मूवी रिव्यू : त्रिभंग
हर फिल्म अंत में एक संदेश देती है। संदेश न भी हो तो उसका समग्र प्रभाव ऐसा होना चाहिए कि वह दर्शक को अच्छे या बुरे ढंग से प्रभावित करे। रेणुका शहाणे की फिल्म ‘त्रिभंग’ माँ-बेटी के रिश्तों की गहराई में जाती ज़रूर है लेकिन उन गहराइयों में से नारी स्वतंत्रता का प्राचीन राग निकाल लाती है। रेणुका फिल्म को लेकर प्रारंभ से ही कन्फ्यूज रहीं कि वे दिखाना क्या चाहती हैं।
वे एक साहित्यकार माँ, उसकी अभिनेत्री बेटी के संबंधों की कहानी और कथित नारी स्वतंत्रता के बीच उलझकर रह गई हैं। मुझे इस फिल्म में तार्किकता की भारी कमी दिखाई देती है। आप जो कहानी फिल्म के द्वारा कह रहे हैं, उसे जस्टिफाई करना अत्यंत आवश्यक हो जाता है। नयनतारा आप्टे एक सफल लेखिका हैं। अपनी आत्मकथा लिखवाते हुए नयनतारा की तबियत खराब होती है। वह कोमा में चली जाती है।
नयनतारा की बेटी अनुराधा आप्टे एक अभिनेत्री हैं। अनुराधा अस्पताल आती हैं। यहाँ नयनतारा का सहायक लेखक उसका इंटरव्यू लेना चाहता है, ताकि नयनतारा की आत्मकथा पूरी हो जाए। यहाँ से कहानी फ्लैशबेक में जाती है। बताया जाता है कि नयनतारा ने सफल लेखिका बनने के लिए पति को छोड़ दिया था। पति को छोड़ने के बाद नयनतारा के जीवन में एक और पुरुष आता है। ये कामी पुरुष नयन की बेटी अनु के साथ गलत हरकतें करता है।
अनुराधा के बचपन की यादें इन घटनाओं के कारण कड़वी है। स्वयं अनुराधा एक रशियन पुरुष के साथ लिवइन में रहती है और माँ बन जाती है। बाद में उसका विवाह किसी और से होता है। अनुराधा की बेटी माशा ने एक पारंपरिक परिवार में विवाह किया है, जहाँ महिलाओं का घूंघट रखना अनिवार्य है। अस्पताल में कहानी कई बार फ्लैशबेक में जाकर वर्तमान में आती है। रेणुका शहाणे की ये फिल्म हमें असमंजस में ले जाकर छोड़ती है।
नयनतारा एक इंटरटव्यू में कहती है कि उसने बच्चों के नाम के आगे अपना नाम लगाने के लिए दस साल क़ानूनी लड़ाई लड़ी। जब बच्चों का पालन उसने किया तो नाम लगाने का अधिकार भी उसका ही होना चाहिए। यहाँ नैतिकता आड़े आती है। निर्देशक दिखाती हैं कि बड़ी लेखिका बनने की धुन में नयनतारा घर के काम नहीं करती, बच्चों को नहीं संभालती। फिर एक दिन वह घर छोड़ जाती है।
तर्क ये है कि नयनतारा का पति तो निष्ठा से पत्नी और बच्चों का पालन कर रहा था और घर छोड़कर वह स्वयं जाती है, न कि उसे निकाला जाता है। यहाँ रेणुका का तर्क असंगत है। अपनी चॉइस का जीवन जीने के लिए परिवार को निकालकर तो नहीं फेंका जा सकता। फिल्म में यही दिखाया गया है। अपनी चॉइस का जीवन जीने के लिए रिश्तों की बलि दे दी जाती है। रेणुका फिल्म में पितृसत्तात्मक समाज की बात करती हैं।
लेकिन फिल्म में ऐसे पुरुष दिखाए गए हैं, जो नयनतारा और अनुराधा के जीवन में नहीं आते तो उनका हाल बहुत बुरा होता। निर्देशिका अपनी बात और अपने तर्क रखने में भटक गई हैं। वे तय नहीं कर पाती कि उन्हें पुरुषों और भारतीय परिवारों से घृणा दिखानी है या बेटी के साथ संबंधों की कहानी दिखानी है। रेणुका जैसी संभ्रांत महिला की फिल्म में गंदी गालियां सुनने को मिली है।
आज बॉलीवुड में ये अघोषित नियम बन गया है कि जब तक किसी वेब प्लेटफॉर्म की फिल्म में लड़की या लड़का अश्लील गालियां न दे, महिला साहित्यकार के हाथ में शराब का जाम न हो, पारंपरिक महाराष्ट्रीयन परिवार की बैठक में शराब के दौर न चले, वह फिल्म ही नहीं कहलाती।
काजोल की अभिनय यात्रा यशपूर्ण रही है लेकिन ‘त्रिभंग’ उस यात्रा पर लगे भद्दे दाग की तरह याद रखी जाएगी। उन्हें ये किरदार नहीं करना चाहिए था। तानाजी में एक गरिमामयी किरदार में उन्हें देखने के बाद अनुराधा के किरदार में गाली बकते देखना तकलीफदेह रहा।
अनुराधा के किरदार से फिल्म निर्देशिका की नारी स्वातंत्र की परिभाषा अच्छे से पढ़ी जा सकती है। अनुराधा कहती है कोई एक शादी करके पूरा जीवन कैसे बिता सकता है। उसकी ज़िंदगी में कई पुरुष आए थे। नारी सशक्तिकरण का मतलब बॉलीवुड की फिल्मों के कारण बदल गया है। नारी की शक्ति उनके अनुसार परिवार को बनाए रखने में नहीं है। नारी की शक्ति उनके अनुसार शराब पीने और बहुत से पुरुष प्रेमियों में व्यक्त हो रही है।
अनुराधा की बेटी उसे बताती है कि पेरेंट्स मीटिंग में जब वह अपने नए पुरुष प्रेमी के साथ आती थी, तो वह पल उसके लिए शर्मिंदा करने वाले होते थे। अपनी माँ की ऐसी लाइफ स्टाइल देखकर ही उसने एक परंपरावादी परिवार चुना है। इस फिल्म की असली नायिका वह माशा ही हैं। वह अपनी माँ को बताती है कि अराजक जीवन जीना नारी स्वतंत्रता नहीं होती।
फिल्म के अंत पर सोचता रहा कि इसका हासिल क्या रहा। ये फिल्म न ठीक से मनोरंजन कर पाती है और न तार्किक दृष्टि से इसका स्क्रीनप्ले ही सही है। लेखिका नयनतारा का पति अत्याचारी होता तो यहाँ फिल्म निर्देशिका का तर्क नारी स्वतंत्रता पर सही होता। लेकिन नयनतारा तो लेखिका बनने के लिए एक सुंदर प्रेमिल परिवार त्याग गई थी।
इस बिंदु पर आकर फिल्म क्रेश हो जाती है। यानी की कहानी की नींव ही खोखली थी। एक बहुत बुरी फिल्म, जो न केवल समय खराब करती है, बल्कि आपकी सोच भी नकारात्मक बनाती है।
पहले संगठित परिवार रहता था लोगो मे संस्कार होते थे लेकिन अब सब एकल परिवार के रूप में रहते है, उस पर भी पति पत्नी दोनों कमाने चले जाते है एक दूसरे के लिए समय नही है जो समय है भी वो मोबाइल और टीवी ले जाती है जो संस्कार का तार तार कर रही है। आधुनिकता के नाम पर हम भ्रष्ट होते जा रहे है।
कुल मिलाकर यही सिखाने की कोशिश की गई है लड़कियों को कि परिवार को छोड़ो और अकेले विचरो, ताकि वामपंथीयों का परिवार की व्यवस्था को खतम करने का एजेंडा पूरा हो सके।