श्वेता पुरोहित। जनार्दन का सुधर्मा सभा में जाकर भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन के पश्चात उनकी आज्ञा से भगवत्स्तवन पूर्वक हंस और डिम्भक का संदेश सुनाना और उसे सुनकर यादवों का उपहास करना तथा श्रीकृष्ण का जनार्दन को संदेश देकर लौटाना
वैशम्पायनजी कहते हैं – जिन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया था, उन द्विजश्रेष्ठ धर्मात्मा जनार्दन ने द्वारपाल की सहायता से सुधर्मा सभा में प्रवेश करके देवदेवेश्वर श्रीकृष्ण का दर्शन किया, जो वहाँ उत्तम धर्ममय स्वरूप से विराजमान थे और बलभद्रजी के साथ ऊँचे सिंहासन पर बैठे हुए थे। उनके सामने सात्यकि खडे थे तथा उनके पार्श्वभाग में नारदजी विराजमान थे। भगवान् श्रीकृष्ण दुर्वासा मुनि से बातचीत कर रहे थे। राजा उग्रसेन उनके सामने थे। गाते हुए मुख्य-मुख्य गन्धर्व, नाचती हुईं झुंड-की-झुंड अप्सराएँ तथा सूत, मागध एवं वन्दीजन योग्यतानुसार उनकी सेवा कर रहे थे।
वहाँ माधव मधुसूदन के यश का उच्चस्वर से गान हो रहा था तथा सामगान करने वाले ब्राह्मण भी साममन्त्रों द्वारा श्रीहरि का गुणगान करते थे भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन पाकर जनार्दन का मन प्रसन्न हो गया। अङ्ग-अङ्ग पुलकित हो उठा। ‘मैं जनार्दन हूँ’ ऐसा कहकर उन्होंने श्रीहरि के चरणों में प्रणाम किया। तत्पश्चात् ब्राह्मण जनार्दन ने भगवान् बलभद्र को मस्तक झुकाया और श्रीकृष्ण से कहा – ‘देवदेवेश्वर ! मैं हंस और डिम्भक का दूत हूँ।’ इस तरह कहते हुए विप्रवर जनार्दन से भगवान्
श्रीकृष्ण बोले – ‘ब्रह्मन् ! पहले आप इस आसन पर बैठिये, इसके बाद अपने आगमन का प्रयोजन बताइये।’ तब ब्राह्मण ने ‘बहुत अच्छा’ कहा और वे एक महान् आसन पर विराजमान हुए। भगवान् श्रीकृष्णा ने वाणी द्वारा विप्रवर जनार्दन का स्वागत-सत्कार करके फिर उनसे ब्रह्मदत्त, हंस और डिम्भक का कुशल – समाचार पूछा वे बोले- ‘विप्र जनार्दन ! मैंने हंस और डिम्भक का पराक्रम और प्रयोजन पहले से सुन रखा है। तुम्हारे पिताजी तो कुशलपूर्वक हैं न ?’
जनार्दन ने कहा- केशव ! राजा ब्रह्मदत्त और मेरे पिताजी सकुशल हैं। जगन्नाथ ! दोनों भाई हंस और डिम्भक भी कुशल से ही हैं ।
श्री भगवान् बोले- द्विजश्रेष्ठ ! राजा हंस और डिम्भक ने क्या संदेश दिया है? आप सारी बातें विस्तार पूर्वक बतायें। इसके लिये आपके मन में कोई शङ्का नहीं होनी चाहिये। विप्रवर! उन्होंने जो कुछ कहा हो, वह कहने योग्य हो या न कहने योग्य हो, करने योग्य हो या न करने योग्य हो, उसे पूरा-पूरा सुनकर हमलोग उसका उचित उत्तर देंगे। ब्रह्मन् ! आप दूत हैं। आपके लिये वाच्य और अवाच्य का विचार सर्वथा अनावश्यक है। भेजनेवाले ने जो कुछ जैसे कहा हो, दूत को वह सब उसी प्रकार कहना चाहिये। जनार्दन जी! आपको वाच्य और अवाच्य की शङ्का नहीं करनी चाहिये। अतः हंस और डिम्भक ने जैसा कहा है, वैसा ही यहाँ कहिये।
भगवान् केशव के ऐसा कहने पर जनार्दन बोले- ‘भगवन्! आप अनजान की भाँति क्यों बात कर रहे हैं? आप तो सब कुछ प्रत्यक्ष देखनेवाले हैं। अच्युत ! जगत्का कोई भी वृत्तान्त आपकी आँखों से ओझल नहीं है। आप अपने मनसे सब कुछ देखते हुए भी मुझसे क्यों कहते हैं कि ‘तुम बताओ’। पृथ्वीनाथ! विद्वान् पुरुष आपको ही विष्णु कहते हैं। आप इच्छा करते ही दृष्ट और अदृष्ट वस्तुका पूर्ण विवेक प्राप्त कर लेते हैं। आप ही यह सम्पूर्ण जगत् हैं, आपमें ही इस जगत्की स्थिति है। एक भी ऐसा कोई चर या अचर पदार्थ नहीं है, जो आपसे रहित हो। जगदीश्वर ! आप सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापी हैं, आपके लिये कुछ भी अज्ञेय नहीं है। आप ही समस्त भूतों के इन्द्र हैं और आप ही संहार कर्म करनेवाले रुद्र हैं। माधव ! सदा सम्पूर्ण लोक की रक्षा करनेवाले विष्णु आप ही हैं। आप ही जगत्स्रष्टा ब्रह्मा हैं। फिर आप मुझसे क्यों कहते हैं कि ‘तुम बताओ’। माधव ! विद्वान् पुरुष सदा आपको ही ज्ञानात्मा कहते हैं। पुरुषोत्तम ! प्राणवेत्ता पुरुष आपको – ही प्राण कहते हैं। शब्दशास्त्र के ज्ञाता वैयाकरण आपको ही शब्द कहते हैं। हृषीकेश ! ऐसी दशा में आप मुझ से क्यों कहते हैं कि ‘तुम अपने राजाका संदेश कहो’।
‘देवेश्वर माधव ! तथापि सुनिये । आपने मुझे बारम्बार कहने के लिये प्रेरित किया है। इसलिये मैं कहूँगा। भगवन् ! राजा ब्रह्मदत्त अब राजसूय यज्ञ करेंगे। उसी के लिये हंस और डिम्भक ने मुझे आपके पास भेजा है। उसने मुख्य-मुख्य यादवों से कर लेने और आपको आमन्त्रित करनेके लिये मुझे यहाँ तक आनेके लिये विवश किया है। केशव ! आपको उसके यज्ञ के लिये बहुत-सा नमक देना है। जगत्पते! उन दोनोंने इसीलिये मुझे यहाँ भेजा है कि आप उनकी आज्ञा से उनके लिये कर दीजिये।
उन दोनोंञने जो यह दूसरी बात कही है, उसे भी सुन लीजिये। ‘आप शीघ्र ही बहुत-सा नमक लेकर मेरे यहाँ आइये।’ प्रभो! केशव ! यही उन दोनों राजाओं का आपके लिये संदेश है’।
उन दोनों के दूत विप्रवर जनार्दन जब इस प्रकार कह चुके, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने बहुत देर तक जोर-जोर से हँसकर उस दूतसे कहा –
‘दूत! द्विजश्रेष्ठ ! तुम मेरी कही हुई यह युक्तियुक्त बात सुनो। मैं उन दोनों को कर दूंगा; क्योंकि मैं उन्हें कर देनेवाला नरेश हूँ। विप्रवर! मुझसे जो कर लेने का संकल्प है, यह उन दोनों भाई हंस और डिम्भक की बहुत बडी धृष्टता है। अहो! क्षत्रियके बीज से उत्पन्न हुए उन दोनों की यह कैसी अद्भुत धृष्टता है! यह कैसी आश्चर्यजनक ढिठाई है। मुझसे कर लेने की बात पहले-पहल सुनने में आयी। इससे पूर्व कभी ऐसी बात नहीं सुनी गयी थी ।’
दूतसे ऐसा कहकर भगवान् केशव ने यादवों से कहा – ‘यदुवरो! मुझसे जो कर-ग्रहण की माँग है, यह कैसी उपहासास्पद बात है। राजा ब्रह्मदत्त राजसूय यज्ञ करेंगे और इस यज्ञ के कराने वाले हैं उन्हीं के बेटे हंस और डिम्भक यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण उस दुरात्मा के यहाँ नमक ढोकर ले जायँगे। यदुश्रेष्ठ वीरो ! मुझ वासुदेव को उसने कर देनेवाला कह दिया, मानो उसने मुझे युद्ध में पराजित कर दिया। यादवो! यह कितनी हँसी की बात है, इसे तुमलोग फिर सुनो’। देवेश्वर श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर बलभद्र आदि समस्त यादव हंस-डिम्भक के उस कथन की हँसी उड़ाने के लिये खड़े हो गये। ‘श्रीकृष्ण कर देनेवाले हैं’ ऐसा कहते हुए समस्त यादव परस्पर ताली बजाकर या एक-दूसरे का हाथ पकड़कर जोर-जोर से हँसने लगे ।
ताली बजाने और हँसने की गम्भीर ध्वनि पृथ्वी और आकाश में गूंज उठी। ब्राह्मण जनार्दन अपने मित्र हंस की निन्दा करते हुए मन-ही-मन कहने लगे – ‘अहो ! मैंने जो दूतका कार्य किया, यह बड़े कष्टकी बात है! बड़े कष्टकी बात है’ ऐसा कहकर लज्जित हो वे नीचे मुख करके चुपचाप बैठे रहे।
जब यादव इस प्रकार उपहास कर रहे थे, उस समय केशिहन्ता भगवान् केशव ने दूत से इस प्रकार कहा – ‘ब्रह्मन् ! आप मेरा संदेश लेकर जाइये। शीघ्रगति से वहाँ जाकर उन हंस और डिम्भक से इस प्रकार कहिये – मैं शाङ्ग धनुष द्वारा छोड़े गये और शिला पर तेज किये गये पैने बाणों द्वारा तुम दोनों को कर दूँगा। अथवा उन महामनस्वी राजाओं को अपनी तीखी तलवार से कर समर्पित करूँगा। अथवा मेरे हाथ से छोड़ा गया चक्र उनका सिर काट लेगा और उसी को करके रूप में समर्पित करेगा। भगवान् रुद्र ने तुम दोनों को जो वर दिया है, वही तुम दोनों की ढिठाई का कारण है। यदि वे रुद्रदेव ही तुम दोनों के रक्षक हो जायँ तो मैं उनको भी जीतकर तुम दोनों को मार डालूँगा। राजाओ ! कोई ऐसा स्थान निश्चित कर लेना चाहिये, जहाँ हमलोगों का समागम हो । मैं सेना और सवारियोंसहित वहाँ उस स्थान में आ जाऊँगा। नरेश्वरो ! तुम दोनों वीर भी निर्भय होकर सेनासहित वहाँ आ जाना। पुष्कर में या प्रयाग में अथवा मथुरा में जहाँ तुम्हारी इच्छा हो, वहीं मैं सेनासहित आ जाऊँगा, इसमें अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं।
मित्रता के नाते आपसे ऐसी बात कहलाना उचित न होगा। आप जिसे नहीं कह सकेंगे, उसे आपके साथ जाकर यह सात्यकि कहेंगे। ब्रह्मन् ! आप केवल साक्षी बने रहें। विप्रेन्द्र ! मैं यह भी जानता हूँ कि आपका सदा मेरे ऊपर स्नेह बना रहता है। अतः जनार्दनजी ! आप दुःखों से भरे हुए इस संसार में विजयी होकर सदा नित्य-निरन्तर मेरी कथा-वार्ता में लगे रहिये’।
शेष अगले भाग में…