श्वेता पुरोहित। अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् | असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ||
श्रीमद्भागवत गीता (१७.२८)
पार्थ = हे पार्थ!
अश्रद्धया = अश्रद्धा से
हुतम् = किया हुआ हवन,
दत्तम् = दिया हुआ दान
तप्तम् = तपा हुआ
तपः = तप
च = तथा
यत् = (और भी) जो कुछ
कृतम् = किया जाय, (वह सब)
असत् = ‘ असत्’-
इति = ऐसा
उच्यते = कहा जाता है
तत् = उसका (फल)
नो = न तो
इह = यहाँ होता है
च = और
न = न
प्रेत्य = मरने के बाद ही होता है अर्थात् उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता।
व्याख्या–‘अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्’- अश्रद्धापूर्वक यज्ञ, दान और तप किया जाय, और ‘कृतं च यत्’ अर्थात् जिसकी शास्त्र में आज्ञा आती है, ऐसा जो कुछ कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाय-वह सब ‘असत्’ कहा जाता है।
‘अश्रद्धया’ पदमें श्रद्धाके अभावका वाचक ‘नञ्’ समास है, जिसका तात्पर्य है कि आसुरलोग परलोक, पुनर्जन्म, धर्म, ईश्वर आदिमें श्रद्धा नहीं रखते ।
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी । श्रुति बिरोध रत सब नर नारी ॥
(मानस ७। ९८।१)
- इस प्रकार के विरुद्ध भाव रखकर वे यज्ञ, दान आदि क्रियाएँ करते हैं।
जब वे शास्त्रमें श्रद्धा ही नहीं रखते, तो फिर वे यज्ञ आदि शास्त्रीय कर्म क्यों करते हैं? वे उन शास्त्रीय कर्मोंको इसलिये करते हैं कि लोगोंमें उन क्रियाओंका ज्यादा प्रचलन है, उनको करनेवालोंका लोग आदर करते हैं तथा उनको करना अच्छा समझते हैं। इसलिये समाजमें अच्छा बननेके लिये और जो लोग यज्ञ आदि शास्त्रीय कर्म करते हैं, उनकी श्रेणीमें गिने जानेके लिये वे श्रद्धा न होनेपर भी शास्त्रीय कर्म कर देते हैं।
‘असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह’ – अश्रद्धापूर्वक यज्ञ आदि जो कुछ शास्त्रीय कर्म किया जाय, वह सब’ असत्’ कहा जाता है। उसका न इस लोक में फल होता है और न परलोकमें-जन्म-जन्मान्तरमें ही फल होता है। तात्पर्य यह कि सकामभावसे श्रद्धा एवं विधिपूर्वक शास्त्रीय कर्मोंको करनेपर यहाँ धन-वैभव, स्त्री-पुत्र आदिकी प्राप्ति और मरनेके बाद स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति हो सकती है और उन्हीं कर्मों को निष्काम भाव से श्रद्धा एवं विधिपूर्वक करने पर अन्तःकरण की शुद्धि होकर परमात्म प्राप्ति हो जाती है; परन्तु अश्रद्धापूर्वक कर्म करनेवालों को इनमें से कोई भी फल प्राप्त नहीं होता ।
यदि यहाँ यह कहा जाय कि अश्रद्धापूर्वक जो कुछ भी किया जाता है, उसका इस लोक में और परलोकमें कुछ भी फल नहीं होता, तो जितने पाप-कर्म किये जाते हैं, वे सभी अश्रद्धासे ही किये जाते हैं, तब तो उनका भी कोई फल नहीं होना चाहिये ! और मनुष्य भोग भोगने तथा संग्रह करने की इच्छाको लेकर अन्याय, अत्याचार, झूठ, कपट, धोखेबाजी आदि जितने भी पाप-कम करता है, उन कमोंका फल दण्ड भी नहीं चाहता ! पर वास्तवमें ऐसी बात है नहीं। कारण कि कर्मोंका यह नियम है कि रागी पुरुष रागपूर्वक जो कुछ भी कर्म करता है, उसका फल कर्ताके न चाहनेपर भी कर्ताको मिलता ही है। इसलिये आसुरी-सम्पदावालोंको बन्धन और आसुरी योनियों तथा नरकोंकी प्राप्ति होती है।
छोटे-से-छोटा और साधारण-से-साधारण कर्म भी यदि उस परमात्माके उद्देश्यसे ही निष्कामभावपूर्वक किया जाय, तो वह कर्म ‘सत्’ हो जाता है अर्थात् परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला हो जाता है; परन्तु बड़े-से-बड़ा यज्ञादि कर्म भी यदि श्रद्धापूर्वक और शास्त्रीय विधि-विधानसे सकामभावपूर्वक किया जाय, तो वह कर्म भी फल देकर नष्ट हो जाता है; परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला नहीं होता तथा वे यज्ञादि कर्म यदि अश्रद्धापूर्वक किये जायँ, तो वे सब असत् हो जाते हैं अर्थात् ‘सत्’ फल देनेवाले नहीं होते। तात्पर्य यह है कि परमात्माकी प्राप्तिमें क्रियाकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत श्रद्धाभावकी ही प्रधानता है।
पूर्वोक्त सद्भाव, साधुभाव, प्रशस्त कर्म, सत्-स्थिति और तदर्थीय कर्म-ये पाँचों परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले होनेसे अर्थात् ‘सत्’- परमात्माके साथ सम्बन्ध जोड़नेवाले होनेसे ‘सत्’ कहे जाते हैं।
अश्रद्धासे किये गये कर्म ‘असत्’ क्यों होते हैं? वेदोंने, भगवान्ने और शास्त्रोंने कृपा करके मनुष्यों के कल्याण के लिये ही ये शुभकर्म बताये हैं, पर जो मनुष्य इन तीनोंपर अश्रद्धा करके शुभकर्म करते हैं, उनके ये सब कर्म ‘असत्’ हो जाते हैं। इन तीनोंपर की हुई अश्रद्धाके कारण उनको नरक आदि दण्ड मिलने चाहिये; परन्तु उनके कर्म शुभ (अच्छे) हैं, इसलिये उन कर्मोंका कोई फल नहीं होता-यही उनके लिये दण्ड है।
मनुष्य को उचित है कि वह यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि शास्त्रविहित कर्मोंको श्रद्धापूर्वक और निष्काम भाव से करे। भगवान्ने विशेष कृपा करके मानव-शरीर दिया है और इसमें शुभकर्म करनेसे अपनेको और सब लोगोंको लाभ होता है। इसलिये जिससे अभी और परिणाम में सबका हित हो-ऐसे श्रेष्ठ कर्तव्य-कर्म श्रद्धापूर्वक और । भगवान्की प्रसन्नताके लिये करते रहना चाहिये।
परिशिष्ट भाव – ‘कृतं च यत्’ पदोंमें नामजप, कीर्तन आदि नहीं आयेंगे; क्योंकि उनमें भगवान्का सम्बन्ध होनेसे वे ‘कर्म’ नहीं हैं, प्रत्युत ‘उपासना’ है।
॥ ॐ श्री परमात्मने नमः ॥