श्वेता पुरोहित। इस कल्प के प्रथम सत्ययुग की बात है, एक समय बड़ी भयंकर परिस्थिति उत्पन्न हो गयी थी। उस समय आदिदेव पुरातन पुरुष भगवान् श्रीहरि ही यमराज का भी कार्य सम्पन्न करते थे। परम बुद्धिमान् देवदेव भगवान् श्रीहरि के यमराज का कार्य सँभालते समय किसी भी प्राणी की मृत्यु नहीं होती थी; परंतु उत्पत्तिका कार्य पूर्ववत् चलता रहा । फिर तो पक्षियों के समूह बढ़ने लगे। गाय, बैल, भेड़-बकरे आदि पशु, घोड़े, मृग तथा मांसाहारी जीव सभी बढ़ने लगे। जैसे बरसात में पानी बढ़ता है, उसी प्रकार मनुष्य भी हजार एवं दस हजार गुनी संख्या में बढ़ने लगे। इस प्रकार सब प्राणियों की वृद्धि होने से जब बड़ी भयंकर अवस्था आ गयी तब अत्यन्त भार से दबकर यह पृथ्वी सैकड़ों योजन नीचे चली गयी।
भारी भार के कारण पृथ्वी देवी के सम्पूर्ण अंगों में बड़ी पीड़ा हो रही थी। उसकी चेतना लुप्त होती जा रही थी। अतः वह सर्वश्रेष्ठ देवता भगवान् नारायण की शरण में गयी।
पृथ्वी बोली – भगवन् ! आप ऐसी कृपा करें जिससे मैं दीर्घ कालतक यहाँ स्थिर रह सकूँ। इस समय मैं भार से इतनी दब गयी हूँ कि जीवन धारण नहीं कर सकती। भगवन्! मेरे इस भार को आप दूर करनेकी कृपा करें। देव ! मैं आपकी शरण में आयी हूँ। विभो ! मुझपर कृपाप्रसाद कीजिये।
पृथ्वी का यह वचन सुनकर अविनाशी भगवान् नारायण ने प्रसन्न होकर श्रवणमधुर अक्षरों से युक्त मीठी वाणी में कहा – वसुधे ! तू भार से पीड़ित है; किंतु अब उसके लिये भय न कर। मैं अभी ऐसा उपाय करता हूँ जिससे तू हलकी हो जायगी ।
पर्वतरूपी कुण्डलों से विभूषित वसुधादेवी को विदा करके महातेजस्वी भगवान् विष्णु ने वाराह का रूप धारण कर लिया। उस समय उनके एक ही दाँत था, जो पर्वत-शिखर के समान सुशोभित होता था। वे अपने लाल-लाल नेत्रों से मानो भय उत्पन्न कर रहे थे और अपनी अंगकान्ति से धूम प्रकट करते हुए उस स्थान पर बढ़ने लगे। अविनाशी भगवान् विष्णु ने अपने एक ही तेजस्वी दाँत के द्वारा पृथ्वी को थामकर उसे सौ योजन ऊपर उठा दिया। पृथ्वी को उठाते समय सब ओर भारी हलचल मच गयी। सम्पूर्ण देवता तथा तपस्वी ऋषि क्षुब्ध हो उठे। स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा भूलोक सबमें अत्यन्त हाहाकार मच गया। कोई भी देवता या मनुष्य स्थिर नहीं रह सका।
तब अनेक देवता और ऋषि ब्रह्माजी के समीप गये। उस समय वे अपने आसन पर बैठकर दिव्य कान्ति से प्रकाशित हो रहे थे। लोकसाक्षी देवेश्वर ब्रह्माके निकट पहुँच कर सबने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और कहा- ‘देवेश्वर ! सम्पूर्ण लोकों में हलचल मच गयी है। चर और अचर सभी प्राणी व्याकुल हैं। समुद्रों में बड़ा भारी क्षोभ दिखायी दे रहा है। ‘यह सारी पृथ्वी सैकड़ों योजन नीचे चली गयी थी, अब यह किसके प्रभाव से कौन-सी अद्भुत घटना घटित हो रही है जिससे सारा संसार व्याकुल हो उठा है। आप शीघ्र हमें इसका कारण बताइये। हम सब लोग अचेत-से हो रहे हैं’।
ब्रह्माजीने कहा- देवताओ ! तुम्हें असुरों से कभी और कोई भय नहीं है। यह जो चारों ओर क्षोभ फैल रहा है, इसका क्या कारण है? वह सुनो। वे जो सर्वव्यापी अक्षरस्वरूप श्रीमान् भगवान् नारायण हैं, उन्हीं के प्रभाव से यह स्वर्गलोक में क्षोभ प्रकट हो रहा है। यह सारी पृथ्वी, जो सैकड़ों योजन नीचे चली गयी थी, इसे परमात्मा श्रीविष्णुने पुनः ऊपर उठाया है। इस पृथ्वी का उद्धार करते समय ही सब ओर यह महान् क्षोभ प्रकट हुआ है। इस प्रकार तुम्हें इस विश्वव्यापी हलचल का यथार्थ कारण ज्ञात होना और तुम्हारा आन्तरिक संशय दूर हो जाना चाहिये।
देवता बोले- भगवन् ! वे वाराहरूपधारी भगवान् प्रसन्न-से होकर कहाँ पृथ्वी का उद्धार कर रहे हैं, उस प्रदेश का पता हमें बताइये; हम सब लोग वहाँ जायँगे।
ब्रह्माजी ने कहा- देवताओ ! बड़े हर्ष की बात है, जाओ। तुम्हारा कल्याण हो। भगवान् नन्दनवन में विराजमान हैं। वहीं उनका दर्शन करो। उस वनके निकट ये स्वर्ण के समान सुन्दर रोमवाले परम कान्तिमान् विश्वभावन भगवान् श्रीविष्णु वाराहरूपसे प्रकाशित हो रहे हैं। भूतल का उद्धार करते हुए वे प्रलय कालीन अग्नि के समान उद्भासित होते हैं। इनके वक्षःस्थलमें स्पष्टरूपसे श्रीवत्सचिह्न प्रकाशित हो रहा है। देवताओ! ये रोग-शोकसे रहित साक्षात् भगवान् ही वाराहरूपसे प्रकट हुए हैं, तुम सब लोग इनका दर्शन करो। तदनन्तर देवताओं ने जाकर वाराह रूपधारी परमात्मा श्रीविष्णु का दर्शन किया, उनकी महिमा सुनी और उनकी आज्ञा लेकर वे ब्रह्माजी को आगे करके जैसे आये थे वैसे लौट गये।
ॐ नमो भगवते वराहरूपाय भूर्भुवः स्वः पतये भूपतित्वं मे देहि द दापय स्वाहा॥