विपुल रेगे। फिल्म निर्देशक रोहित शेट्टी ने ओटीटी प्लेटफॉर्म पर एंट्री मार दी है। रोहित की पहली वेब सीरीज ‘इंडियन पुलिस फ़ोर्स’ प्राइम वीडियो पर रिलीज हुई है। उनकी फ़िल्में मनोरंजन खूब करती हैं लेकिन उनसे गहराई की अपेक्षा दर्शक नहीं करते। हालाँकि इस बार रोहित शेट्टी ने ओटीटी मंच पर एक ‘एंटरटेनर निर्देशक’ से एक गंभीर निर्देशक बनने का प्रयास किया है। ‘इंडियन पुलिस फ़ोर्स’ एंगेजिंग है और भरपूर मनोरंजन करती है। हालाँकि बहुत सी कमियां इस वेब थ्रिलर में दिखाई देती है। इस वेब सीरीज का परिणाम ओटीटी पर क्या रहा, इसमें भी रहस्य है। निर्माताओं का दावा है कि इस वीकेंड में उन्होंने रिकार्डतोड़ कलेक्शन किया है। हालाँकि रिव्यूज और दर्शकों की प्रतिक्रियाएं इसे एक औसत सीरीज बता रहे हैं।
ओटीटी और थियेटर्स का दर्शक वर्ग सर्वथा भिन्न होता है। रोहित शेट्टी ने अपनी वेब सीरीज को वैश्विक सिनेमाई मापदंडों के अनुरुप बनाने का प्रयास किया है और उनकी फिल्म मेकिंग यहाँ काफी बदली हुई दिखाई देती है। ओटीटी पर रोहित ने मेच्योरिटी दिखाने की कोशिश की है। उनकी फिल्मों का अपना अलग दर्शक वर्ग रहा है। उनकी फिल्मों में वास्तविकता का पुट बहुत कम होता है, वे ठोस मनोरजंन आधारित फ़िल्में बनाते आए हैं। ओटीटी पर अधिकांश दर्शक इसे एक औसत सीरीज बता रहे हैं। इसका कारण ये है कि ओटीटी पर आपकी प्रतियोगिता सीधे-सीधे वैश्विक सिनेमा से होती है। रोहित शेट्टी के दर्शक वर्ग ने भी इसे एक औसत सीरीज बताया है।
कहानी – दिल्ली पुलिस स्थापना दिवस पर दिल्ली में आतंकवादी सीरियल ब्लास्ट को अंजाम देते हैं। डीसीपी कबीर मलिक और ज्वाइंट सीपी विक्रम बख्शी इन आतंकियों का सुराग़ निकालने में जुट जाते हैं। इस गिरोह का सरगना ज़रार नाम बदलकर पुरानी दिल्ली में रह रहा है। किसी तरह पुलिस को ज़रार की लोकेशन का पता चलता है लेकिन एक मुठभेड़ में वह बच निकलता है। इस लड़ाई में दिल्ली पुलिस को काफी नुकसान उठाना पड़ता है।
उनका एक अफसर बलिदान हो जाता है। दिल्ली पुलिस की सहायता के लिए गुजरात एटीएस की अधिकारी तारा शेट्टी को बुलाया जाता है लेकिन ज़रार बचकर निकल जाता है। घटना के दो साल बाद जयपुर में सीरियल ब्लास्ट किये जाते हैं। डीसीपी कबीर मलिक को संदेह है कि ये काम ज़रार ने ही किये हैं। अब मालिक और तारा शेट्टी मिलकर ज़रार के पीछे लग जाते हैं। सात एपिसोड की इस सीरीज में कहानी चूहे-बिल्ली के खेल की तरह आगे बढ़ती है। ज़रार लगातार अपने मिशन को अंजाम दे रहा है और पुलिस उसके पीछे है।
अभिनय -डीसीपी के रुप सिद्धार्थ मल्होत्रा ने बढ़िया अभिनय दिखाया है। हालाँकि कुछ दृश्यों में वे कच्चे दिखाई देते हैं। दो एपिसोड्स के बाद सिद्धार्थ का अभिनय संवरने लगता है। अब सिद्धार्थ अपने कन्धों पर फिल्म ढोने लायक हो गए हैं। विवेक ओबेराय को इस वेब सीरीज में देखना बड़ा सुखद है। जितने समय वे फ्रेम में रहे, सिद्धार्थ उनके सामने बड़े फीके लगे हैं। शिल्पा शेट्टी ने एक पुलिस अधिकारी की भूमिका में ढलने के लिए बड़ी मेहनत की है। शरद केलकर का छोटा सा रोल दर्शकों को बहुत पसंद आता है। सीरीज के अंतिम हिस्से में शरद के आने से नई जान आ जाती है। मुकेश ऋषि बहुत सहज दिखाई दिए हैं। ईशा तलवार, ऋतुराज सिंह और श्वेता तिवारी औसत ही रहे हैं।
निर्देशन – रोहित शेट्टी की ‘इंडियन पुलिस फ़ोर्स’ ठोस मनोरंजन पेश करती है। इसके ऊर्जावान विजुअल भव्यता बढ़ाते हैं। निर्देशक कैरेक्टर्स की गहराई में जाते हैं। कहानी साधारण है किन्तु ट्रीटमेंट बढ़िया किया गया है। कॉमेडी और इमोशन अच्छी कहानी की कमी को पूरा कर देते हैं। सिनेमेटोग्राफी सुंदर है, साथ ही ड्रोन द्वारा फिल्माए गए ‘एक्स्ट्रीम लॉन्ग शॉट’ भी मन को भाते हैं। चरित्रों को व्यापक विस्तार दिया गया है। देशभक्ति की भावना उतनी उभरकर नहीं आती, जितनी इस विषय की ज़रुरत थी।
विषय में भी कुछ नया नहीं है। ऐसी कहानियों पर ओटीटी पर सैकड़ों फ़िल्में बन चुकी है। साधारण कहानी को रोहित ने बड़े ही स्टाइलिश तरीके से पेश किया है। अच्छे एक्शन, अभिनय और कार चेसिंग के दृश्यों के पीछे कहानी की कमज़ोरी को रोहित कुशलता से छुपा ले जाते हैं। रोहित के पास गहराई वाली दृष्टि न होने के बावजूद उन्होंने निर्देशन में गंभीरता दिखाई है। एक्शन पर कंट्रोल रखा है। रोहित की और फिल्मों की तरह एक्शन बेकाबू और तर्कहीन नहीं है। ये दर्शक को पकड़ कर रखती है। बहुत सी कमियों के बावजूद रोहित ने एक मनोरंजक वेब सीरीज डिलीवर की है।
कमियां – ये वेब सीरीज मनोरंजक न होती तो इसका ओटीटी पर टिकना बड़ा मुश्किल था। सबसे बड़ी कमी यहाँ खलनायक के चुनाव की रही। निर्देशक युवा कलाकार मयंक टंडन से मनचाहा काम नहीं ले पाए। मयंक के चेहरे पर आतंकी वाली क्रूरता के दर्शन नहीं होते। उन्होंने अभिनय अच्छा किया है लेकिन इस पात्र के साथ वे न्याय नहीं कर पाए हैं। जब फिल्म का मुख्य खलनायक कमज़ोर हो तो बात बिगड़ जाती है। पुलिस की जांच प्रक्रिया में गहराई देखने को नहीं मिलती।
जाँच के अन्यत्र रोहित ने केवल कार्रवाई पर कार्रवाई दिखाई है। दिल्ली में सीरियल ब्लास्ट होना और एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के बलिदान के बाद जाँच बंद कर दिया जाना भी तर्कवान नहीं लगता। कम्प्यूटर ग्राफिक्स पर अच्छा काम नहीं किया गया। बैकग्राउंड म्यूजिक भी असरदार नहीं है। डीसीपी कबीर मलिक गृहमंत्री से कहता है ‘दिल्ली का लौंडा हूं सर, उठा कर ले आऊंगा।’ ऐसे संवाद वास्तविकता के मयार से वेब सीरीज को बार-बार उतार लाते हैं।