विदाई का करुणा छण- मेरा घर आँगन छूट रहा था। छूट रही थी सखियाँ, सखियों के साथ बचपन की यादें। सभी परिजन दुखी थे, माँ सबसे ज्यादा दुखी थी! वह आंखों की अश्रुधारा को छुपाने का असफल प्रयास करते हुए बेटी विदा होने का दुःख सह रही थी। अतः मुझे संभांलने से ज्यादा लोग माँ को संभांल रहे थे।
मेरे पिता खामोश आँखे, मनोभाषा को छिपाने की कोशिश करते हुए जल्दी-जल्दी काम निपटा रहे थे। आख़िरकार जुदा होने का वक़्त भी आ पहुँचा, पिता ने पति के साथ मुझे मन से विदा किया। साथ में यह भी याद दिलाया की बेटी नासमझ, बड़बोली और अल्हड है। इसकी नादानियों को क्षमा करना। पति ने अति गंभीरता के साथ नि:शब्द होकर पिता को आश्वासन दिया एवं हामी भी भरी॥
जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ। पिता की सीख पति को ही पिता बना देगी, न इसका एहसास था, न अनुमान! वक़्त बदलता रहा, मै बिटिया से बेटा-बेटी की माँ बन गयी। परन्तु आभारी हूँ मै पिता के सामान बर्ताव रखने वाले पति की! बचपन से शुरुआत हुई ज़िंदगी यकीनन आज भी उसी अल्हड़ बचपन में जा रही है। ओह! सिखाने कि कला थी सजा देने का सबक। ठीक उसी प्रकार करते थे जिस प्रकार हमारे बाबूजी! यही नहीं, प्रणय स्पर्श और वात्सल्य स्पर्श समझने में आज भी मुझे दुविधा होती है। परेशानी में मुझे ऐसे दिलासा देते है जिस प्रकार शायद मैंने अपने बच्चो को भी नहीं दिया होगा। मेरी उपलब्धियों को बयां ठीक उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार हमारे बाबूजी कोई इनाम जीतने पर पड़ोसियों या रिश्तेदारों को बताते थे। तभी तो घर छूटने का दुःख भूलकर इनसे अलग होने का दुःख उस से कई गुणा लगता है।
शायद इन्ही भावनाओं को समझते हुए विद्वानों ने मात्रा का स्थान बदलते हुए दोनों को समान स्थान दिया। पति/पिता/मेरी भावनाएं, मेरी तम्मनाएँ, मेरी सांस, मेरा हर एहसास सिर्फ तुम हो। दोनों पालक, दोनों वाहक, दोनों स्नेह प्रेम के प्रतीक। मेरे शब्दों और शब्दों की कड़ी सिर्फ आप ही तो हैं।
श्रीमती संजू मिश्रा