Shanti Amoli Binjola नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्त्रत्र सुदुर्लभा
उपनिषद की कहावत है कि मनुष्य जीवन इस लोक में बहुत दुर्लभ है, उससे भी दुर्लभ विद्यावान हो जाना , विद्या की दीक्षा के बाद कवित्व को प्राप्त हो जाना उससे भी दुर्लभतम घटना है और उस कवित्व को अपनी सृजन शक्ति बनाना सच्चा पुरुषार्थ ! यहाँ कवित्व से मेरा तातपर्य उस सांस्कृतिक चेतना से है जिस चेतना का संचार संकलनकत्री ने इस अनूठे सृजन के माध्यम से किया है ! पचास शीर्षकों पर संकलित मांगलिक गीतों का ये ये पुंज “मांगल- लोक गीत व लोकाचार” शान्ति बिंजोला जी का सच्चा साहित्यक व् सांस्कृतिक पुरुषार्थ है !
इसे संकलित करने पर जो परिश्रम व्यय हुआ है वह सपष्ट रूप से उसके वैविध्य रूप में दृष्टिगोचर होता है ! मांगल गीतों का यह संकलन दरससल इन मायनों में भी आज बहुत प्रासंगिक हो जाता है जबकि हम एक भयानक सांस्कृतिक क्षरण काल से गुज़र रहे हैं ! नईं तरुणाई, जिसे वास्तव में इस विधा को संवारना था वही पीढी सबसे अधिक इस विधा से विमुख है! श्रीमती बिंजोला का यह संकलन संस्कृतियों से विमुख होती पीढ़ी में एक सांस्कृतिक बोध भी विकसित करेगी ऐसा मेरा मानना है !
वस्तुत: संस्कृतियाँ हर उस समुदाय का प्रतिबिम्ब होती हैं जिन समुदायों ने दीर्घकालिक स्थायित्व प्राप्त किया है ! विश्व के अनेक ऐसे समुदाय सिर्फ इस लिए नष्ट हो गए क्यूंकि उनकी संस्कृतियाँ क्षीण होतीं गईं !ऐसे में वे समुदाय एक दुर्भाग्यतम सम्राज्यवाद की चपेट में आ गए ! मध्ययुगीन काल देखें तो पश्चिमी मुल्क का दूसरे मुल्कों को गुलाम करने की अवधारणा ही यही थी कि यदि किसी देश को परतन्त्र करना है तो वहां के सांस्कृतिक आचरण पर सर्वप्रथम चोट करो! ऐसा करने से वहां की सभ्यता, संस्कृति, जीवन दर्शन, आचरण की सभ्यता आदि मौलिक व्यवहार ही नष्ट हो जाएगा ! फिर स्वभावतः वह समुदाय व समाज पंगु होकर पराधीनता स्वीकार कर लेगा !
इसलिए संस्कृति की मौलिक अवधारणा को समझना और उसकी ग्राह्यता को बढाना बहुत आवशयक है ! संस्कृति, संस्कारों से जनित एक जीवन का दृढ़ अनुशासन है , जिसका एक ठोस वैज्ञानिक आधार है ! यह कहना बेहद समीचीन होगा की सम्पूर्ण वैज्ञानिक पडतालों के बाद ही समाजों ने अपनी अपनी संस्कृतियों की संरचना तैयार की है और यह सरंचना यदि निरंतर जीवन को आच्छादित रखती है तो जीवन जीने के जो जटिल तरीके हैं वे ऐसा होने की अपेक्षा सहज व सरल होते जाते हैं ! मध्य हिमालयी जीवन पद्धतियों में संस्कृतियों के इतने विशिष्ठ उपादान हैं की उनका विषद अधययन किया जा सकता है ! उन्ही अध्ययनों में एक विशेष अधययन है श्रीमती बिंजोला का यह मंगल संकलन !
जन्म मरण के बीच निष्पादित होने वाले जिन सोलह संस्कारों के निमित्त ये मंगल गीत बुने गए हैं उनमे वस्तुत: जीवन को मंगलकारी बनाने की अभिलाषा व्यक्त की गई है ! सर्वे भवन्तु सुखिन: की मूलभूत कामनाएं हमारे राष्ट्रीय चरित्र की पहचान तो है ही वरन वह लोक की मंगलाकरी कामनाओं में भी उतनी ही पवित्रता से उपस्थित है ! दुनिया की बहुत कम संस्कृतियाँ ऐसी हैं जिनमे पृथ्वी,जल, वृक्ष,पशु-पक्षी,वायु, आकाश, सूर्य, भाई-बहन, माता-पिता व् पित्रों को सम्मान के साथ पूजा जाता हो !
ऐसे विरल उदाहरण गढ़वाल हिमालय में प्रचलित अनेक संस्कृतियों के मजबूत पक्ष रहे हैं ! श्रीमती बिंजोला द्वारा संकलित किये गए मांगल गीतों में वही पक्ष सबसे प्रभावशाली तरीके से उभर कर आते हैं !उनका यही अध्ययन आज की सांस्कृतिक ज़रूरत भी है और घोर अपसंस्कृतियों के दंद-फंद के दौर में एक ठोस आश्वस्ति भी ! व्यक्तिगत तौर पर मेरा सदा से यह भी मानना रहा है कि मंचीय या प्रदर्शनकारी संस्कृतियों के बनिस्पत अभिलेखीकरण की प्रवृत्ति हमें अधिक चिंतनशील बनायेगी ! यद्यपि संस्कृति व् उसका प्रदर्शन चाहे वह लोक प्रदर्शन हो या मंचीय प्रदर्शन दोनों सूरतों में वह उन्नयन ही करेगा किन्तु अंततोगत्वा इस तरह का अनूठा संकलन आने वाले लोक समाज के लिए मील का पत्थर साबित होगा !
श्रीमती शान्ति बिंजोला का यह परिश्रम व भगीरथ प्रयास स्तुत्य है ख़ास तौर से तब जबकि आज की पीढी के लिए विरासत में मिला हुआ हमारा लोक साहित्य व् संस्कृति बेहद अप्रसांगिक है ! असीम संभावनाओं को जागृत करता यह संकलन हम सबके लिए एक प्रकाश पुंज की तरह है , जो दीपित करेगा हमारे लोक समाज को! संकलन की सफलताओं के लिए मेरी अनंत शुभकामनाएं!
राकेश भट्ट