विपुल रेगे। ‘आल क्वाइट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट’ फिल्म नहीं है ये रक्त में सनी जीवंत त्रासदी है। थियेटर में बैठा दर्शक प्रथम विश्व युद्ध की भयंकर त्रासदी का हिस्सा बन जाता है। जब युद्धक टैंक बंकर को थरथराते हैं तो हमें भी भय महसूस होता है। यही असली सिनेमा है। मन और मस्तिष्क को जबर्दस्त ढंग से मथ डालने वाली ये वॉर फिल्म इस दशक की फिल्म है। कुछ साल और बीतेंगे। सिनेमा अपना स्वरुप बदल देगा, शायद उस समय इसे एक महान फिल्म घोषित कर दिया जाएगा।
निर्देशक एडवर्ड बर्गर की ‘आल क्वाइट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट’ युद्ध की विभीषिका इतनी वास्तविकता से प्रस्तुत करता है कि घायल सैनिक के शरीर से बह कर आता रक्त देख हम अनायास ही उसकी गंध महसूस करने लगते हैं। हर फिल्म अपने साथ एक केंद्रीय विचार लेकर आती है। इस सेंट्रल थॉट पर निर्देशक काम न करे तो फिल्म ढह जाती है। यक़ीनन एडवर्ड बर्गर का सेंट्रल थॉट इतना सघन है कि वह फिल्म के हर शॉट के साथ-साथ चलता है।
युद्ध हर व्यक्ति के लिए अलग होता है। वह सैनिक के लिए अलग है तो आम नागरिक के लिए बिलकुल अलग। युद्ध एक राजनीतिज्ञ के लिए भिन्न सामंती ढंग का होता है। युद्ध को संचालित करने वाला राजनीतिज्ञ युद्ध को एक्स्ट्रीम लॉन्ग शॉट में देखता है, इसलिए भूमि पर युद्धरत सैनिक की पीड़ा का उसे भान नहीं होता। ये फिल्म युद्ध के प्रति एक सैनिक के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है। प्रथम विश्व युद्ध पर कम ही फ़िल्में बनाई गई हैं।
अधिकांश प्रसिद्ध वॉर फिल्मों की पृष्ठभूमि में द्वितीय विश्व युद्ध ही रहा है। ‘आल क्वाइट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट’ को दस्तावेजी ढंग से बनाया गया है। तारीखों के साथ घटनाएं दिखाई गई है। फिल्म की मुख्य कथा प्रथम विश्व युद्ध के अंतिम भाग में सेट की गई है। जर्मनी युद्ध में कमज़ोर पड़ता जा रहा है। उसके सैनिक युद्धभूमि में बहुत ही भयानक मौत मारे जा रहे हैं। फ्रांस अपनी शर्तों पर युद्धविराम करना चाहता है क्योंकि वह लाभ की स्थिति में है।
इस घटनाक्रम में जर्मनी नए सैनिकों की भर्ती करता है। इनमे सभी सत्रह-अठारह वर्ष के युवा है, जिनका जीवन अभी ही शुरु हुआ है। अपने शांत शहर में रहते ये युवा युद्ध की वास्तविकता नहीं जानते हैं। जोशीले भाषण सुनकर वे सेना में आ जाते हैं। 17 वर्षीय पॉल बूमर भी इस प्लाटून का हिस्सा है और वह हमारा मुख्य नायक है। कहानी आगे बढ़ती है और ये युवा युद्ध की वास्तविकता से परिचित होते चले जाते हैं।
इनमे से कई मारे जाते हैं। प्रथम विश्व युद्ध पर बनी ये फिल्म सिनेमा के स्टूडेंट्स के लिए ‘काशी’ की तरह है। उन्हें ये फिल्म देखनी ही चाहिए। इस फिल्म को मैं स्टीवन स्पीलबर्ग की कालजयी फिल्म ‘शिंडलर्स लिस्ट’ के स्तर पर रखता हूँ।ये फिल्म ऑस्कर लाने की योग्यता रखती है।इसे हम Oliver Hirschbiegel की ‘डाउनफॉल’ के समकक्ष रख सकते हैं। ये दोनों ही श्रेष्ठ वॉर फ़िल्में हैं। ‘आल क्वाइट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट’ इन सबसे आगे जाते हुए एक आम सैनिक का प्रबल दृष्टिकोण सामने रखती है।
यहाँ युद्ध विजय के बिगुल नहीं बजते। इस युद्ध में किसी की विजय नहीं होती। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक हैरतअंगेज है। जर्मन पियानिस्ट Volker Bertelmann ने इसका संगीत तैयार किया है। उन्होंने एक म्यूजिक पीस ऐसा बनाया है, जो फिल्म का सिग्नेचर पीस बनकर उभरता है। पॉल बूमर जब फ़ौज में आया तो उसे मृत सैनिकों की उधड़ी हुई लाशों से बैज निकालने का काम मिला।
कुछ महीनों बाद एक नया युवा रंगरूट मर चुके पॉल के गले से वह स्कार्फ निकाल लेता है, जो पॉल के दोस्त की एक प्रेमिका का था। खून से सना वह स्कार्फ अँधेरे बंकरों में सैनिकों को महिला की गंध से भरा साहचर्य दे देता था। अब उसमे से सूखे रक्त और काली बारुद की महक आती है। ये फिल्म गर्भवती महिलाओं, कमज़ोर मन के लोगों, दिल के मरीजों और छोटे बच्चों को बिलकुल नहीं देखनी चाहिए। वे इसके अति हिंसक दृश्य देख नहीं पाएंगे।