सीबीआई न्यायायलय ने आज एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए सिस्टर अभया के कातिलों को दोषी माना है, और उन्हें कल सजा सुनाई जाएगी। सिस्टर अभया को 28 साल बाद न्याय मिला।उन्होंने मुख्य पादरी फादर थॉमस और नन सैफी को आपत्तिजनक स्थिति में देख लिया था, फिर अगले दिन अभया की लाश कुएं में मिली। पुलिस नें आत्महत्या बताकर केस बंद कर दिया था पर पिता ने लड़ाई लड़ी और कोर्ट ने पादरी व नन को अभया की हत्या का दोषी माना।
कभी आपने सिस्टर अभया का नाम सुना नहीं होगा और न ही सुना होगा कि आखिर उनके साथ हुआ क्या था और दोषी कौन थे? चूंकि वह ईसाई हैं तो यही कहा जाएगा कि उनके साथ किसी भगवाधारी ने कुछ किया होगा। यदि भगवाधारी ने कुछ किया होता तो आज पूरा सोशल मीडिया ख़बरों से और न्याय की जीत जैसे शीर्षकों से भरा होता। पर ऐसा नहीं है। सोशल मीडिया पर चुप्पियों की एक लम्बी दास्ताँ हैं और उन लोगों से तो बहुत ही ज्यादा, जो बात बात स्त्री अस्मिता की बातें करते हैं, एवं आन्दोलन करते हैं।
खैर, उनकी चुप्पियों की दास्तानों से परे चलते हैं और केरल, जी हाँ केरल, जो हमारे क्रांतिकारी लेखकों का सबसे प्रिय प्रांत है, की तरफ रुख करते हैं। वह 1 मार्च 1992 की रात थी, जब प्रभु की सेवा में जीवन समर्पित करने वाली सिस्टर अभया को यह नहीं पता होगा कि रिलिजन के रास्ते पर चलने का उन्हें इतना बड़ा दंड भुगतना होगा कि उन्हें इतनी दर्दनाक मौत मिलेगी। उस पर उसी संस्था के ठेकेदार उसे न्याय दिलाने के स्थान पर उसकी हत्या को आत्महत्या ठहरा देंगे, लेखक जमात एक भी शब्द नहीं बोलेगी।
कोयाट्टम के एक कान्वेंट में 19 साल की अभया की हत्या 1992 में कर दी गयी थी। यह हत्या क्यों की गयी थी, यह सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि यह वह सूत्र है जो मिशनरी के सबसे बड़े झूठ की पोल खोलता है। पवित्रता का लबादा ओढने वाले कथित नैतिक लोग कितने अनैतिक होते हैं यह सिस्टर अभया के मामले से पता चलता है। याद कीजिए, हिन्दू साधु सन्यासियों के खिलाफ चलाया गया मिशनरी का अभियान, जिसमें वह लोग भगवा धर्म को वासना का पर्याय बना देते हैं, पर चुपके से वह लोग यह छिपा ले जाते हैं कि उनके सफ़ेद चोगे रात के समय वासना में स्याह काले हो जाते हैं, इतने काले कि अपने ही चर्च की सिस्टर अभया को पहले गले दबाकर, फिर कुल्हाड़ी से वार करके मरा समझकर जिंदा ही कुँए में फेंक देते हैं। और वह एक बेहद दर्दनाक मृत्यु को प्राप्त होती है।
दरअसल उस रात चर्च में एक चोर घुस आया था, जिसने उस घटना को अपनी आँखों से होते हुए देखा। और वह अडिग रहा कि उसने उस रात दो पादरी और एक नन – थॉमस कुट्टूर, जोस पूथरुकायिल, और सिस्टर सेफी को ‘आपत्तिजनक स्थिति’ में को आपत्तिजनक स्थिति में देखा और सिस्टर अभया ने उन्हें इस स्थिति में देखा, जिस कारण उन तीनों ने मिलकर सिस्टर अभया की हत्या कर दी। और मजे की बात देखिए, कि इसमें एक लड़की भी शामिल थी। किस बात का भय था इन तीनों का? बात खुल जाने का? सो तो खुल ही गयी। भगवान के नाम पर छलने वालों को खुद भगवान ही माफ़ नहीं करते हैं, आपकी प्लानिंग से बढ़कर भगवान की प्लानिंग होती है। पर चर्च वाले और चर्च के पैसों पर पलने वाले बुद्धिजीवी इस बात को समझने से इंकार करते हैं। और प्लान केवल इतना करते हैं कि उनके पाप छिपे रहें। इसीलिए चर्च इस मासूम की हत्या को अभी तक आत्महत्या करार देता रहा।
इतना ही नहीं उस चोर राजू ने भी कहा कि उस पर अपराध कुबूलने के लिए दबाव डाला गया, पर उसने इंकार कर दिया। वह चाहता था कि सच्चाई सामने आए। सीबीआई ने इस मामले में कैथोलिक पादरी थॉमस कोट्टूर और सिस्टर सेफी पर चार्जशीट दायर की थी। अपनी बेटी को न्याय दिलाने की आस में सिस्टर अभया के मातापिता की मृत्यु चार वर्ष पहले हो चुकी है।
आज सीबीआई न्यायालय ने थॉमस कुटूर और सिस्टर सेफी को अपराधी माना है। और फादर जोस पूथरुकायिल को सबूतों के अभाव में पिछले वर्ष छोड़ा जा चुका है। न्यायालय के अनुसार इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि इन दोनों ने मिलकर ही सिस्टर अभया का क़त्ल किया है। पर यह सजा केवल इन्हीं दोनों को नहीं बल्कि स्थानीय पुलिस और चर्च दोनों को मिलनी चाहिए, जिसे न ही अपने कैदखाने में कैद ननों की चीखें सुनाई देती हैं और न ही उन्हें कुँए में तैरती सिस्टर अभया जैसी लडकियां दिखती हैं। सेफी भी दरअसल पीड़ित ही है, वह पीड़ित है, रिलिजन के नाम पर पवित्रता की अवधारणा की। आखिर क्यों लड़कियों को पवित्रता के सब्जबाग दिखाए जाते हैं, और नैसर्गिक इच्छाओं को दबाया जाता है। जब वह इच्छाएं सामने आती हैं, तो उन्हें पूरा करने के लिए जो रास्ता अपनाती हैं, वह निश्चित ही उनके समाज के दायरे में नहीं आता है।
सोचिये, कितना कट्टर और रुढ़िवादी समाज है जो केवल इस बात के आधार पर एक निर्दोष लड़की को मार देता है जिसने एक नन को पादरी के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देख लिया है। दरअसल भारतीय दृष्टि, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही जीवन का सार है। काम जीवन का एक अनिवार्य अंग है, एक अनिवार्य भाग है, इसे समझना होगा। कोई भी पैगम्बर इच्छाओं को मारकर उन्हें पूजने की आज्ञा नहीं देता, फिर पादरी इतने कट्टर और पिछड़े कैसे हो सकते हैं? और सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि हमारे लिबरल साहित्यकार और पत्रकार जो गली मोहल्ले में मात्र भगवा अंगोछे के आधार पर हिन्दू धर्म को बदनाम करने लगते हैं, वह इन स्त्रियों के मामले में चुप क्यों रहते हैं?
चुप्पियों की यह दास्ताँ बहुत दुःख देती है! क्योंकि प्याज की तरह यह आपके दोगलेपन की परत खोलती है और आपके असली चेहरे को दिखाती है, जो सच में गन्दा हो चला है! दुःख की बात यह भी है कि चर्च के नीचे शोषण की तहों के बीच वह अभी क्रिसमस मनाने में व्यस्त हैं। जब नींव में चीखें हों तो खुशियों की मोमबत्ती नहीं जलाई जाती!
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