श्वेता पुरोहित। आजन्म नैष्ठिक ब्रह्मचारी हनुमानजी महान् संगीतज्ञ और गायक भी हैं। इनके मधुर गायन को सुनकर पशु, पक्षी, स्थावर और जङ्गम सभी मुग्ध हो जाते हैं। एक बारकी बात है। एक अतिशय सुन्दर स्वच्छ जलाशयके समीप महान् संगीत सम्मेलन का आयोजन हुआ। देवता, ऋषि और दानव सभी संगीत प्रेमी वहाँ एकत्र थे।
भगवान् पार्वतीवल्लभ एवं देवर्षि नारद आदि गायन कर रहे थे और अन्य देव, ऋषि तथा दैत्य भी उन्हें योगदान दे रहे थे। उसी समय पवनकुमार हनुमानजीने अत्यन्त मधुर स्वरमें गाना प्रारम्भ किया। हनुमानजीने संगीत क्या आरम्भ किया, मानो अमृत-वृष्टि होने लगी। फिर तो अन्य गायकों एवं वाद्यकोंके मुख म्लान हो गये।
वे हनुमानजीकी स्वर-लहरीपर मुग्ध होकर स्वयं चुप हो गये और अत्यन्त शान्तिपूर्वक उस मधुरिम स्वर-लहरीमें झूम उठे। उनके तन, मन, प्राण ही नहीं, रोम-रोम हनुमानजीके सुधा-सदृश गीतके श्रवण करनेमें तल्लीन हो गये। हनुमानजीका मधुरिम स्वर गूँज रहा था।
म्लानमम्लानमभवत् कृशाः पुष्टास्तदाभवन् ।
स्वां स्वां गीतिमतः सर्वे तिरस्कृत्यैव मूच्छिताः ॥
तूष्णीम्भूतं समभवद्देवर्षिगणदानवम् ।
एकः स हनुमान् गाता श्रोतारः सर्व एव ते ॥
इन महामहिम हनुमानजी के जीवन में त्याग-ही- त्याग भरा है। अपने आराध्य श्रीरघुनाथजीकी विशुद्ध प्रीति, उनकी लीला-कथाका श्रवण एवं उनके मङ्गलमय नाम-कीर्तनके अतिरिक्त इन्हें और कुछ अभीष्ट नहीं।
यशः कामनाका त्याग कितना कठिन होता है? स्त्री-पुत्र, घर-द्वार, अपार सम्पत्ति ही नहीं, यशके लिये प्राणका भी त्याग किया जा सकता है, किंतु उस यशका त्याग सहज नहीं।
गौराङ्ग महाप्रभु-नाम-संकीर्तनके प्राण चैतन्यदेवके मित्रने महाप्रभुकी कृति देखी तो वे दुःखी ही नहीं हुए, उनके नेत्रोंसे आँसू बह चले। बोले ‘इस महान् ग्रन्थके सम्मुख मेरी न्यायबोधिनी सर्वथा नगण्य सिद्ध हो जायगी। इसे कोई नहीं पूछेगा।’
तत्क्षण महाप्रभुने अपना अनमोल ग्रन्थ गङ्गा मैयाके अङ्कमें विसर्जित कर दिया। उनका यह महान् त्याग आजतक उनके ग्रन्थसे भी अधिक उनकी उज्ज्वल कीर्तिको बढ़ा रहा है। किंतु इस महत्तम आदर्शकी स्थापना श्रीरघुनाथजीके अमलकमल चरणानुरागी पवन कुमारने युगोंपूर्व ही कर दी थी।
कथाश्रवणरूपा भक्तिके प्रथम एवं प्रधान आचार्य अञ्जनानन्दनको जब थोड़ा-सा भी अवकाश मिलता, तब वे समीपस्थ पर्वतपर चले जाते और वहाँके स्फटिक-तुल्य उज्ज्वल शिलाओं पर अपने परम प्रभुका स्मरण-चिन्तन करते हुए स्वान्तः सुखाय उनका चरित्र लिखते जाते। चरित्र पूरा हो गया। कहते हैं, हनुमानजी के आशीर्वाद एवं पद-पदपर उनके सहयोगसे श्री तुलसी दास जी ने लोकप्रिय रामचरितमानसकी रचना की थी, फिर स्वयं हनुमानजी-जैसे श्री रघुनाथ जी के ज्ञानमूर्ति सेवक के द्वारा तन्मयता पूर्वक लिखा गया अपने आराध्य का चरित्र किस कोटिका रहा होगा, सोचना भी सहज नहीं। यह समाचार महर्षि वाल्मीकिजी को मिला। हनुमानजी के समीप पहुँचकर उन्होंने निवेदन किया- आपके द्वारा रचित रामचरित को देखने की मेरी इच्छा है।’
संकोची हनुमानजी क्या उत्तर देते? वे महर्षिको अपने कंधेपर बैठाकर पर्वतपर पहुँचे। पवनकुमार एक ओर खड़े होकर हाथ जोड़े अपने प्रभुके स्मरणमें तल्लीन हो गये और महर्षि उनके द्वारा लिखे गये रामचरित का प्रत्येक शब्द ध्यानपूर्वक देखने लगे। महर्षि वाल्मीकि जैसे-जैसे उस रामचरित को देखते जाते, उनका मुख मलिन होता जाता और सम्पूर्ण रामचरित पढ़ लेने पर तो वे अत्यन्त उदास हो गये।
उन्होंने श्रीरामभक्त हनुमानजी की ओर देखकर कहा- ‘पवनपुत्र ! भगवान् श्रीरामका श्रेष्ठतम पावन चरित्र है यह। अब इससे उच्चकोटिका श्रीरामचरित्र त्रिकालमें भी सम्भव नहीं। मैं आपसे एक वरकी याचना करना चाहता था।’
‘आज्ञा करें। सेवक प्रस्तुत है।’ हनुमानजी का उत्तर सुनते ही महर्षि वाल्मीकिने नतमस्तक होकर धीरे- धीरे कहा- ‘मेरी रामायण का सर्वत्र प्रचार हो गया है और यशः कामनाके कारण मुझे घृणित स्वार्थ अशान्त कर रहा है। आपके इस रामायण के सम्मुख मेरी रामायण व्यर्थ सिद्ध।’
‘इतनी-सी बात के लिये चिन्ता उचित नहीं’- महर्षि का वाक्य पूरा होनेके पूर्व ही हनुमानजी बोल उठे।
हनुमानजीने तुरंत शिलाओंपर लिखे गये सम्पूर्ण रामचरितको एकत्र किया और फिर उन्हें लेकर एक कंधेपर महर्षि को बैठाया और समुद्रकी ओर चल पड़े। हनुमानजी ने अपने आराध्य के उस महत्तम लीला- चरित्रको महर्षिके देखते-ही-देखते समुद्रमें डुबाते हुए कहा- अब इसे कभी कोई नहीं पढ़ सकेगा।’
यह सर्वथा निःस्पृह हनुमानजी का सहज त्याग था। उन्होंने इसे कभी त्याग नहीं समझा, किंतु महर्षि के नेत्र भर आये। सैंधे कण्ठ से उन्होंने कहा- ‘मारुतात्मज ! मेरी इस घृणित स्वार्थान्धता को जगत् अनादरपूर्वक स्मरण करेगा, किंतु आपका धवल यश आपकी निर्मल भगवद्भक्ति के साथ उत्तरोत्तर बढ़ता ही जायगा।’
महर्षि वाल्मीकि गद्गद कण्ठ से भक्तराज हनुमान का स्तवन करने लगे।
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीस तिहुं लोक उजागर