जर्मनी के लोगों को बहुत देर से भारत में रूचि हुई, लेकिन जब वे अंततः प्राचीन भारतीय पांडुलिपियों और उनके अनुवादों के संपर्क में आए, तो जर्मन भारत में बहुत रुचि रखने लगे। जर्मन लेखक हेनरिक हेन, (1797-1856) ने उपनिषदों पर व्याख्यान सुनने के बाद लिखा, “पुर्तगाली, डच और ब्रिटिश लंबे समय से भारत से अपने गृह देशों में बड़े जहाजों पर विशाल खजाने ले जाते रहे हैं। हम जर्मनों को इस पर ध्यान देना था। लेकिन हम पीछे नहीं रहेंगे। हम उनका ज्ञान लेते हैं। हमारे संस्कृत विद्वान हमें बॉन या म्यूनिख में भारत की यह धन संपदा प्रदान करते हैं।“
कई जर्मन बुद्धिजीवी भारत के बहुत बड़े प्रशंसक बन गए। वे जर्मन लोग कभी भारत नहीं गए। वे भारत को केवल उन्हीं प्राचीन ग्रंथों अथवा शास्त्रों से जानते थे। वे उपनिषदों, भगवद् गीता, रामायण और कालिदास द्वारा रचित ‘शकुंतला’ के गहन दर्शन को जानते थे। भारत उनके लिए उनके सपनों की भूमि बन गया, जहां सुंदर लोग और समृद्ध प्रकृति अभी भी सद्भाव में थे, और जहाँ यूरोप में सूख चुकी आत्मा को भरपूर पोषण मिला।
दार्शनिक आर्थर शोपेनहावर (1788-1860) ने भारतीयों को “सबसे महान और सबसे प्राचीन लोग” कहा, और उपनिषदों को “इस सदी का सबसे बड़ा उपहार” कहा। उन्होंने कहा, “उपनिषदों को पढ़ना मेरे जीवन में सुकून देने वाला है और जब मैं मर जाऊंगा तो भी सुकून मिलेगा। उन्होंने यह भी लिखा, “हमारा रिलिजन (ईसाईयत) कभी भी भारत में जड़ें नहीं जमा पायेगा… इसके विपरीत, भारतीय ज्ञान यूरोप में प्रवाहित होगा और मौलिक रूप से हमारे ज्ञान और सोच को बदल देगा।“
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के एक युवा और वेतनधारी कर्मचारी मैक्स मूलर ने भारत को बहुत नुकसान पहुंचाया। उसका काम वेदों का अनुवाद करना था, और वह यह दिखाने के लिए उत्सुक था कि वेद बेकार हैं और ईसाईयत बहुत श्रेष्ठ है। इसके अलावा, उसने बिना किसी पुरातात्विक साक्ष्य के आर्य आक्रमण सिद्धांत दिया, जिसने अंग्रेजों को भारत में विभाजन करने और शासन करने में मदद की।
हालांकि, वृद्ध होने पर मैक्स मूलर ने प्राचीन भारतीय परंपरा की गहराई को महसूस किया और भारत की बहुत प्रशंसा की। उसने कैम्ब्रिज में अपने व्याख्यान में कहा था: “अगर मुझसे पूछा जाए कि किस आकाश के नीचे मानव मन ने अपने कुछ सबसे पसंदीदा उपहारों को पूरी तरह से विकसित किया है, जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर सबसे गहराई से विचार किया है, और समाधान ढूंढ लिया है, तो मुझे भारत की ओर इशारा करना चाहिए।“
“अगर मुझसे पूछा जाए कि किस साहित्य से, हम यहाँ यूरोप में शोधन प्राप्त करेंगे, जिसकी हमें अपने जीवन को अधिक सार्वभौमिक, समावेशी और परिपूर्ण बनाने के लिए सबसे अधिक आवश्यकता है,… मैं फिर से भारत की ओर इशारा करूंगा।“
कई और जर्मन लोग उल्लेख के योग्य होंगे:
उदाहरण के लिए इतिहासकार और दार्शनिक गॉटफ्रीड हेडर (1744 -1803), जिन्होंने एक मिशनरी के साथ एक काल्पनिक संवाद में हिंदुओं का पक्ष लिया, इसके बावजूद (या शायद इसलिए) उन्होंने धर्मशास्त्र का भी अध्ययन किया था। दर्शन पर अपने व्याख्यान में, उन्होंने भारत में एक स्वर्ण युग में मानवता का पालना (क्रेडल ऑफ़ ह्यूमैनिटी) देखा।
या 1767 और 1772 में पैदा हुए श्लेगल बंधु, जिनमें से बड़े ने प्रशिया राजा की मदद से बॉन में देवनागरी लिपि में पहली प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की।
या हरमन हेसे (1877-1962), जो भारत आना चाहते थे, लेकिन केवल सीलोन पहुंचे, और बीमार पड़ गए। उन्होंने “सिद्धार्थ” लिखा।
या फ्रेडरिक नीत्शे (1844-1900), जो यह दावा करने के लिए प्रसिद्ध है कि “रिलिजन (धर्म) जनता के लिए अफीम है”। फिर भी फ्रेडरिक नीत्शे ने भी भारत के ‘धर्म’ की प्रशंसा की। उन्होंने लिखा, “धर्म के संबंध में, यूरोप प्राचीन ब्राह्मणों के विचारों की सूक्ष्मता तक नहीं पहुंचा है”।
ग्राफ वॉन कीसरलिंग स्वेज नहर खुलने के बाद भारत की यात्रा करने वाले पहले लोगों में से एक थे। उन्होंने योग पर एक किताब लिखी, जो प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 1920 के दशक में बहुत प्रसिद्ध हुई थी। उन्होंने लिखा: “यह अविश्वसनीय है, आंतरिक विकास के लिए भले ही छोटा, लेकिन नियमित ध्यान कितना महत्वपूर्ण है।“
हालाँकि, एक जर्मन दार्शनिक, हेगेल (1770-1831) ने बिना किसी योग्यता के भारतीय दर्शन पर विचार किया। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी दावा किया कि भारतीयों का चरित्र चालाक और धोखेबाज है और उनमें नैतिक और मानवीय गरिमा की विलुप्त है। वह ब्राह्मणों के साथ विशेष रूप से कठोर थे, उन्होंने लिखा: “अंग्रेज कहते हैं कि वे केवल खाते हैं और सोते हैं।”
वह कभी भारत में नहीं आये थे, लेकिन ‘अंग्रेजों का मानना था … इस आधार पर अपनी कल्पना करते थे। फिर भी उनकी सबसे महान दार्शनिकों में से एक के रूप में प्रशंसा की जाती है। क्या ब्रिटिश अत्याचारियों की राय पर भरोसा करने का उनका आलसी रवैया, उन्हें एक महान बुद्धिजीवी नही मानने के लिए पर्याप्त नही है?
एक अन्य प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक इमैनुएल कांत (1724-1804) ने भारत को नीचा तो नहीं दिखाया अर्थात बुराई नही की, लेकिन अपने व्याख्यानों में शायद ही भारतीय दर्शन का उल्लेख किया।
क्या ये दोनों ही पसंदीदा दार्शनिक हैं, जिन्हें आज भारतीय छात्रों को भी पढ़ाया जाता है, क्या ऐसा इसलिए है कि क्योंकि उन्होंने भारत को नीचा दिखाने में मदद की?
चर्च की दुर्दशा की कल्पना कीजिए।
जर्मनी के बौद्धिक अभिजात वर्ग ने ‘हीथेन्स’ के दर्शन की प्रशंसा की, जिसे “एकमात्र सच्चा” गॉड, जो चर्च के अनुसार ईसाई गॉड है, स्वर्ग में जाने की अनुमति नहीं देगा। अपने झुंड को नियंत्रण में रखने के लिए, चर्च को भारतीय विचारों को आम लोगों के बीच फैलने से रोकने की आवश्यकता थी और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि इसे असभ्य के रूप में देखा जाना था।
चर्च हिंदुओं और उनकी परंपरा को बदनाम करने में सफल रहा। अधिकांश लोग आज भी भारत और हिंदू धर्म के बारे में मुख्य रूप से जो जानते हैं वह “एक दमनकारी जाति व्यवस्था (कास्ट सिस्टम) और कई अजीब देवता”। मैंने स्कूल में हिंदू धर्म के बारे में भी यही सीखा था।
यह एक बड़ी विडंबना है कि कई भारतीय ग्रंथों को मिशनरियों द्वारा भारत से लूट लिया गया था।
जर्मन चिंतकों को भारत की लालसा से पहले ही मिशनरी भारत में थे। उदाहरण के लिए, एक जेसुइट हेनरिक रोथ (जन्म 1620), पहले जर्मन संस्कृत विद्वान थे। 1668 में जेसुइट रेजीडेंसी के प्रमुख के रूप में आगरा में उनकी मृत्यु हुई थी। इससे कुछ साल पहले उन्होंने जर्मनी और इटली का दौरा किया था। क्या उन्होंने वेटिकन और जर्मन पुस्तकालयों को भारतीय ग्रंथों को ‘दान’ कर दिया था, जैसा कि मिशनरी हेबरल ने 1839 में तुबिंगेन विश्वविद्यालय में किया था? तुबिंगेन विश्वविद्यालय के डीन ने प्राचीन भारतीय ग्रंथों के 11 खंडों के हेबरल से मिले “उपहार” की प्रशंसा की और “विश्वविद्यालय के लिए एक महान आभूषण” के रूप में वर्णित किया, लेकिन यह भी कहा “निश्चित रूप से हमारा खजाना लंदन में इंडिया हाउस की तुलना में छोटा है।“
डीन का यह दावा थॉमस मैकाले द्वारा 1835 में भारत में अंग्रेजी स्कूल प्रणाली की शुरुआत करने के चार साल बाद किया गया था, जिसमें भारतीय छात्रों को बताया गया था कि उनकी परंपरा बेकार है और अंग्रेजी साहित्य का आधा शेल्फ उनके सभी साहित्य की तुलना में अधिक मूल्यवान है …
वास्तव में यह भारतीय ज्ञान परम्परा के विरुद्ध एक कपटी चाल थी और साथ ही, भारतीयों को अपनी मूल संस्कृति से काटने और उनसे इसका तिरस्कार कराने की साज़िश थी।
सौभाग्य से, अब पुनरुद्धार हो रहा है।
बहुत से भारतीय अब संस्कृत सीख रहे हैं और विशाल भारतीय ज्ञान प्रणाली के बारे में अधिक जानने में रुचि ले रहे हैं, जहां अभी भी लाखों ग्रंथों का अध्ययन नहीं किया गया है।
फिर भी जिन्हें भारत से काफी फायदा हुआ, उन्हें यह पसंद नहीं आएगा और वे इसमें बाधा डालने की कोशिश करेंगे। यह एक कारण हो सकता है, कि आजकल दुनिया भर में मीडिया द्वारा हिंदुत्व और हिंदुओं पर इतना हमला किया जा रहा है।
यह पुनरुद्धार और पुनरुत्थान की प्रक्रिया भी एक कारण हो सकता है, जिसकी वजह से आजकल किसी भी सकारात्मक तरीके से “भारत” का उल्लेख न करने का विशेष ध्यान रखा जाता है। उदाहरण के लिए, जबकि पिछली शताब्दियों में उन जर्मनों ने भारत से मूल्यवान प्रेरणा को स्वीकार किया, आधुनिक पश्चिमी दार्शनिक इसे स्वीकार नहीं करते हैं, जबकि वे “अपने स्वयं के” दर्शन में भारतीय विचार का उपयोग करते हैं। उदाहरण के लिए ‘माया की अवधारणा’।
भविष्य में, शायद एलन मस्क को भी माया की अवधारणा की खोज करने वाले के रूप में देखा जाएगा। क्योंकि उन्होंने हाल ही में कहा था, “यह दुनिया असली चीज नहीं है। यह एक आभासी वास्तविकता की तरह है।“
क्या उन्हें इसके मूल को स्वीकार नहीं करना चाहिए? आखिरकार यह पश्चिम ही है जिसने कॉपीराइट और पेटेंट शुरू किए और साहित्यिक चोरी के लिए लोगों पर मुकदमा दायर कर रहा है।
भारत ने हमेशा खुले हाथों से और बिना मूल्य के सारी दुनिया को केवल दिया ही है। लेकिन शायद गलत लोगों के लिए कुछ ज्यादा ही खुले हाथों और बिना मूल्य के …
साभार: मारिया विरथ
नोट: यह सुप्रसिद्ध जर्मन मूल की लेखिका मारिया विरथ के अंग्रेजी लेख ‘INDIAN INFLUENCE ON GERMAN PHILOSOPHERS’ का हिंदी अनुवाद है ।