कमलेश कमल. उल्लसित कंठ से करूँ अमिय
प्रगल्भ-प्रभा का यशोगान
तुम उर्वशी, तुम उर्मिला हे प्रिय
तेरा सबसे गर्वित मान (74)
भूल कभी सकता हूँ क्या
विरह-विदग्ध विषम यह पीड़ा
नयनों से मिट सकती है क्या
तेरे सुभ्रुवों की कन्दुक-क्रीड़ा (75)
नव किसलय कोमल, तरल-सरल
मधुर कौमार्य, नवविकसित यौवन
चारु, चंचल, चिर-अमल-धवल
उद्दीप्त रूप औ अलस यौवन (76)
देख रहा हूँ नित अपना ही
आत्महीनता का निर्लज्ज-नर्तन
भाग्य-बवंडर है अपना ही
विच्छिन्न मति का प्र-वर्द्धन(76)
जाग्रत् किञ्चित् हो जाए
मेरा वह अंतःस्पन्दन
विरह-शोक जो विगत बना दे
वीतराग का भीषण निःस्वन (77)
{ नोट– 1. विरह शतक में मूलतः हिंदी के उन शब्दों को लिया गया है जिन्हें आज हिंदी के अध्येता भूल रहे हैं।}