन एक गत्यात्मक प्रण है, जो सहज मार्ग का अनुसरण करता है। अगर कोई अभिकांक्षा या कामना हो, तो उसकी पूर्ति में कोई विघ्न आने पर हृदय का आंतरिक लोच उसे बस समुद्घाटित करता है। लोचदार हृदय तीखे, विषाक्त, अग्नि उद्गार अभिव्यक्त नहीं करता है। अति आकांक्षा से दूर वासना के ऊर्ध्वगमन में पता चलता है कि क्या चाहना है और कितना क्या करना है और कितना। इसमें यह समझ भी विकसित हो जाती है कि सभी चीजें एक साथ अच्छी नहीं होगी: कुछ अच्छी होंगी, तो कुछ बुरी भी। इस तरह इसमें व्यावहारिकता रहती है और सीमारेखा का सदा बोध बना रहता है।