मूवी रिव्यू : थालापथी 64 (मास्टर)
जेडी का नाम जैक दुराईराज है। कहने को प्रोफेसर है लेकिन शराब मुंह को लगी हुई है। कॉलेज के चुनाव में हिंसा होने के बाद उसे सज़ा देकर छुट्टियों पर भेज दिया गया है। जेडी को एक बाल सुधार गृह का मास्टर बनाकर भेजा गया है। बाल सुधार गृह एक दुर्दांत अपराधी भवानी के कब्ज़े में है। भवानी अपने अपराधों को बच्चों से कबूल करवा कर उन्हें जेल भेजता रहता है। जब जेडी को सच्चाई का पता चलता है तो वह भवानी के खिलाफ खड़ा हो जाता है।
ये रक्तरंजित द्वन्द अंततः एक सुखद अंत की ओर जाता है। विजय सेतुपति और जोसफ विजय की इस फिल्म ने सिनेमाघरों में तूफ़ान मचाकर रखा हुआ है। कोरोना काल में बंद हुए सिनेमाघरों में सच्ची रौनक लौट आई है। इस फिल्म की विहंगम सफलता से प्रतीत हो रहा है कि इतिहास ने स्वयं की पुनरावृत्ति की है। जब देश में आपातकाल लगाया गया था तो उससे उपजे तनाव को फिल्म ‘शोले’ के प्रदर्शन ने कुछ हद तक कम किया था।
ऐसा ही ‘मास्टर’ के विषय में कहा जा सकता है। कोरोना काल को एक वर्ष बीत गया। बीते एक वर्ष में सिनेमाघरों में सन्नाटा छाया रहा। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर प्रदर्शित फ़िल्में भी पिट गई। भारत का फिल्म उद्योग आर्थिक संकट में आ गया। कोरोना नामक सूक्ष्म दैत्य से भयभीत दर्शक को थियेटर में खींचने के लिए जिस फिल्म की आवश्यकता थी, ‘मास्टर’ ऐसी ही फिल्म है। ये कोई महान फिल्म नहीं है।
ये एक औसत कहानी होते हुए भी दर्शक को निर्मल आनंद देने में सफल रही है। मास्टर फिल्म देखते हुए प्रतीत हुआ कि इसके निर्देशक लोकेश कंगाराज को दर्शकों की नब्ज़ कितनी अच्छी तरह पता है। फिल्म मेकिंग के विद्यार्थियों को भी ये फिल्म देखकर सीखना चाहिए कि एक मुकम्मल फिल्म कैसे बनाई जा सकती है। फिल्म की शुरुआत में मुझे ये बात बहुत पसंद आई कि निर्देशक कहानी के गति पकड़ने से पूर्व दो मुख्य कलाकारों की ‘कैरेक्टर बिल्डिंग’ किस सूक्ष्मता के साथ प्रस्तुत करते हैं।
भवानी की क्रूरता और जेडी का साहस का कंट्रास्ट कहानी में आकर्षण और भव्यता पैदा करता है। फिल्म में कई बेहतरीन दृश्य हैं। इनमे एक दृश्य बहुत प्रभावित करने वाला रहा। जेडी भवानी के गुंडों को लॉकअप में बुरी तरह पीटता है। ये दृश्य दर्शक के रोष को अभिव्यक्ति देता प्रतीत होता है। फिल्म के सभी कलाकारों ने अपने किरदार निष्ठा से अभिनीत किये हैं। विजय सेतुपति और जोसेफ विजय की केमेस्ट्री दर्शक को लुभाती है।
इसके एक्शन दृश्यों में एक ताज़गी दिखाई देती है। फिल्म में लड़ाई के दृश्य ‘लार्जर देन लाइफ’ नहीं लगते, अपितु वास्तविक से लगते हैं। हमने महसूस किया था कि गत वर्ष ओटीटी पर जो कंटेंट परोसा गया, उसमे खांटी भारतीयता कहीं दिखाई नहीं देती थी। ‘गुल्लक’, ‘कागज़’, ‘स्केम 1992’ जैसी कुछ फिल्मों ने ज़रुर अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन अधिकांश फ़िल्में दर्शक को प्रभावित करने में असफल सिद्ध हुई।
कोरोना काल के बाद आप दो फिल्म उद्योगों के अंतर को महसूस कर सकते हैं। ‘मास्टर’ विजयपथ पर सरपट दौड़ रही है। उन पर बॉलीवुड की तरह सुशांत सिंह राजपूत और ड्रग्स का अभिशाप नहीं है। बॉलीवुड के पास वर्तमान में ‘मास्टर’ जैसी फिल्म नहीं है और न ऐसे सितारें, जिनके नाम पर लोग दौड़े चले जाए। ओपनिंग के इस खेल में बॉलीवुड की संभावनाएं क्षीण दिखाई देती है।
अक्षय कुमार, सलमान खान, आमिर खान जैसे बुझे हुए सितारों के बल पर बॉलीवुड आकाश फाड़ ओपनिंग के स्वप्न देख रहा है। स्वप्न देखना बुरा नहीं है लेकिन बॉलीवुड के निर्माता-निर्देशकों को ‘मास्टर’ अवश्य देखनी चाहिए और सोचना चाहिए कि देश और धर्म विरोधी एजेण्डावादी फ़िल्में बनाते-बनाते वे एक ऐसी खाई में उतर चुके हैं, जहाँ से निर्मल आनंद वाली मनोरंजन प्रस्तुति देना उनके लिए मुश्किल है। काश कि वे सिर्फ फिल्म बनाने के बारे में सोचते।