डॉ० श्रीनारायणदत्त जी श्रीमाली । भारतीय ऋषियों ने अपनी साधना, लगन, परिश्रम एवं दिव्य ज्ञान से ग्रहों की गति का अध्ययन कर के जो निष्कर्ष निकाले, वे वस्तुतः प्रामाणिक होने के साथ – साथ इस बात के सूचक भी हैं कि इन सिद्धान्तों, नियमों एवं तथ्यों के पीछे आर्य ऋषियों की सैकड़ों हजारों वर्षों की तपस्या एवं अनुभूति है। मानव-जीवन के छोटे- से-छोटे तथ्य पर भी इन ऋषियों ने विचार तथा अनुभव प्राप्त किया है। हानि-लाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण आदिका विवेचन करने के साथ-साथ उन्होंने ग्रहों की गति एवं स्थिति के आधार पर आवागमन पर भी प्रकाश डाला है।
बालक जिस समय जन्म लेता है, उस समय का शोधन कर अक्षांश-देशान्तर-संस्कार करने के पश्चात् बालक की जन्म कुण्डली बनायी जाती है। उस समय के ग्रहों की स्थिति के अध्ययन के फलस्वरूप यह ज्ञात किया जा सकता है कि बालक किस योनि से आया है और मृत्यु के पश्चात् उसकी क्या गति होगी। नीचे इस सम्बन्ध में कुछ विशेष योग प्रस्तुत किये जा रहे हैं-
जन्म पूर्व योनि-विचार
(१) यदि जातककी जन्म कुण्डली में चार या इससे अधिक ग्रह उच्च राशि के अथवा स्वराशि के हों तो जीवने उत्तम योनि भोगकर यहाँ जन्म लिया है, ऐसा समझना चाहिये।
(२) लग्न में उच्चराशिका चन्द्रमा हो तो बालक पूर्वजन्म में सद्विवे की वणिक् था, यों मानना चाहिये।
(३) लग्नस्थ गुरु इस बात का सूचक है कि बालक पूर्वजन्म में वेदपाठी ब्राह्मण था। यदि जन्मकुण्डली में कहीं भी उच्च का गुरु होकर लग्न को देख रहा हो तो बालक पूर्वजन्म में धर्मात्मा, सद्गुणी एवं विवेकशील साधु अथवा तपस्वी था – ऐसा ऋषियों का कथन है।
(४) यदि जन्म कुण्डली में सूर्य छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो अथवा तुला राशि का हो तो बालक पूर्वजन्म में पापरत एवं भ्रष्टजीवन व्यतीत करनेवाला था – यों जानना चाहिये ।
(५) लग्न या सप्तम भाव में यदि शुक्र हो, तो जातक पूर्वजन्म में राजा या प्रसिद्ध सेठ था, तथा पूर्णतः भोगी जीवन बिताने वाला था – यों समझना चाहिये।
(६) लग्न, एकादश, सप्तम या चौथे भाव में शनि इस बात का सूचक है कि बालक पूर्वजन्म में शूद्रपरिवार से सम्बन्धित था एवं पापपूर्ण कार्यों में रत था।
(७) यदि लग्न या सप्तम भाव में राहु हो तो बालक की पूर्वमृत्यु स्वाभाविक रूप में नहीं समझनी चाहिये।
(८) चार या इससे अधिक ग्रह जन्म-कुण्डली में नीच राशि के हों तो बालक ने पूर्वजन्ममें निश्चय ही आत्महत्या की होगी, ऐसा ऋषियों का कथन है।
(९) लग्नस्थ बुध स्पष्ट करता है कि जातक पूर्वजन्म में वणिक्-पुत्र था एवं विविध क्लेशों से ग्रस्त रहता था।
(१०) सप्तम भाव, छठे भाव या दशम भाव में मङ्गलकी उपस्थिति यह स्पष्ट करती है कि जातक पूर्वजन्म में अत्यन्त क्रोधी स्वभाव का था तथा कई व्यक्ति उस से पीड़ित रहते थे।
(११) बृहस्पति शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तथा गुरु पञ्चम या नवम भाव में हो तो जातक पूर्वजन्म में वीतरागी था – यों समझना चाहिये।
(१२) एकादश में सूर्य, पञ्चम में बृहस्पति तथा द्वादश भाव में शुक्र इस बातके द्योतक हैं कि जातक पूर्वजन्म में धर्मात्मा लोगों की सहायता करने वाला तथा दान-पुण्यमें तत्पर ईश्वराराधक था। ऐसा भारतीय ऋषियों का कथन है।
मृत्यु उपरान्त गति विचार
मृत्युके उपरान्त जातक की क्या गति होगी, इसका
भी आर्ष नियमों के अनुसार जन्म कुण्डली से किया जा सकता है। नीचे इसी के सम्बन्ध में कुछ प्रामाणिक ज्ञान योग प्रस्तुत किये जा रहे हैं –
(१) कुण्डली में कहींपर भी यदि उच्च (कर्क राशि) का बृहस्पति स्थित हो, तो जातक की अन्त्येष्टि धूमधाम से होती है तथा मृत्यु के पश्चात् उत्तम कुल में जन्म होता है।
(२) लग्न में उच्चराशि का चन्द्रमा हो तथा कोई पापग्रह उसे न देखते हों तो जातक की सद्गति होती है तथा वह अपने पीछे कीर्ति कथाएँ छोड़ जाता है।
(३) अष्टमस्थ राहु जातक को पुण्यात्मा बना देता है तथा मरने के पश्चात् वह राजकुल में जन्म लेता है, ऐसा विद्वानों का कथन है।
(४) अष्टम भावपर मङ्गल की दृष्टि हो तथा लग्नस्थ भौमपर नीच शनि की दृष्टि हो तो जातक रौरव नरक भोगता है।
(५) अष्टमस्थ शुक्र पर गुरुकी दृष्टि हो तो जातक मृत्यु के पश्चात् वैश्यकुल में जन्म लेता है।
(६) अष्टम भावपर मङ्गल और शनि – इन दोनों ग्रहों की पूर्ण दृष्टि हो तो जातक अकाल मृत्यु से मरता है।
(७) अष्टम भावपर शुभ अथवा अशुभ किसी भी प्रकार के ग्रह की दृष्टि न हो और न अष्टम भाव में कोई ग्रह स्थित हो तो जातक ब्रह्मलोक प्राप्त करता है।
(८) लग्न में गुरु – चन्द्र, चतुर्थ भाव में तुला का शनि एवं सप्तम भाव में मकर राशि का मङ्गल हो तो जातक जीवन में कीर्ति अर्जित करता हुआ मृत्यु-उपरान्त ब्रह्म – लीन होता है।
(९) लग्न में उच्च का गुरु चन्द्र को पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो, एवं अष्टमस्थान ग्रहों से रिक्त हो तो जातक जीवन में सैकड़ों धार्मिक कार्य करता है तथा प्रबल पुण्यात्मा एवं मृत्यु के उपरान्त सद्गति का अधिकारी होता है।
(१०) अष्टम भाव को शनि देख रहा हो तथा अष्टम भाव में मकर या कुम्भ राशि हो तो जातक योगिराजपद प्राप्त करता है तथा विष्णुलोक प्राप्त करता है।
(११) यदि जन्म-कुण्डली में चार ग्रह उच्च के हों तो जातक निश्चय ही श्रेष्ठ मृत्यु का वरण करता है, एवं पीछे अक्षयकीर्ति-वट स्थापित कर देता है।
(१२) एकादश भाव में सूर्य-बुध हों, नवम भाव में शनि तथा अष्टम भाव में राहु हो तो जातक मृत्यु के पश्चात् मोक्ष प्राप्त करता है।
विशेष योग
(१) द्वादश भाव शनि, राहु या केतु से युक्त हो, फिर अष्टमेश से युक्त हो अथवा षष्ठेश से दृष्ट हो तो मरने के बाद दुर्गति होगी-यों समझना चाहिये।
(२) गुरु लग्न में हो, शुक्र सप्तम में हो, कन्याराशि का चन्द्रमा हो एवं धनुलग्न में मेष का नवांश हो तो जातक मृत्यु के पश्चात् परमपद प्राप्त करता है।
(३) अष्टमभाव को गुरु, शुक्र और चन्द्र-तीनों ग्रह देखते हों तो जातक मृत्यु के पश्चात् श्रीकृष्ण के चरणों में स्थान प्राप्त करता है, ऐसा आर्य-ऋषियों का कथन है।