मूवी रिव्यू : द सोशल डिलेमा
The Social Dilemma
इस समय संपूर्ण विश्व व्हाट्सएप और सिग्नल के बीच उलझा हुआ है और तय कर रहा है कि उसे किसके साथ रहना है। व्हाट्सएप की पॉलिसी के बारे में पता चलते ही लोगों ने इसे अपने फोन से हटाना शुरु कर दिया था। लोगों को पसंद नहीं आया कि कोई कंपनी उनकी निजी जानकारी बाज़ार में बेच दे। इस विश्वव्यापी विरोध को देखकर पता चलता है कि मानव अब अभी पूरी तरह से वर्चुअल नहीं हुआ है।
ऐसे विरोध समय-समय पर हमें बताते रहते हैं कि मानव मन की प्रतिकार करने की क्षमता इस वर्चुअल युग में जीवित है। साल 2020 में एक डाक्यूमेंट्री प्रदर्शित हुई थी। ‘द सोशल डिलेमा’ देखते हुए ऐसा अनुभव हुआ, कि हम अपनी ही कथा देख रहे हैं। इसे देखकर एक पुरानी साइंस कथा का भी स्मरण हुआ। ‘द मेट्रिक्स’ में दिखाया गया है कि मशीनें भविष्य में इतनी शक्तिशाली हो चुकी है कि मानव उनका गुलाम हो चुका है।
उसे अपने शरीर का स्मरण ही नहीं है, जिसकी ऊर्जा से मशीनें चल रही हैं। वह एक आभासी जगत में है, जहाँ घर से लेकर सड़के, जंगल और नदियां भी आभासी हैं। ये डाक्यूमेंट्री देखने के बाद आप फेसबुक पर रोज़ बिता रहे समय को गिनने के लिए विवश हो सकते हैं। शायद ये डाक्यूमेंट्री इसलिए ही बनाई गई है।
डाक्यूमेंट्री के निर्देशक जेफ़ ओर्लोस्की हैं। ‘ द सोशल डिलेमा’ कंप्यूटर क्रान्ति से लेकर अब तक के घटनाक्रम को सहज ढंग से सामने रखती है। ‘डिलेमा’ का अर्थ होता है ‘असमंजस’। इसमें दो कथाएं साथ चलती हैं। वास्तव में इसे डॉक्यूड्रामा कहना उचित होगा। एक ओर गूगल, ट्वीटर, फ़ायरफ़ॉक्स, फेसबुक पर काम करने वाले पूर्व कर्मचारियों के कथन हैं तो दूसरी ओर इस वास्तविक पटल पर एक अमेरिकन परिवार की कहानी भी चलती है।
डाक्यूमेंट्री झकझोर देने वाले ढंग से बता रही है कि नियमित सोशल मीडिया जीवन जीने वालों पर कितना बड़ा संकट आ गया है। इसे देखकर पता चला कि फेसबुक, ट्विटर पर घंटों बिताने वाले हम लोग इन कंपनियों के नियमित कामगार बन चुके हैं। सच बताने वालों में सभी ऐसे लोग हैं, जिन्होंने शुरुआती दौर में सोशल मीडिया को लोगों के बीच स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई थी।
ट्रिस्टान हैरिस गूगल के लिए तकनीकी सेवाएं देते थे। एक दिन उनको अनुभव हुआ कि वे लोगों को इस जाल में फंसाने के भागीदार हैं। इसके बाद उन्होंने ये काम छोड़ एक जागरुकता अभियान छेड़ दिया। बताया गया है कि जब विश्व मोबाइल पर अधिक समय बिताने लगा तो इन लोगों को चिंता हुई कि उनके किये अविष्कारों से विश्व लाभ कम ले रहा है और भटक अधिक रहा है।
सबसे चौंकाने वाले तथ्य तो ये हैं कि आप सोशल मीडिया कंपनियों के अघोषित गुलाम बन चुके हैं। पता चलता है कि पिछले दस वर्ष से सिलिकॉन कंपनियां अपने उपभोक्ताओं को बेच रही हैं। हम मुफ्त में इन सेवाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनकी क़ीमत विज्ञापन कंपनियां चुका रही हैं इसलिए ‘यूजर्स’ को बेचा जा रहा है। यदि आप किसी प्रोडक्ट के लिए पैसा नहीं चुकाते तो आप स्वयं एक प्रोडक्ट हैं। डाक्यूमेंट्री में रोचक ढंग से इसे दिखाया गया है। हमारे हर पोस्ट और मैसेज को वे पढ़ रहे हैं।
आपकी सारी गतिविधि रिकॉर्ड की जा रही है। आप कितनी देर कोई वीडियो या फोटो देखते हैं, इसका लेखाजोखा भी उनके पास रहता है। उनको पता है आप कब अकेला महसूस करते हैं। उन्हें पता है आप दोस्तों के साथ क्या प्लान कर रहे हैं। आपका व्यक्तित्व कैसा है। आप उदास क्यों हैं, आपकी रिलेशनशिप के बारे में वे पूरी खबर रख रहे हैं। वे लोग ‘यूजर्स’ के व्यवहार और इमोशंस को बदल सकते हैं और लोगों को पता भी नहीं चलेगा।
डाक्यूमेंट्री में ‘एल्गोरिथ्म’ शब्द की सुंदर व्याख्या की गई है। फेसबुक चलाने वालों को इस शब्द के बारे में मालूम होना चाहिए। इसका अर्थ भी बड़ा भयंकर है। एल्गोरिथ्म का अपना दिमाग होता है। उसे मानव बनाता है लेकिन एक समय बाद वह खुद को बदलना शुरु कर देता है। इसका मतलब है वर्तमान में चल रहे एल्गोरिथ्म पर किसी का कंट्रोल नहीं है।
ये मशीने इसे स्वयं नियंत्रित कर रही हैं। कितना भयानक है ये जानना कि सोशल मीडिया पर आपकी पसंद और आपके इमोशंस बदल देने की ताकत चंद कम्प्यूटर्स के पास है और वे इतने संगठित हैं कि मनुष्य का नियंत्रण भी उन पर नहीं रहा है।
एल्गोरिथ्म यानी मशीनी जाल को ये समझ में आया कि आप लोग फेक न्यूज़, हिंसा वाले वीडियो, राजनीतिक ख़बरें देखना अधिक पसंद करते हैं। उसने इस जाल को आपकी पसंद से बनाया है। डाक्यूमेंट्री देखने से पूर्व आप एक अन्य व्यक्ति होंगे और इसके ख़त्म होने पर आप सचेत और जागे हुए अनुभव करेंगे।
इस डॉक्यूड्रामा के एक दृश्य को देखकर आप सिहर उठेंगे। एक महिला ने तय कर लिया है कि खाने के समय किसी के पास मोबाइल नहीं होगा। वह सबसे मोबाइल लेकर एक बॉक्स में रख डिजिटल लॉक लगा देती है। ये बॉक्स अब एक घंटे बाद ही खुलेगा। महिला की टीनएज बिटिया को उसी समय एक नोटिफिकेशन आता है। वह एक हथौड़े से बॉक्स तोड़कर अपना मोबाइल निकाल लेती है।
मोबाइल कंपनियों और सिलिकॉन कंपनियों का खेल ये परिणाम लाया है कि फोन हमसे दस मिनट के लिए दूर हो जाए, बर्दाश्त नहीं है। ये डाक्यूमेंट्री हर उस व्यक्ति को देखना चाहिए, जिसे लगता है कि ये आभासी जीवन उसकी वास्तविकता को समूल नष्ट करता जा रहा है। इस डाक्यूमेंट्री को नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित किया गया है और इसे हिन्दी अनुवाद के साथ भी देखा जा सकता है।