संदीप देव। इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह कहना है कि हिंदू विवाह में ‘कन्यादान’ की विधि आवश्यक नहीं है’, न केवल न्यायधीशों की अज्ञानता को प्रदर्शित करता है, बल्कि यह हिंदू रीति-रिवाज में जबरदस्ती हस्तक्षेप का प्रयास भी दर्शाता है!
न्यायाधीशों को वैदिक वैवाहिक विधि का कोई अध्ययन नहीं है, अतः उन्हें या तो अध्ययन करना चाहिए या इसके जानकार विशेषज्ञों की सहायता लेनी चाहिए, फिर कोई टिप्पणी करनी चाहिए।
अथर्ववेद के 14 वें कांड में विवाह संस्कार से संबद्ध विधियों व कार्यों का वर्णन है। इसमें कन्यादान का साफ-साफ वर्णन है।
सोमो वधूयुरभवदश्विनास्तामुभा वरा.
सूर्यां यत् पत्ये शंसन्तीं मनसा सविताददात्..| 14|1|9
अर्थात्:- सोम वधु की इच्छा करने वाले हुए। दोनों अश्विनी कुमार उनके साक्षी थे। तब सविता(देव) ने मन से स्तुति करने वाली सूर्या को पति के हाथ में दान के रूप में दिया।(9)
साफ-साफ कन्यादान का उल्लेख वेदों में है, इसके बावजूद हाईकोर्ट का यह कहना कि कन्यादान आवश्यक नहीं, यह न्यायधीशों की हिंदू धर्म के प्रति अज्ञानता अथवा किसी खास उद्देश्य को प्रदर्शित करता है। न्यायाधीशों को बिना ज्ञान हिंदू धर्म के अनुष्ठानों पर इस तरह टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं है।