विपुल रेगे। अक्षय कुमार की ‘ओएमजी 2’ एक ऐसे समाज का विस्तार चाहती है, जो सेक्स समस्याओं पर खुलकर बात कर सके। फिल्म के निर्माता ऐसा चाहते हैं तो ये चाहना उनका अधिकार है। लेकिन सितम ये कि अपनी बात कहने के लिए वे ‘भगवान’ को बीच में लेकर आते हैं। हस्तमैथुन जैसे विषय पर उनकी रचनात्मक प्रस्तुति में ‘महादेव’ का समावेश धार्मिक लोगों को आहत कर गया है। इस फिल्म की आंशिक सफलता हिन्दू समुदाय के लिए खतरे की घंटी के समान है। ऐसी फिल्मों में भगवानो की प्रस्तुतियों पर महानगरीय दर्शकों की सहमति बनने लगी है, जो वास्तव में खतरनाक संकेत है।
हिन्दू समुदाय को संकीर्ण मानसिकता का बताते हुए इस फिल्म की कहानी शुरु होती है। महाकाल की नगरी में रहने वाले एक परिवार का बच्चा स्कूल में एक स्वाभाविक गलती के चलते बदनाम हो जाता है। इससे आहत पिता सेक्स एजुकेशन को अनिवार्य बनाने के लिए कोर्ट जाता है। वहां एक लंबी लड़ाई के बाद उसकी जीत होती है। इस जीत में उसे महादेव के एक दूत का साथ मिलता है। वे अब अपनी बात कहने के लिए वे ‘भगवान’ को बीच में लेकर आते हैं, जो कि देश के एक बड़े वर्ग को आहत करता है। हस्तमैथुन जैसे विषय पर महादेव के एक दूत का प्रकट होना हज़म नहीं होता।
फिल्म के ट्रेलर ने जितना दुःख पहुंचाया, उससे अधिक शूल फिल्म रिलीज होने के बाद मिले। अक्षय कुमार एक ही गलती बार-बार दोहरा कर जता चुके हैं कि वे गलती नहीं कर रहे, बल्कि एक सोची समझी रणनीति के तहत हिन्दू धर्म पर हमला कर रहे हैं। अक्षय ने अपनी बहुत सी फिल्मों से लगातार सिद्ध किया है कि भारतीय संस्कृति को वे हेय दृष्टि से देखते आए हैं। ‘ओएमजी 2’ में अक्षय के किरदार को भगवान् के अलावा किसी शिक्षक या प्रचारक का रुप दिया जाता, तो भी ये फिल्म स्वीकार्य हो सकती थी। महादेव का व्यक्तित्व इतना विराट है कि वह निर्देशक अमित राय के कैमरे की फ्रेम में नहीं समा सकता है।
पंकज त्रिपाठी ने इस फिल्म का विरोध होने पर एक इंटरव्यू में कहा कि ‘ मैं यदि इस फिल्म में हूँ, तो भगवान् का अपमान कभी नहीं हो सकता।’ हालाँकि फिल्म में भगवान् का अच्छा मज़ाक बनाया गया है। वास्तव में अमित राय की ये फिल्म ‘समीक्षा’ से पहले ‘आलोचना’ की हकदार है। कायदे से इस पर रिव्यू बनता ही नहीं है। फिल्म समीक्षक होने के नाते फिल्म निर्माता से प्रश्न करना चाहिए कि वे अपनी रचनात्मक प्रस्तुति में भगवान और भगवान् के दूत को क्यों लेकर आए ? हालाँकि ये प्रश्न किसी समीक्षक ने नहीं पूछा है। समीक्षकों ने एक स्वर में इस ‘प्रगतिशील फिल्म’ की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है।
अमित राय के दुःसाहस को देख बॉलीवुड के और निर्देशक ऐसा दुःसाहस करने का प्रयास भविष्य में कर सकेंगे। अपनी फिल्म में कुछ छत्तीस चीरे सेंसर बोर्ड से लगवाकर वे भी सिजेरियन द्वारा अपना ‘रचनात्मक बच्चा’ जन देंगे। सेंसर बोर्ड ने तमाम कट लगाए लेकिन एक दृश्य को हजम कर गया। एक दृश्य में भगवान् के दूत बने अक्षय स्वयं महादेव के अवतार में स्पष्ट रुप से दिखाए गए हैं। सेंसर बोर्ड के ‘प्रगतिशील अध्यक्ष’ को ये शॉट दिखाई नहीं दिया। सेंसर बोर्ड ने लाख कोशिश कर ली लेकिन वह फिल्म में उज्जैन के महाकाल मंदिर के दृश्य नहीं हटा सका। शायद ‘ऊपरी दबाव’ के कारण उसने ऐसा नहीं किया।
जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि ऐसी फिल्मों के प्रति आम स्वीकृति बनने लगना एक खतरनाक संकेत है। ये अभी वायरस अभी सतह पर है और देख लिया गया है। सरकारों और सत्ता पर फूल फेंक रहे संत समाज से अब कोई अपेक्षा नहीं रही है। ये स्टेप तो आपको आज और अभी लेना है। इस फिल्म में अरुण गोविल क्या कर रहे थे ? अरुण गोविल ने अपने चन्द्रमा जैसे कॅरियर पर एक दाग लगा ही लिया। शिकायत उनके निभाए किरदार से नहीं है। इस फिल्म में उन्हें निगेटिव शेड में पेश किया गया है।
गोविल से शिकायत ये है कि उन्होंने फिल्म की विषयवस्तु मालूम होने पर भी व्यावसायिक समझौता किया। अरुण गोविल के लिए विश्व भर से मिला सम्मान पैसे के आगे कम पड़ गया। ये फिल्म एक सबक है। इस सबक को न सीखा गया तो आगे इससे भी भयानक हादसे बॉलीवुड की ओर से होते ही रहेंगे।